Wednesday, November 07, 2012

पढ़क्‍कू की सूझ... (रामधारी सिंह 'दिनकर')

विशेष नोट : बचपन में पाठ्यपुस्तकों में जिन कवियों को पढ़ाया गया, उनमें रामधारी सिंह 'दिनकर' का नाम प्रमुख है... कविताकोश.ओआरजी (http://www.KavitaKosh.org) पर इस कविता के साथ प्रकाशित कवि परिचय के अनुसार 23 सितम्बर, 1908 को बिहार में बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में जन्मे श्री दिनकर ने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की, तथा साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया... 'राष्ट्रकवि' की उपाधि से सुशोभित तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता दिनकर का निधन 24 अप्रैल, 1974 को हुआ... उनकी कलम से निकली बहुत-सी बेजोड़ रचनाओं में से एक यह कविता बेहद पसंद है मुझे, सो, आप लोगों के लिए भी ले आया हूं...

और हां, 'मंतिख' का अर्थ 'तर्कशास्त्र' होता है... अब पढ़ें... 


एक पढ़क्‍कू बड़े तेज़ थे, तर्कशास्‍त्र पढ़ते थे,
जहां न कोई बात, वहां भी नई बात गढ़ते थे...

एक रोज़ वे पड़े फिक्र में, समझ नहीं कुछ पाए,
बैल घूमता है कोल्‍हू में, कैसे बिना चलाए...

कई दिनों तक रहे सोचते, मालिक बड़ा गज़ब है,
सिखा बैल को रक्‍खा इसने, निश्‍चय कोई ढब है...

आखिर, एक रोज़ मालिक से, पूछा उसने ऐसे,
अजी, बिना देखे, लेते तुम जान भेद यह कैसे...

कोल्‍हू का यह बैल तुम्‍हारा, चलता या अड़ता है,
रहता है घूमता, खड़ा हो या पागुर करता है...

मालिक ने यह कहा, अजी, इसमें क्‍या बात बड़ी है,
नहीं देखते क्‍या, गर्दन में घंटी एक पड़ी है...

जब तक यह बजती रहती है, मैं न फिक्र करता हूं,
हां, जब बजती नहीं, दौड़कर तनिक पूंछ धरता हूं...

कहा, पढ़क्‍कू ने सुनकर, तुम रहे सदा के कोरे...
बेवकूफ, मंतिख की बातें समझ सकोगे थोड़े...

अगर किसी दिन बैल तुम्‍हारा, सोच-समझ अड़ जाए,
चले नहीं, बस, खड़ा-खड़ा गर्दन को खूब हिलाए...

घंटी टुन-टुन खूब बजेगी, तुम न पास आओगे,
मगर बूंद भर तेल सांझ तक भी, क्‍या तुम पाओगे...

मालिक थोड़ा हंसा और बोला, पढ़क्‍कू जाओ,
सीखा है यह ज्ञान जहां पर, वहीं इसे फैलाओ...

यहां सभी कुछ ठीक-ठीक है, यह केवल माया है,
बैल हमारा नहीं अभी तक, मंतिख पढ़ पाया है...

Monday, April 02, 2012

क-ख-ग की कविता... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : फेसबुक पर एक मित्र के मित्र श्री रत्नेश त्रिपाठी ने आज बच्चों के लिए हिन्दