Friday, December 31, 2010

नए साल में सब कुछ नया हो आपके लिए...

नए साल को लेकर मेरे मन में घुमड़ रहे विचार...

हो साल नया, पर काल वही है, वही हैं हम, और चाल वही है...
देश वही है, वही है मिट्टी, पत्ते-पौधे, छाल वही है...

वही हैं खुशियां, ग़म वैसे ही, शोक और उन्माद वही है...
कितना ही, कोई भी रोके, मौन वही, संवाद वही है...

कुछ ऐसा हो, साल नए में, मुझको बदले, बेहतर कर दे...
सबको सब कुछ देता जाऊं, पाऊं कुछ तब, ऐसा वर दे...

मेरे सभी मित्रों और उनके परिजनों के लिए नया साल सब कुछ नया लेकर आए - खुशियां, हर्ष, उल्लास...

हार्दिक शुभकामनाएं...

Friday, November 26, 2010

प्यारी प्राची... (रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

विशेष नोट : मेरी बेटी निष्ठा को अपने सिर पर दुपट्टा ओढ़ने या साड़ी लपेटने का काफी शौक है, जबकि वह अभी तीन साल की भी नहीं हुई है... आज अचानक कविताकोश.ओआरजी पर रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की लिखी यह कविता दिखी, तो अपने ब्लॉग पर ले आया हूं...

इतनी जल्दी क्या है बिटिया,
सिर पर पल्लू लाने की...
अभी उम्र है गुड्डे-गुड़ियों,
के संग समय बिताने की...

मम्मी-पापा तुम्हें देखकर,
मन ही मन हर्षाते हैं...
जब वे नन्ही-सी बेटी की,
छवि आंखों में पाते हैं...

जब आएगा समय सुहाना,
देंगे हम उपहार तुम्हें...
तन-मन-धन से सब सौगातें,
देंगे बारम्बार तुम्हें...

अम्मा-बाबा की प्यारी,
तुम सबकी राजदुलारी हो...
घर-आंगन की बगिया की,
तुम मनमोहक फुलवारी हो...

सबकी आंखों में बसती हो,
इस घर की तुम दुनिया हो...
प्राची, तुम हो बड़ी सलोनी,
इक प्यारी-सी मुनिया हो...

Thursday, November 04, 2010

दीपोत्सव की हार्दिक मंगलकामनाएं...


मेरे ब्लॉग्स के सभी चाहने वालों, तथा उनके परिजनों के लिए दीपावली का रोशनी से भरा यह पावन पर्व जीवन में ढेर सारी खुशियां और उजाले लेकर आए, यही कामना है...

निष्ठा, सार्थक, हेमा तथा विवेक रस्तोगी...

Tuesday, October 26, 2010

कोई उम्मीद बर नहीं आती... (मिर्ज़ा ग़ालिब)

विशेष नोट : मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां 'ग़ालिब' या मिर्ज़ा ग़ालिब को कौन नहीं जानता... वह उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे, जिनका जन्म 27 दिसंबर, 1796 को आगरा में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ... ग़ालिब ने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, और उनका जीवनयापन भी मूलतः अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाली पेंशन से होता था, जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी रहे थे)... ग़ालिब के खुद के मुताबिक उन्होंने 12 साल की उम्र से ही उर्दू और फ़ारसी में गद्य तथा पद्य लिखने आरम्भ कर दिए थे... 13 साल की उम्र में उनका निकाह हो गया था, जिसके बाद वह दिल्ली आ गए, जहां उनकी तमाम उम्र बीती... उनका देहांत 15 फरवरी, 1869 को हुआ... उनकी एक चर्चित ग़ज़ल आप लोगों के लिए...

कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती...

मौत का एक दिन मु'अय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती...

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी, अब किसी बात पर नहीं आती...

जानता हूं सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद, पर तबीयत इधर नहीं आती...

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं, वर्ना क्या बात कर नहीं आती...

क्यों न चीख़ूं कि याद करते हैं, मेरी आवाज़ गर नहीं आती...

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता, बू-ए-चारागर नहीं आती...

हम वहां हैं, जहां से हम को भी, कुछ हमारी ख़बर नहीं आती...

मरते हैं आरज़ू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती...

काबा किस मुंह से जाओगे 'ग़ालिब', शर्म तुमको मगर नहीं आती...

Thursday, October 14, 2010

यादें नेताजी की... (अज्ञात)

विशेष नोट : यह हास्य कविता मुझे एक अन्य ब्लॉग hansgulle.blogspot.com पर मिली, पसंद आई, सो, आप लोगों के लिए यहां भी प्रस्तुत कर रहा हूं... किसी पाठक को यदि इसके रचयिता के बारे में जानकारी हो तो कृपया सूचित करें...

एक महाविद्यालय में
नए विभाग के लिए,
नया भवन बनवाया गया...
उसके उद्घाटन के लिए,
महाविद्यालय के एक पुराने छात्र,
लेकिन नए नेता को बुलवाया गया...

अध्यापकों ने कार के दरवाज़े खोले,
और नेताजी उतरते ही बोले...

यहां तर गईं, कितनी ही पीढ़ियां,
अहा... वही पुरानी सीढ़ियां...
वही पुराना मैदान, वही पुराने वृक्ष,
वही पुराना कार्यालय, वही पुराने कक्ष...
वही पुरानी खिड़की, वही जाली,
अहा देखिए, वही पुराना माली...

मंडरा रहे थे, यादों के धुंधलके,
थोड़ा और आगे गए चलके...
वही पुरानी चमगादड़ों की साउंड,
वही घंटा, वही पुराना प्लेग्राउंड...
छात्रों में वही पुरानी बदहवासी,
अहा, वही पुराना चपरासी...

नमस्कार, नमस्कार...
अब आया होस्टल का द्वार...
होस्टल में वही पुराने कमरे,
वही पुराना खानसामा...
वही धमाचौकड़ी,
वही पुराना हंगामा...

नेताजी पर,
पुरानी स्मृतियां छा रही थीं...
तभी पाया,
एक कमरे से कुछ ज़्यादा ही आवाज़ें आ रही थीं...

उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया...
लड़के ने खोला, पर घबराया...
क्योंकि अन्दर एक कन्या थी,
वल्कल-वसन-वन्या थी...

दिल रह गया दहल के,
लेकिन बोला संभल के...
आइए सर, मेरा नाम मदन है,
इनसे मिलिए, मेरी कज़न है...

नेताजी लगे मुस्कुराने,
वही पुराने बहाने...

Thursday, October 07, 2010

मेरा रंग दे बसंती चोला... (शहीद)

विशेष नोट : शायद ही कोई ऐसा भारतीय होगा, जिसने यह गीत कभी न कभी न गुनगुनाया हो... अपने देशभक्ति से जुड़े किरदारों के चलते 'भारत कुमार' के नाम से मशहूर अभिनेता मनोज कुमार की फिल्म 'शहीद' का यह गीत मेरी नज़र में सदा अमर ही रहेगा...

फिल्म : शहीद
गीतकार : प्रेम धवन
संगीतकार : प्रेम धवन
पार्श्वगायक : मुकेश, महेंद्र कपूर, राजेंद्र भाटिया
पर्दे पर : मनोज कुमार, प्रेम चोपड़ा


मेरा रंग दे बसंती चोला...
मेरा रंग दे बसंती चोला, ओए रंग दे बसंती चोला...
मेरा रंग दे बसंती चोला, माए रंग दे बसंती चोला...

दम निकले इस देश की खातिर, बस इतना अरमान है...
दम निकले इस देश की खातिर, बस इतना अरमान है...
एक बार इस राह में मरना, सौ जन्मों के समान है...
देख के वीरों की क़ुरबानी...
देख के वीरों की क़ुरबानी, अपना दिल भी बोला...
मेरा रंग दे बसंती चोला...

जिस चोले को पहन शिवाजी, खेले अपनी जान पे...
जिस चोले को पहन शिवाजी, खेले अपनी जान पे...
जिसे पहन झांसी की रानी, मिट गई अपनी आन पे...
आज उसी को पहन के निकला, पहन के निकला...
आज उसी को पहन के निकला, हम मस्तों का टोला...
मेरा रंग दे बसंती चोला...

Friday, October 01, 2010

जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़ियां करती हैं बसेरा... (सिकन्दर-ए-आज़म)

विशेष नोट : एक बेहद खूबसूरत गीत, जो सहज ही देशभक्ति गीत कहा जा सकता है... मुझे काफी पसंद है, और बचपन से ही याद है... सो, आज आप लोगों के लिए भी प्रस्तुत है...

फिल्म : सिकन्दर-ए-आज़म (1965)
गीतकार : राजेन्द्र कृष्ण
संगीत निर्देशक : हंसराज बहल
पार्श्वगायक : मोहम्मद रफी
फिल्म निर्देशक : केदार कपूर
पर्दे पर : पृथ्वीराज कपूर, प्रेमनाथ, प्रेम चोपड़ा तथा अन्य

गुरुर्ब्रह्मः गुरुर्विष्णुः
गुरुर्देवो महेश्वर:
गुरु: साक्षात् परब्रह्मः
तस्मै श्री गुरुवे नम:

जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़ियां करती हैं बसेरा...
वो भारत देश है मेरा...

जहां सत्य, अहिंसा और धरम का पग-पग लगता डेरा...
वो भारत देश है मेरा...
जय भारती... जय भारती... जय भारती... जय भारती...

ये धरती वो जहां ऋषि-मुनि, जपते प्रभु नाम की माला...
हरिओम... हरिओम... हरिओम... हरिओम...
जहां हर बालक इक मोहन है, और राधा इक-इक बाला...
...और राधा इक-इक बाला...
जहां सूरज सबसे पहले आकर डाले अपना घेरा...
वो भारत देश है मेरा...
वो भारत देश है मेरा...

जहां गंगा-जमुना-कृष्णा और कावेरी बहती जाएं...
जहां पूरब-पश्चिम उत्तर-दक्षिण को अमृत पिलवाएं...
...ये अमृत पिलवाएं...
कहीं ये तो फल और फूल उगाएं, केसर कहीं बिखेरा...
वो भारत देश है मेरा...
वो भारत देश है मेरा...

अलबेलों की इस धरती के, त्योहार भी हैं अलबेले...
कहीं दिवाली की जगमग है, होली के कहीं मेले...
कहीं दिवाली की जगमग है, होली के कहीं मेले...
होली के कहीं मेले...
जहां राग-रंग और हंसी-खुशी का चारों ओर है घेरा...
वो भारत देश है मेरा...
वो भारत देश है मेरा...

जहां आसमान से बातें करते, मंदिर और शिवाले...
किसी नगर में, किसी द्वार पर, कोई न ताला डाले...
कोई न ताला डाले...
और प्रेम की बंसी जहां बजाता आए शाम-सवेरा...
वो भारत देश है मेरा...
वो भारत देश है मेरा...

Monday, September 06, 2010

हिन्दी की दुर्दशा... (काका हाथरसी)

विशेष नोट : काका हाथरसी बहुत छोटी-सी आयु (मेरी ही आयु की बात कर रहा हूं) से ही मेरे पसंदीदा हास्य कवि रहे हैं... आकाशवाणी के कार्यक्रमों को सुनने वाले जानते हैं कि उनकी कुण्डलियां बेहद प्रसिद्ध रही हैं... ऐसी ही दो कुण्डलियां उन्होंने देश में हिन्दी की हो रही दुर्दशा पर भी लिखी थीं, जो आज kavitakosh.org से आपके सामने लेकर आ रहा हूं...

बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य,
सुना, रूस में हो गई, है हिन्दी अनिवार्य,
है हिन्दी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा,
बनने वालों के मुंह पर, क्या पड़ा तमाचा,
कहं 'काका', जो ऐश कर रहे रजधानी में,
नहीं डूब सकते क्या, चुल्लू भर पानी में...

पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस,
हिन्दी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस,
जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी,
इंग्लिश रानी हुई हिन्द में, हिन्दी बांदी,
कहं 'काका' कविराय, ध्येय को भेजो लानत,
अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत...

Friday, September 03, 2010

चांद एक दिन... (रामधारी सिंह 'दिनकर')

विशेष नोट : बच्चों के लिए यह कविता अच्छी रहेगी, मधुर भी है, और इसके जरिये उन्हें चंद्रमा की कला के बारे में भी जानकारी दी जा सकती है...

हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला...
सिलवा दो मां, मुझे, ऊन का मोटा एक झिंगोला...

सन-सन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूं...
ठिठुर-ठिठुरकर, किसी तरह यात्रा पूरी करता हूं...

आसमान का सफर, और यह मौसम है जाड़े का...
न हो अगर कुछ और, तो ला दो कुर्ता ही भाड़े का...

बच्चे की सुन बात, कहा माता ने, 'अरे सलोने'...
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू-टोने...

जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूं...
एक नाप में, कभी नहीं तुझको देखा करती हूं...

कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा...
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा...

घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है...
नहीं किसी की भी आंखों को दिखलाई पड़ता है...

अब तू ही बता यह, नाप तेरी किस रोज लिवाए...
सी दें एक झिंगोला, जो हर रोज बदन में आए...

Thursday, August 05, 2010

भजो रे मन गोविन्दा... (भजन)

विशेष नोट : मेरे बचपन में हमारे घर के पास बने मंदिर में प्रवचन और भगवत कथा के लिए एक स्वामी जी आया करते थे, जो अब वृंदावन में आश्रम बनाकर रहते हैं... वह एक भजन गाया करते थे, जो मुझे काफी पसंद था, सो, आज वह भी आप लोगों के लिए ले आया हूं... संभव है, इसमें एक-दो अंतरे और भी हों, लेकिन मुझे इतना ही याद है... 

नटवर नागर नन्दा, भजो रे मन गोविन्दा...
सांवली सूरत, मुख चन्दा, भजो रे मन गोविन्दा...

सब देवन में कृष्ण बड़े हैं...
सब देवन में कृष्ण बड़े हैं...
ज्यों तारों में चन्दा, भजो रे मन गोविन्दा...
ज्यों तारों में चन्दा, भजो रे मन गोविन्दा...
नटवर नागर नन्दा, भजो रे मन गोविन्दा...

सब सखियन में राधा बड़ी हैं...
सब सखियन में राधा बड़ी हैं...
ज्यों नदियों में गंगा, भजो रे मन गोविन्दा...
ज्यों नदियों में गंगा, भजो रे मन गोविन्दा...
नटवर नागर नन्दा, भजो रे मन गोविन्दा...

Monday, August 02, 2010

तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो... (फिल्मी प्रार्थना)

विशेष नोट : सुनील दत्त तथा मीना कुमारी अभिनीत वर्ष 1961 में बनी हिन्दी फिल्म 'मैं चुप रहूंगी' में फिल्माया गया यह गीत आज भी बहुत-से विद्यालयों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है...

रचनाकार : राजेंद्र कृष्ण
फिल्म : मैं चुप रहूंगी
पार्श्वगायन : लता मंगेशकर
संगीतकार : चित्रगुप्त

तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो, तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो...
तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो, तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो...

तुम्ही हो साथी, तुम्ही सहारे, कोई न अपना, सिवा तुम्हारे...
तुम्ही हो साथी, तुम्ही सहारे, कोई न अपना, सिवा तुम्हारे...
तुम्ही हो नैया, तुम्ही खिवैया, तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो...
तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो, तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो...

जो खिल सके न, वो फूल हम हैं, तुम्हारे चरणों की, धूल हम हैं...
जो खिल सके न, वो फूल हम हैं, तुम्हारे चरणों की, धूल हम हैं...
दया की दृष्टि सदा ही रखना, तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो...
तुम्ही हो माता, पिता तुम्ही हो, तुम्ही हो बंधु, सखा तुम्ही हो...


Thursday, July 29, 2010

जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को...

विशेष नोट : मैंने जिस दिन यह भजन पहली बार सुना था, उसी दिन से याद है... शर्मा बंधुओं द्वारा गाया यह भजन मैं अक्सर गुनगुनाया करता हूं... आज आप सब लोगों के लिए भी प्रस्तुत है... सुनना भी चाहें, तो इसी पृष्ठ पर नीचे देखें...

फिल्म : परिणय
गीतकार :
रामानन्द शर्मा
संगीतकार :
जयदेव
गायक :
शर्मा बंधु

जैसे सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को मिल जाए तरुवर की छाया...
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है, मैं जबसे शरण तेरी आया... मेरे राम...

भटका हुआ मेरा मन था, कोई मिल न रहा था सहारा...
लहरों से लड़ती हुई नाव को जैसे, मिल न रहा हो किनारा...
मिल न रहा हो किनारा...
उस लड़खड़ाती हुई नाव को जो किसी ने किनारा दिखाया...
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है, मैं जबसे शरण तेरी आया... मेरे राम...

शीतल बने आग चंदन के जैसी, राघव कृपा हो जो तेरी...
उजियाली पूनम की हो जाएं रातें, जो थीं अमावस अंधेरी...
जो थीं अमावस अंधेरी...
युग-युग से प्यासी मरुभूमि ने, जैसे सावन का संदेस पाया...
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है, मैं जबसे शरण तेरी आया... मेरे राम...

जिस राह की मंज़िल तेरा मिलन हो, उस पर कदम मैं बढ़ाऊं...
फूलों में खारों में, पतझड़-बहारों में, मैं न कभी डगमगाऊं...
मैं न कभी डगमगाऊं...
पानी के प्यासे को तक़दीर ने, जैसे जी-भर के अमृत पिलाया...
ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है, मैं जबसे शरण तेरी आया... मेरे राम...

Tuesday, July 27, 2010

देहि शिवा वर मोहि इहै... (श्री गुरु गोविन्द सिंह जी)

विशेष नोट : यह छुटपन से ही मेरी पसंदीदा उक्तियों में शामिल है... यह सवैया सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोविन्द सिंह जी की रचना है, जिसे दशम् ग्रंथ, अथवा श्री दशम् ग्रंथ साहिब के खंड 'चंडी चरित्र उक्ति बिलास' में स्थान दिया गया है...

उल्लेखनीय है कि दशम् ग्रंथ को आमतौर पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब समझ लिया जाता है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है... एक ओर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जहां अध्यात्म के मार्ग पर चलकर मुक्ति का मार्ग बताता है, वहीं दशम् ग्रंथ में धर्म का ज़िक्र नाममात्र के लिए है... दशम् ग्रंथ का उद्देश्य जनसाधारण को अन्याय और अधर्म के विरुद्ध आवाज़ उठाने और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित करना था... श्री दशम् ग्रंथ साहिब के कुछ हिस्से - जपुजी साहिब, त्वै प्रसाद सवैये (अमृत सवैये) तथा बेनती (विनती) चौपाई आदि - सिखों की नित्य प्रार्थना (नितनेम) में शामिल हैं... दशम् ग्रंथ में सम्मिलित रचनाएं ब्रजभाषा में हैं, और गुरुमुखी लिपि में लिखी गई हैं...

एक और बात जानने योग्य है - सिखी से जुड़े सभी ग्रंथों आदि में सिख गुरुओं ने 'वाहेगुरु' (परमपिता परमात्मा) का उल्लेख करने के लिए कई हिन्दू-मुस्लिम नामों का प्रयोग किया है... इस सवैये में भी 'शिवा' का अर्थ 'वाहेगुरु' ही है, जो, एक है, अवर्णनीय है, अनदेखा है, और अनश्वर है... 

मूल गुरुमुखी लिपि में लिखा सवैया...

ਦੇਹਿ ਸ਼ਿਵਾ ਵਰ ਮੋਹਿ ਇਹੈ, ਸ਼ੁਭ ਕਰਮਨ ਤੇ ਕਬਹੂੰ ਨਾ ਟਰੋਂ...
ਨ ਡਰੂੰ ਅਰਿ ਸੌਂ ਜਬ ਜਾਯਿ ਲਰੌਂ, ਨਿਸਚੈ ਕਰਿ ਅਪਨੀ ਜੀਤ ਕਰੋਂ...
ਅਰੁ ਸਿਖਹੋੰ ਆਪਨੇ ਹੀ ਮਨ ਕੌ, ਇਹ ਲਾਲਚ ਹਉ ਗੁਨ ਤਉ ਉਚਰੋ...
ਜਬ ਆਵ ਕੀ ਅਉਧ ਨਿਦਾਨ ਬਨੈ, ਅਥਿ ਹੀ ਰਣ ਮੈਂ ਤਬ ਜੂਝ ਮਰੋਂ...

देवनागरी (हिन्दी) लिपि में लिखा सवैया...

देहि शिवा वर मोहि इहै, शुभ करमन ते कबहूं न टरूं...
न डरूं अरि सौं जब जाइ लरूं, निसचै कर अपनी जीत करूं...
अरु सिखहों आपने ही मन कौ, इह लालच हउ गुन तउ उचरूं...
जब आऊ की अउध निदान बनै, अथि ही रन में तब जूझ मरूं...

The couplet in the Roman (English) script...

dehi Shiva var mohi ihai, shubh karman te kabahoo na Taroon...
na Daroon ari sau jab jaai laroon, nischai kar apni jeet karoon...
aru sikhho aapne hi man ko, ih laalach hau gun tau uchroon...
jab aau ki audh nidaan banai, athi hi ran mein tab joojh maroon...

इन पंक्तियों का हिन्दी में अर्थ है :
हे शिव (परमपिता परमात्मा), मुझे यही वर (वरदान) दीजिए, कि मैं शुभ कार्यों को करने से कभी पीछे न हटूं, उन्हें कभी न टालूं... जब भी मैं शत्रु से लड़ने जाऊं, मेरे भीतर डर के लिए कोई स्थान न हो, और मुझमें इतना आत्म-विश्वास हो, कि मैं दृढ़ निश्चय के साथ जाकर युद्ध करूं, और जीतकर लौटूं... मैं अपने हृदय को सदा आप ही के गुण और अच्छाइयां सीखने का लालच देता रहूं... और जब मेरे जीवन के अंतिम दिन आ जाएं, तो मैं युद्धभूमि में जोश के साथ सच के लिए लड़ता हुआ मरूं...

Translation in English (Courtesy: Wikipedia):
O Lord grant me the boon, that I may never deviate from doing a good deed...
That I shall not fear when I go into combat, and with determination I will be victorious...
That I may teach myself this greed alone, to learn only Thy praises...
And when the last days of my life come, I may die in the might of the battlefield...

Thursday, July 22, 2010

पानी और धूप... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित कई कविताएं हम सबने अपने स्कूली दिनों में पढ़ी हैं, परंतु यह कविता मुझे हाल ही में इंटरनेट पर कविताओं की एक वेबसाइट पर दिखी... अच्छी लगी, सो, आपके लिए भी प्रस्तुत है...

अभी अभी थी धूप, बरसने लगा कहां से यह पानी...
किसने फोड़ घड़े बादल के, की है इतनी शैतानी...

सूरज ने क्‍यों बंद कर लिया, अपने घर का दरवाज़ा...
उसकी मां ने भी क्‍या उसको, बुला लिया कहकर आजा...

ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं, बादल हैं किसके काका...
किसको डांट रहे हैं, किसने, कहना नहीं सुना मां का...

बिजली के आंगन में अम्‍मा, चलती है कितनी तलवार...
कैसी चमक रही है, फिर भी, क्‍यों खाली जाते हैं वार...

क्‍या अब तक तलवार चलाना, मां, वे सीख नहीं पाए...
इसीलिए क्‍या आज सीखने, आसमान पर हैं आए...

एक बार भी, मां, यदि मुझको, बिजली के घर जाने दो...
उसके बच्‍चों को, तलवार चलाना, सिखला आने दो...

खुश होकर तब बिजली देगी, मुझे चमकती-सी तलवार...
तब मां, कर न कोई सकेगा, अपने ऊपर अत्‍याचार...

पुलिसमैन, अपने काका को, फिर न पकड़ने आएंगे...
देखेंगे तलवार, दूर से ही, वे सब डर जाएंगे...

अगर चाहती हो, मां, काका जाएं अब न जेलखाना...
तो फिर बिजली के घर मुझको, तुम जल्‍दी से पहुंचाना...

काका जेल न जाएंगे अब, तुझे मंगा दूंगी तलवार...
पर बिजली के घर जाने का, अब मत करना कभी विचार...

Thursday, July 15, 2010

यह कदम्ब का पेड़... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित कई कविताएं हम सबने अपने स्कूली दिनों में पढ़ी हैं, परंतु यह कविता मुझे हाल ही में इंटरनेट पर कविताओं की एक वेबसाइट पर दिखी... अच्छी लगी, सो, आपके लिए भी प्रस्तुत है...

यह कदम्ब का पेड़, अगर मां, होता यमुना तीरे...
मैं भी उस पर बैठ, कन्हैया बनता, धीरे-धीरे...

ले देतीं यदि मुझे बांसुरी, तुम दो पैसे वाली...
किसी तरह नीची हो जाती, यह कदम्ब की डाली...

तुम्हें नहीं कुछ कहता, पर मैं, चुपके-चुपके आता...
उस नीची डाली से अम्मा, ऊंचे पर चढ़ जाता...

वहीं बैठ फिर, बड़े मजे से, मैं बांसुरी बजाता...
अम्मा-अम्मा, कह वंशी के स्वर में, तुम्हे बुलाता...

सुन मेरी बंसी, मां, तुम कितना खुश हो जातीं...
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं...

तुमको आती देख, बांसुरी रख, मैं चुप हो जाता...
एक बार मां कह, पत्‍तों में, धीरे से छिप जाता...

तुम हो चकित देखतीं, चारों ओर न मुझको पातीं...
व्‍या‍कुल सी हो तब, कदम्ब के नीचे तक आ जातीं...

पत्‍तों का मर-मर स्‍वर सुनकर, जब ऊपर आंख उठातीं...
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं...

ग़ुस्‍सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं, नीचे आ जा...
पर जब मैं न उतरता, हंसकर कहतीं, मुन्‍ना राजा...

नीचे उतरो, मेरे भैया, तुम्‍हें मिठाई दूंगी...
नए खिलौने - माखन - मिश्री - दूध - मलाई दूंगी...

मैं हंसकर, सबसे ऊपर की, डाली पर चढ़ जाता...
वहीं कहीं पत्‍तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता...

बहुत बुलाने पर भी मां जब, नहीं उतरकर आता...
मां, तब मां का हृदय तुम्हारा, बहुत विकल हो जाता...

तुम आंचल फैलाकर अम्मा, वहीं पेड़ के नीचे...
ईश्वर से कुछ विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे...

तुम्हें ध्यान में लगी देख, मैं धीरे-धीरे आता...
और तुम्हारे, फैले आंचल के नीचे छिप जाता...

तुम घबराकर आंख खोलतीं, पर मां खुश हो जातीं...
जब अपने मुन्ना राजा को, गोदी में ही पातीं...

इसी तरह कुछ, खेला करते, हम-तुम धीरे-धीरे...
यह कदम्ब का पेड़, अगर मां, होता यमुना तीरे...

Tuesday, July 13, 2010

आज हमारी छुट्टी है... (श्यामसुन्दर अग्रवाल)

विशेष नोट : अपने पुत्र सार्थक और पुत्री निष्ठा को सिखाने के लिए सदा कुछ नया ढूंढता रहता हूं, सो, अचानक श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल द्वारा लिखित यह कविता मिल गई... डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.कविताकोश.ओआरजी (www.kavitakosh.org) के अनुसार श्री अग्रवाल का जन्म पंजाब के कोटकपुरा में हुआ था... श्री अग्रवाल हिन्दी और पंजाबी भाषा में कविताएं रचने के अतिरिक्त कहानियां और लघुकथाएं लिखने, उनके सम्पादन तथा अनुवाद करने के लिए भी जाने जाते हैं... श्री अग्रवाल पिछले 21 वर्ष से लघुकथाओं की पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'मिन्नी' के संयुक्त सम्पादक भी हैं...

रविवार का प्यारा दिन है,
आज हमारी छुट्टी है...

उठ जाएंगे क्या जल्दी है,
नींद तो पूरी करने दो...
बड़ी थकावट हफ्ते भर की,
आराम ज़रूरी करने दो...

नहीं घड़ी की ओर देखना,
न करनी कोई भागम-भाग...
मनपसंद वस्त्र पहनेंगे,
आज नहीं वर्दी का राग...

खाएंगे आज गर्म परांठे,
और खेलेंगे मित्रों संग...
टीचर जी का डर न हो तो,
उठती मन में खूब उमंग...

होम-वर्क को नमस्कार,
और बस्ते के संग कुट्टी है...
मम्मी, कोई काम न कहना,
आज हमारी छुट्टी है...

Tuesday, June 01, 2010

मेरे देश की धरती... (उपकार)

विशेष नोट : शायद ही कोई ऐसा हिन्दुस्तानी होगा, जिसने इस गीत को कभी न कभी सुना न होगा, या यूं कहिए, गुनगुनाया न होगा... मुझे भी यह गीत मेरे बचपन से ही कंठस्थ है... आज आप सब लोगों के लिए भी प्रस्तुत है...

फिल्म : उपकार
गीतकार : गुलशन बावरा
संगीतकार : कल्याणजी आनंदजी
पार्श्वगायक : महेन्द्र कपूर

मेरे देश की धरती सोना उगले,
उगले हीरे-मोती,
मेरे देश की धरती...

बैलों के गले में जब घुंघरू, जीवन का राग सुनाते हैं...
ग़म कोसों दूर हो जाता है, खुशियों के कंवल मुस्काते हैं...
सुन के रहट की आवाज़ें, यूं लगे कहीं शहनाई बजे...
आते ही मस्त बहारों के, दुल्हन की तरह हर खेत सजे...

मेरे देश की धरती...
मेरे देश की धरती सोना उगले,
उगले हीरे-मोती...
मेरे देश की धरती...

जब चलते हैं इस धरती पर हल, ममता अंगड़ाइयां लेती है...
क्यों ना पूजें इस माटी को, जो जीवन का सुख देती है...
इस धरती पे जिसने जन्म लिया, उसने ही पाया प्यार तेरा...
यहां अपना-पराया कोई नही, है सब पे मां उपकार तेरा...

मेरे देश की धरती...
मेरे देश की धरती सोना उगले,
उगले हीरे-मोती...
मेरे देश की धरती...

ये बाग है गौतम-नानक का, खिलते हैं अमन के फूल यहां...
गांधी, सुभाष...
गांधी, सुभाष, टैगोर, तिलक, ऐसे हैं चमन के फूल यहां...
रंग हरा हरी सिंह नलवे से...
रंग लाल है लाल बहादुर से...
रंग बना बसंती भगतसिंह...
रंग अमन का वीर जवाहर से...

मेरे देश की धरती...
मेरे देश की धरती सोना उगले,
उगले हीरे-मोती...
मेरे देश की धरती...

Tuesday, April 20, 2010

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला... (सत्यम् शिवम् सुन्दरम्)

विशेष नोट : यह गीत वर्ष 1978 में रिलीज़ हुई दिवंगत राज कपूर द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्म 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' में फिल्माया गया था, लेकिन तभी से बेहद लोकप्रिय भजन के रूप में हमेशा गाया जाता है... मुझे भी यह पसंद है, सो, आप लोगों तक पहुंचना ही था...

फिल्म : सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (1978)
संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
फिल्म निर्माता-निर्देशक : राज कपूर
गीतकार : पंडित नरेन्द्र शर्मा
पार्श्वगायक : मन्ना डे तथा लता मंगेशकर

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला...
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...

बोली मुस्काती मैया, ललन को बताया...
काली अंधियारी, आधी रात में तू आया...
लाड़ला कन्हैया मेरा, काली कमली वाला...
इसीलिए काला...

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला...
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...

बोली मुस्काती मैया, सुन मेरे प्यारे...
गोरी-गोरी राधिका के, नैन कजरारे...
काली नैनों वाली ने, ऐसा जादू डाला...
इसीलिए काला...

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला...
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...

इतने में राधा प्यारी, आई इठलाती...
मैंने न जादू डाला, बोली बल खाती...
मैया कन्हैया तेरा, जग से निराला...
इसीलिए काला...

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला...
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...

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Tuesday, April 13, 2010

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा... (मोहम्मद इक़बाल)

विशेष नोट : 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...' गीत लिखने के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे मोहम्मद इक़बाल का जन्म 9 नवंबर, 1877 को पंजाब के सियालकोट में हुआ, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, और उनका निधन 21 अप्रैल, 1938 को हुआ... कम से कम हमारी पीढ़ी के हिन्दुस्तानियों के लिए यही गीत इक़बाल की पहचान है, सो, आप लोग भी इसे पूरा पढ़ें, क्योंकि स्कूलों आदि में सिर्फ तीन अन्तरे ही गाए जाते हैं...

सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा...
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा...

ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में...
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहां हमारा...

परबत वो सबसे ऊंचा, हमसाया आसमां का...
वो संतरी हमारा, वो पासबां हमारा...

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियां...
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा...

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको...
उतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा...

मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना...
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा...

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा, सब मिट गए जहां से...
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा...

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहां हमारा...

'इक़बाल' कोई महरम, अपना नहीं जहां में...
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा...

सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा...
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा...

राम... (मोहम्मद इक़बाल)

विशेष नोट : 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...' गीत लिखने के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे मोहम्मद इक़बाल का जन्म 9 नवंबर, 1877 को पंजाब के सियालकोट में हुआ, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, और उनका निधन 21 अप्रैल, 1938 को हुआ... उनकी यह रचना भी मुझे काफी पसंद है, सो, आप लोगों के लिए भी पेश है...

लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द [1]...
सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द [2]...
ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक [3], उसका है असर...
रिफ़अत [4] में आस्मां से भी ऊंचा है बामे-हिन्द [5]...
इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक [6] सरिश्त [7]...
मशहूर जिसके दम से है, दुनिया में नामे-हिन्द...
है राम के वजूद [8] पे हिन्दोस्तां को नाज़...
अहले-नज़र समझते हैं, उसको इमामे-हिन्द...
एजाज़ [9] इस चिराग़े-हिदायत [10] का है यही...
रोशन तिराज़ सहर [11] ज़माने में शामे-हिन्द...
तलवार का धनी था, शुजाअत [12] में फ़र्द [13] था...
पाकीज़गी [14] में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था...

मुश्किल अल्फ़ाज़ के माने... (कठिन शब्दों के अर्थ)
1. हिन्द का प्याला सत्य की मदिरा से छलक रहा है...
2. पूरब के महान चिंतक हिन्द के राम हैं...
3. महान चिंतन...
4. ऊंचाई...
5. हिन्दी का गौरव या ज्ञान...
6. देवता...
7. ऊंचे आसन पर...
8. अस्तित्व...
9. चमत्कार...
10. ज्ञान का दीपक...
11. भरपूर रोशनी वाला सवेरा...
12. वीरता...
13. एकमात्र...
14. पवित्रता...

सितारों से आगे जहां और भी हैं... (मोहम्मद इक़बाल)

विशेष नोट : 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...' गीत लिखने के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे मोहम्मद इक़बाल का जन्म 9 नवंबर, 1877 को पंजाब के सियालकोट में हुआ, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, और उनका निधन 21 अप्रैल, 1938 को हुआ... उनकी यह रचना भी काफी मशहूर है, सो, आप लोगों के लिए भी पेश है...

सितारों के आगे जहां और भी हैं...
अभी इश्क़ [1] के इम्तिहां [2] और भी हैं...

तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ाएं...
यहां सैकड़ों कारवां और भी हैं...

क़ना'अत [3] न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू [4] पर...
चमन और भी, आशियां [5] और भी हैं...

अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म...
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ां [6] और भी हैं...

तू शाहीं [7] है, परवाज़ [8] है काम तेरा...
तेरे सामने आसमां और भी हैं...

इसी रोज़-ओ-शब [9] में उलझकर न रह जा...
के तेरे ज़मीन-ओ-मकां [10] और भी हैं...

गए दिन, के तन्हा था मैं अंजुमन [11] में...
यहां अब मेरे राज़दां [12] और भी हैं...

मुश्किल अल्फ़ाज़ के माने... (कठिन शब्दों के अर्थ)
1. प्रेम
2. परीक्षाएं
3. संतोष
4. इन्द्रीय संसार
5. घरौंदे
6. रोने-धोने की जगहें
7. गरुड़, उक़ाब
8. उड़ान भरना
9. सुबह-शाम के चक्कर
10. धरती और मकान
11. महफ़िल
12. रहस्य जानने वाले

Monday, April 12, 2010

बाल पहेलियां (पशु-पक्षी)... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : अपने एक स्कूली दोस्त संदीप गोयल (चार्टर्ड एकाउंटेंट) की फरमाइश पर उसके बच्चों के लिए कभी कुछ पहेलियां मैंने भी लिखी थीं... आज अचानक पुराने मेल देख रहा था, सो, याद आ गईं, और आप लोगों के सामने ले आया हूं... इस पोस्ट की पहेलियों के उत्तर इसी पोस्ट के अंत में देखें...

1.
चार पांव हैं, एक पूंछ है, अक्सर रहती मौन...
सुबह-शाम मैं दूध पिलाती, बतलाओ मैं कौन...

2.
जंगल का राजा कहलाता, सब हैं डरते मुझसे...
बोलो तुम मैं कौन हूं, वरना, खा जाऊंगा झट से...

3.
सुबह-शाम मैं बोझ उठाता, ढेंचूं-ढेंचूं करता हूं...
पीछे मत तुम आना मेरे, मार दुलत्ती भगता हूं...

4.
सबसे वजनी होता हूं मैं, इस धरती पर औरों से...
सूंड से पानी हूं पीता, चिंघाड़ मारता ज़ोरों से...

5.
मिर्ची खाता, सब दोहराता, प्यार सभी का पाता हूं...
हरे बदन पर लाल चोंच है, सबका मन हर्षाता हूं...

उत्तर :
1. गाय
2. शेर
3. गधा
4. हाथी
5. तोता

Wednesday, April 07, 2010

बाल पहेलियां (पशु-पक्षी)... (दीनदयाल शर्मा)

विशेष नोट : बच्चों को सिखाने के लिए सदा कुछ नया ढूंढता रहता हूं, सो, अचानक श्री दीनदयाल शर्मा द्वारा लिखित ये पहेलियां मिलीं... डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.कविताकोश.ओआरजी (www.kavitakosh.org) के अनुसार श्री शर्मा का जन्म 15 जुलाई, 1956 को राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित नोहर तहसील के जसाना गांव में हुआ था... श्री शर्मा 'लंकेश्वर', 'महाप्रयाग', 'दिनेश्वर' आदि उपनामों से लेखन करते रहे हैं, तथा हिन्दी और राजस्थानी भाषाओं में शिशु-कविता और बाल-काव्य के क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम हैं... इस पोस्ट की पहेलियों के उत्तर इसी पोस्ट के अंत में देखें...

1.
जंगल में हो या पिंजरे में,
रौब सदा दिखलाता,
मांसाहारी भोजन जिसका,
वनराजा कहलाता...

2.
गोल-गोल हैं जिसकी आंखें,
भाता नहीं उजाला,
दिन में सोता रहता हरदम,
रात विचरने वाला...

3.
हमने देखा अजब अचम्भा,
पैर हैं जैसे कोई खम्भा,
थुलथुल काया, बड़े हैं कान,
सूंड इसकी होती पहचान...

4.
सरस्वती की सफ़ेद सवारी,
मोती जिनको भाते,,
करते अलग दूध से पानी,
बोलो कौन कहाते...

5.
कान बड़े हैं, काया छोटी,
कोमल-कोमल बाल,
चौकस इतना पकड़ सके न,
बड़ी तेज़ है चाल...

6.
राग सुरीली रंग से काली,
सबके मन को भाती,
बैठ पेड़ की डाली पर जो,
मीठे गीत सुनाती...

7.
सुबह-सवेरे घर की छत पर,
करता कांव-कांव,
काले रंग में रंगा है पंछी,
मिलता गांव-गांव...

8.
कुकडूं-कूं जो बोला करता,
सबको सुबह जगाता,
सर पर लाल कलंगी वाला,
गांव घड़ी कहलाता...

9.
नर पंछी नारी से सुन्दर,
वर्षा में नाच दिखाता,
मनमोहक कृष्ण को प्यारा,
राष्ट्र पक्षी कहलाता...

10.
हरी ड्रेस और लाल चोंच है,
रटना जिसका काम,
कुतर-कुतरकर फल खाता है,
लेता हरि का नाम...

11.
गले में कम्बल, पीठ पर थुथनी,
रखती है थन चार,
दूध, घी और देती बछड़ा,
करते हम सब प्यार...

12.
बोझा ढोता है जो दिन भर,
करता नहीं पुकार,
मालिक दो होते हैं जिसके,
धोबी और कुम्हार...

13.
चोरों पर जो झपटा करता,
घर का है रखवाला,
इसकी भौं-भौं से डर जाता,
चाहे हो दिलवाला...

14.
लम्बी गर्दन, पीठ पर कूबड़,
घड़ों पानी पी जाए,
टीलों पर जो सरपट दौड़े,
मरुथल जहाज़ कहाए...

15.
तांगा, बग्घी, रथ चलाते,
मन करे तो हिनहिनाते,
चने चाव से खाते हैं,
खड़े-खड़े सो जाते हैं...

16.
टर्र-टर्र जो टर्राते हैं,
जैसे गीत सुनाते,
जब ये जल में तैरा करते,
पग पतवार बनाते...

17.
चर-चर करती, शोर मचाती,
पेड़ों पर चढ़ जाती,
काली पत्तियां तीन पीठ पर,
कुतर-कुतर फल खाती...

18.
छोटे तन में गांठ लगी है,
करे जो दिन भर काम,
आपस में जो हिलमिल रहती,
नहीं करती आराम...

19.
पानी में ख़ुश रहता हरदम,
धीमी जिसकी चाल,
ख़तरा पाकर सिमट जाए झट,
बन जाता खुद ढाल...

20.
छत से लटकी मिल जाती है,
छह पग वाली नार,
बुने लार से मलमल जैसे,
कपड़े जालीदार...

उत्तर :
1. शेर
2. उल्लू
3. हाथी
4. हंस
5. खरगोश
6. कोयल
7. कौवा
8. मुर्गा
9. मोर
10. तोता
11. गाय
12. गधा
13. कुत्ता
14. ऊंट
15. घोड़ा
16. मेंढक
17. गिलहरी
18. चींटी
19. कछुआ
20. मकड़ी

बाल पहेलियां (वस्तु-व्यक्ति)... (दीनदयाल शर्मा)

विशेष नोट : बच्चों को सिखाने के लिए सदा कुछ नया ढूंढता रहता हूं, सो, अचानक श्री दीनदयाल शर्मा द्वारा लिखित ये पहेलियां मिलीं... डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.कविताकोश.ओआरजी (www.kavitakosh.org) के अनुसार श्री शर्मा का जन्म 15 जुलाई, 1956 को राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित नोहर तहसील के जसाना गांव में हुआ था... श्री शर्मा 'लंकेश्वर', 'महाप्रयाग', 'दिनेश्वर' आदि उपनामों से लेखन करते रहे हैं, तथा हिन्दी और राजस्थानी भाषाओं में शिशु-कविता और बाल-काव्य के क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम हैं... इस पोस्ट की पहेलियों के उत्तर इसी पोस्ट के अंत में देखें...

1.
मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा,
सभी जगह सम्मान यह पाए,
पतली सी है काया जिसकी,
जलती हुई महक फैलाए...

2.
अलग-अलग रहती हैं दोनों,
नाम एक-सा प्यारा,
एक महक फैलाए जग में,
दूजी करे उजियारा...

3.
दिन-रात मैं चलती रहती,
न लेती थकने का नाम,
जब भी पूछो समय बताती,
देती बढ़ने का पैगाम...

4.
जैसे हो तुम दिखोगे वैसे,
मेरे भीतर झांको,
झट से दे दो उत्तर इसका,
खुद को कम न आंको...

5.
तमिलनाडु, दक्षिण भारत के,
वैज्ञानिक ने किया कमाल,
अग्नि और पृथ्वी मिसाइल,
जिनकी देखो ठोस मिसाल...

उत्तर:
1. अगरबत्ती
2. धूप
3. घड़ी
4. दर्पण
5. डॉ एपीजे अब्दुल क़लाम

जलियांवाला बाग में बसंत... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : बचपन में सभी बच्चों की तरह मैंने भी सुभद्राकुमारी चौहान रचित 'झांसी की रानी' पढ़ी थी... बेहद पसंद आई, सो, इनकी अन्य कविताएं पढ़ने को भी मन ललचाता रहा... ढूंढता रहा हूं, और पढ़ता रहा हूं... एक कविता यह भी है, जो मुझे अच्छी लगती है, सो, आप सबके साथ भी बांट रहा हूं...

यहां कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते...

कलियां भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे...

परिमल-हीन पराग दाग-सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है...

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान, यहां मत शोर मचाना...

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ाकर मत ले जाना...

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार, कष्ट की कथा सुनावें...

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले...

किन्तु न तुम उपहार भाव आकर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना...

कोमल बालक मरे यहां गोली खाकर,
कलियां उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर...

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं...

कुछ कलियां अधखिली यहां इसलिए चढ़ाना,
करके उनकी याद अश्रु के ओस बहाना...

तड़प-तड़पकर वृद्ध मरे हैं, गोली खाकर,
शुष्क पुष्प कुछ वहां गिरा देना तुम जाकर...

यह सब करना, किन्तु यहां मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान, बहुत धीरे से आना...

ठुकरा दो या प्यार करो... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : बचपन में सभी बच्चों की तरह मैंने भी सुभद्राकुमारी चौहान रचित 'झांसी की रानी' पढ़ी थी... बेहद पसंद आई, सो, इनकी अन्य कविताएं पढ़ने को भी मन ललचाता रहा... ढूंढता रहा हूं, और पढ़ता रहा हूं... एक कविता यह भी है, जो मुझे अच्छी लगती है, सो, आप सबके साथ भी बांट रहा हूं...

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं,
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं...

धूमधाम से साज-बाज से, वे मंदिर में आते हैं,
मुक्तामणि बहुमूल्य वस्तुएं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं...

मैं ही हूं गरीबिनी ऐसी, जो कुछ साथ नहीं लाई,
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आई...

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है, झांकी का शृंगार नहीं,
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं...

कैसे करूं कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं,
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं...

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा, खाली हाथ चली आई,
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आई...

पूजा और पुजापा प्रभुवर, इसी पुजारिन को समझो,
दान-दक्षिणा और निछावर, इसी भिखारिन को समझो...

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी, हृदय दिखाने आई हूं,
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूं...

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो,
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो...

मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी... (बालकृष्ण गर्ग)

विशेष नोट : इंटरनेट पर एक बेहद पसंदीदा कविता ढूंढने की कोशिश में श्री बालकृष्ण गर्ग द्वारा रचित यह कविता मिल गई... कुछ साथियों की फरमाइश थी एक हास्य कविता की, सो, लीजिए, पढिए...

मैं पीला-पीला-सा प्रकाश, तू भकाभक्क दिन-सा उजास...
मैं आम पीलिया का मरीज़, तू गोरी-चिट्टी मेम खास...
मैं खर-पतवार अवांछित-सा, तू पूजा की है दूब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

तेरी-मेरी न समता कुछ, तेरे आगे न जमता कुछ...
मैं तो साधारण-सा लट्टू, मुझमें ज़्यादा न क्षमता कुछ...
तेरी तो दीवानी दुनिया, मुझसे सब जाते ऊब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

कम वोल्टेज में तू न जले, तब ही मेरी कुछ दाल गले...
वरना मेरी है पूछ कहां, हर जगह तुझे ही मान मिले...
हूं साइज़ में भी मैं हेठा, तेरी हाइट क्या खूब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

बिजली का तेरा खर्चा कम, लेकिन लाइट में कितना दम...
सोणिये, इलेक्शन बिना लड़े ही, जीत जाए तू खुदा कसम...
नैया मेरी मंझधार पड़ी, लगता जाएगी डूब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

तू महंगी है, मैं सस्ता हूं, तू चांदी तो मैं जस्ता हूं...
इठलाती है तू अपने पर, लेकिन मैं खुद पर हंसता हूं...
मैं कभी नहीं बन पाऊंगा, तेरे दिल का महबूब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

Monday, April 05, 2010

मेरा नया बचपन... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : यह कविता काफी पहले पढ़ी थी, लेकिन अपनी बेटी निष्ठा के होने के बाद जब इसे ढूंढना चाहा तो मिल नहीं पाई... आज अचानक ही एक पुराने साथी (शुक्रिया, आलोक भटनागर...) ने यह मुझे भेजी, सो, अब आप सब लोगों के लिए भी अपने ब्लॉग पर ले आया हूं...


बार-बार आती है मुझको, मधुर याद बचपन तेरी...
गया, ले गया, तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी...

चिंता-रहित खेलना-खाना, वह फिरना निर्भय स्वच्छंद...
कैसे भूला जा सकता है, बचपन का अतुलित आनंद...

ऊंच-नीच का ज्ञान नहीं था, छुआछूत किसने जानी...
बनी हुई थी वहां झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी...

किए दूध के कुल्ले मैंने, चूस अंगूठा सुधा पिया...
किलकारी-किल्लोल मचाकर, सूना घर आबाद किया...

रोना और मचल जाना भी, क्या आनंद दिखाते थे...
बड़े-बड़े मोती-से आंसू, जयमाला पहनाते थे...

मैं रोई, मां काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया...
झाड़-पोंछकर चूम-चूम, गीले गालों को सुखा दिया...

दादा ने चंदा दिखलाया, नेत्र नीर-युत दमक उठे...
धुली हुई मुस्कान देखकर, सबके चेहरे चमक उठे...

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर, मैं मतवाली बड़ी हुई...
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी, दौड़ द्वार पर खड़ी हुई...

लाजभरी आंखें थीं मेरी, मन में उमंग रंगीली थी...
तान रसीली थी, कानों में, चंचल छैल-छबीली थी...

दिल में एक चुभन-सी थी, यह दुनिया अलबेली थी...
मन में एक पहेली थी, मैं सबके बीच अकेली थी...

मिला, खोजती थी जिसको, हे बचपन! ठगा दिया तूने...
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फंसा दिया तूने...

सब गलियां उसकी भी देखीं, उसकी खुशियां न्यारी हैं...
प्यारी, प्रीतम की रंगरलियों की स्मृतियां भी प्यारी हैं...

माना मैंने, युवा-काल का जीवन खूब निराला है...
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहने वाला है...

किंतु यहां झंझट है भारी, युद्ध-क्षेत्र संसार बना...
चिंता के चक्कर में पड़कर, जीवन भी है भार बना...

आ जा बचपन! एक बार फिर, दे दे अपनी निर्मल शांति...
व्याकुल व्यथा मिटाने वाली, वह अपनी प्राकृत विश्रांति...

वह भोली-सी मधुर सरलता, वह प्यारा जीवन निष्पाप...
क्या आकर फिर मिटा सकेगा, तू मेरे मन का संताप...

मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी...
नंदनवन-सी फूल उठी, यह छोटी-सी कुटिया मेरी...

'मां ओ' कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी...
कुछ मुंह में, कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने लाई थी...

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा...
मुंह पर थी आह्लाद-लालिमा, विजय-गर्व था झलक रहा...

मैंने पूछा 'यह क्या लाई', बोल उठी वह 'मां, काओ'...
हुआ प्रफुल्लित हृदय, खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'...

पाया मैंने बचपन फिर से, बचपन बेटी बन आया...
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर, मुझमें नवजीवन आया...

मैं भी उसके साथ, खेलती-खाती हूं, तुतलाती हूं...
मिलकर उसके साथ, स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूं...

जिसे खोजती थी बरसों से, अब जाकर उसको पाया...
भाग गया था मुझे छोड़कर, वह बचपन फिर से आया...

Thursday, April 01, 2010

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा... (धूल का फूल)

विशेष नोट : यह गीत बचपन से सुनता आ रहा हूं, सो, कंठस्थ है... सोचता हूं, बेहद खूबसूरती से लिखा हुआ (और जोश में गाया हुआ भी) यह गीत अगर हर हिन्दुस्तानी सुनें (और गुने भी), तो हिन्दुस्तान में अमन सपने की बात नहीं रह जाएगा... लेकिन अफसोस, जो मैं सोचता हूं, वही सपना है...

एक बात और, इंटरनेट पर कहीं भी यह गीत हिन्दी में पूरा उपलब्ध नहीं हुआ, सो, कल रात को पूरा टाइप कर दिया था... आशा है, सभी को पसंद आएगा...


फिल्म : धूल का फूल
गीतकार : साहिर लुधियानवी
संगीतकार : एन दत्ता
पार्श्वगायक : मोहम्मद रफी
फिल्म निर्देशक : यश चोपड़ा (यह इनकी निर्देशक के रूप में पहली फिल्म थी)
फिल्म निर्माता : बीआर चोपड़ा

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है,
तुझको किसी मज़हब से कोई काम नहीं है...
जिस इल्म ने इंसान को तक़सीम किया है,
उस इल्म का तुझ पर कोई इल्ज़ाम नहीं है...

तू बदले हुए वक्त की पहचान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया,
हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया...
कुदरत ने तो बख्शी थी हमें, एक ही धरती,
हमने कहीं भारत, कहीं ईरान बनाया...

जो तोड़ दे हर बंध, वो तूफान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

नफरत जो सिखाए, वो धरम तेरा नहीं है,
इंसां को जो रौंदे, वो कदम तेरा नहीं है...
कुरआन न हो जिसमें, वो मंदिर नहीं तेरा,
गीता न हो जिसमें, वो हरम तेरा नहीं है...

तू अम्न का और सुलह का अरमान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

ये दीन के ताजिर, ये वतन बेचने वाले,
इंसानों की लाशों के कफन बेचने वाले...
ये महल में बैठे हुए कातिल ये लुटेरे,
कांटों के इवज रूह-ए-चमन बेचने वाले...

तू इनके लिए मौत का ऐलान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

मुश्किल अल्फाज़ के माने... (कठिन शब्दों के अर्थ)
मज़हब : धर्म
इल्म : शिक्षा
बंध : बांध
धरम : धर्म
इंसां : इंसान
अम्न : अमन, शांति
दीन : धर्म
ताजिर : व्यापारी
इवज : एवज, बदले में
रूह-ए-चमन : शाब्दिक अर्थ है - बाग की रूह, लेकिन यहां इसका अर्थ है - देश की आत्मा

Wednesday, March 31, 2010

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले... (मिर्ज़ा असदुल्ला खां ग़ालिब)

विशेष नोट : मेरे पसंदीदा उर्दू शायर मिर्ज़ा असदुल्ला खां ग़ालिब या मिर्ज़ा ग़ालिब की यह ग़ज़ल काफी मशहूर है, सो, एक नज़र आप लोग भी इस पर डालें...

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले...
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...

डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उसकी गर्दन पर...
वो ख़ूं, जो चश्मे-तर {1} से उम्रभर, यूं दम-ब-दम {2} निकले...

निकलना ख़ुल्द {3} से आदम {4} का, सुनते आए थे लेकिन...
बहुत बेआबरू होकर, तेरे कूचे से हम निकले...

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत {5} की दराज़ी {6} का...
अगर उस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म {7} का पेच-ओ-ख़म निकले...

हुई इस दौर में मंसूब {8} मुझ से बादा-आशामी {9}...
फिर आया वह ज़माना, जो जहां में जाम-ए-जम {10} निकले...

हुई जिनसे तवक़्क़ो {11} ख़स्तगी {12} की दाद पाने की...
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम {13} निकले...

अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए...
हुई सुबह, और घर से कान पर रखकर क़लम निकले...

ज़रा कर ज़ोर सीने में, कि तीरे-पुरसितम {14} निकले...
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले...

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़, जीने और मरने का...
उसी को देखकर जीते हैं, जिस क़ाफ़िर पे दम निकले...

ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम...
कहीं ऐसा न हो, यां भी वही क़ाफ़िर सनम निकले...

कहां मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब', और कहां वाइज़ {15}...
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले...

मुश्किल लफ़्ज़ों के माने... (कठिन शब्दों के अर्थ)
{1} चश्मे-तर : भीगी आंख
{2} दम-ब-दम : प्राय:, बार-बार
{3} ख़ुल्द : स्वर्ग, जन्नत
{4} आदम : पहला मानव
{5} क़ामत : क़द
{6} दराज़ी : ऊंचाई
{7} तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म : बल खाए हुए तुर्रे का बल
{8} मंसूब : आधारित
{9} बादा-आशामी : शराबनोशी,मदिरापान
{10} जाम-ए-जम : जमदेश बादशाह का पवित्र मदिरापात्र
{11} तवक़्क़ो : चाहत
{12} ख़स्तगी : घायलावस्था
{13} ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम : अत्याचार की तलवार के घायल
{14} तीरे-पुर-सितम : अत्याचारपूर्ण तीर
{15} वाइज़ : उपदेशक

Thursday, March 04, 2010

मेरे घर आई एक नन्ही परी... (कभी-कभी)

विशेष नोट : मुझे बेहद पसंद है यह फिल्मी गीत... परिवार में सिर्फ हम तीन भाइयों के होने की वजह से सभी की इच्छा थी कि घर में बेटी होनी चाहिए, और वह हसरत मेरी बेटी के आने से पूरी हो गई... सो, यह कविता (या गीत कह लीजिए) मेरी बेटी निष्ठा को समर्पित कर रहा हूं... इस गीत का मैंने अंग्रेज़ी में अनुवाद भी कर दिया है, ताकि गैर-हिन्दी भाषी भी इसकी खूबसूरत भावनाओं को समझ सकें... 


फिल्म - कभी कभी 
पार्श्वगायक - लता मंगेशकर 
संगीत निर्देशक - खय्याम 
गीतकार - साहिर लुधियानवी

मेरे घर आई एक नन्ही परी...
चांदनी के हसीन रथ पे सवार...
मेरे घर आई... होSSSSS...
मेरे घर आई एक नन्ही परी... 

A little fairy has come to my home...
Mounted on the moonlight's beautiful chariot...

उसकी बातों में शहद जैसी मिठास,
उसकी सांसों में इतर की महकास...
होंठ जैसे कि भीगे-भीगे गुलाब,
गाल जैसे कि दहके-दहके अनार... 

There's the sweetness of honey in her words...
The sweet fragrance of perfume in her breath...
Her lips are like the wet rose petals...
And her cheeks are like ripe pomegranates...

मेरे घर आई... होSSSSS...
मेरे घर आई एक नन्ही परी... 

A little fairy has come to my home...

उसके आने से मेरे आंगन में,
खिल उठे फूल, गुनगुनाई बहार...
देखकर उसको जी नहीं भरता,
चाहे देखूं उसे, हज़ारों बार... 

As she comes to my home...
The flowers blossomed, and the spring arrived...
I am not able to feel satisfied seeing her,
Even if I see her a thousand times...

मेरे घर आई... होSSSSS...
मेरे घर आई एक नन्ही परी...

A little fairy has come to my home...

मैने पूछा उसे कि कौन है तू,
हंस के बोली कि मैं हूं तेरा प्यार...
मैं तेरे दिल में थी हमेशा से,
घर में आई हूं आज पहली बार... 

I asked her, "Who are you...?"
With a laugh, she said, "Your love..."
"I have lived in your heart since forever..."
"Though have come to your home for the first time..."

मेरे घर आई... होSSSSS...
मेरे घर आई एक नन्ही परी... 

A little fairy has come to my home...

Thursday, February 18, 2010

दर्द मां-बाप का... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : कुछ दिन पहले एक किस्सा सुना था, जिसमें चार कामयाब बेटों के मां-बाप की मौत मुफलिसी की वजह से हुई... तभी से कुछ लिखना चाह रहा था... आज कोशिश की है, लेकिन संतुष्ट नहीं हूं, क्योंकि वैसा नहीं लिख पाया हूं, जैसा मन में घुमड़ रहा था...

अपने चारों बेटों को, मां-बाप ने पाला यकसां ही...
यकसां ही उनको सिखलाया, यकसां ही दी थी शिक्षा भी...

मां का आंचल सिर पर न होकर, पेट पर उसके बंधता था...
उसके हिस्से का खाना खाकर बेटा हर दिन हंसता था...

बाप के घुटने जाम हुए, लेकिन वह चलता जाता था...
पढ़ते हैं, मेहनत करते हैं, बेटों को देख सिहाता था...

पीएफ खत्म, अब कर्जा है, लेकिन चारों हैं ब्याह गए...
चारों ही खुश हैं जीवन में, मां-बाप की छाती फुला गए...

चारों के बच्चे भी हैं अब, चारों अब चैन से सोते हैं...
मां-बाप इसी में खुश हैं कि अपने अब छह-छह पोते हैं...

मां-बाप हैं लेकिन किल्लत में, ऊपर से रोगों पर खर्चा...
डॉक्टर आता है हर हफ्ते, ले फीस, दे जाता है पर्चा...

चारों में काफी एका है, चारों ही ध्यान न देते हैं...
मां-बाप को क्या-क्या दिक्कत हैं, इस पर वे कान न देते हैं...

मां-बाप कलपते रहते हैं, रोते हैं, तड़पते रहते हैं...
चारों को फुर्सत नहीं मगर, हर बार यही वे कहते हैं...

आपस में बुड्ढे-बुढ़िया अब, कुछ-कुछ ये बातें करते हैं...
जीवन ने क्या-क्या दिखलाया, सब देख भी हम न मरते हैं...

हम दो ने पाले चार-चार, उन्हें देख-देख न अघाते हैं...
हैरानी है, अब चारों मिलकर भी दो को पाल न पाते हैं...

Friday, January 22, 2010

काली भेड़... Ba Ba Black Sheep... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : मेरे पुत्र सार्थक के स्कूल में उसे अंग्रेज़ी की बाल कविता (Nursery rhyme) 'Ba Ba Black Sheep' सिखाई गई... सर्दियों की छुट्टियों में जब वह दिल्ली आया, तो मैंने कुछ नया सिखाने के उद्देश्य से उसी कविता का हिन्दी अनुवाद कर दिया, और मज़े की बात यह है कि अब वह अंग्रेज़ी के बजाए हिन्दी की कविता सुनाता है...


Ba Ba black sheep...
Have you any wool...
Yes sir... Yes sir...
Three bags full...
One for my master...
One for the dame...
One for the little boy...
Who lives down the lane...

अब इसी का अनुवाद, जो मैंने अपने बेटे को सिखाया...

काली भेड़, काली भेड़...
ऊन है क्या तेरे पास...
हां जी, हां जी...
पूरे तीन थैले खास...
एक थैला मालिक का...
एक है सहेली का...
एक थैला सार्थक का...
जो घोंचूराम बरेली का...


Friday, January 08, 2010

छोटा होना महा-मुसीबत...

विशेष नोट : यह कविता मैंने और मेरी मौसेरी बहन ने बचपन में याद की थी, और हमारे ननिहाल में यह सभी को याद है... उम्मीद है कि मेरे बच्चों को भी यह पसंद आएगी...

रचनाकार : अज्ञात

छोटा होना महा-मुसीबत...
छोटा होना महा-मुसीबत...

बीच बड़ों के जाकर बैठूं,
और ज़रा भी अकड़ूं-ऐठूं,
तुरत डांट सुननी पड़ती है,
ये कैसी खराब है आदत...

छोटा होना महा-मुसीबत...

अपने से छोटों को डांटूं,
मम्मी कहती, ज़रा ठहर तू,
बड़ा डांटने वाला आया,
क्या तेरी आई है शामत...

छोटा होना महा-मुसीबत...

हे ईश्वर, मुझे बड़ा बना दे,
मेरे दाढ़ी-मूंछ उगा दे,
क्योंकि बड़ों की यही निशानी,
रोज़ सवेरे करें हजामत...

छोटा होना महा-मुसीबत...

Monday, January 04, 2010

पेड़ हमारा जीवनदाता... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : कल रात बेटे की कुछ नया सिखाने की फरमाइश पूरी करने के चक्कर में एक छोटी-सी कविता लिख डाली... कृपया टिप्पणी करते वक्त याद रखें, यह चार साल के बच्चे के लिए लिखी गई है...


हरा-हरा जो पेड़ है होता,
मीठे-मीठे फल है देता...
खुशबू वाले फूल भी देकर,
बदले में कुछ भी न लेता...

पेड़ बड़ा जब हो जाता है,
धूप से हमें बचाता है...
ठंडी-ठंडी छाया इसकी,
हमें आराम पहुंचाता है...

पेड़ कभी न काटो भैया,
बारिश यह लेकर आता...
सदा याद रखो तुम साथी,
पेड़ हमारा जीवनदाता...
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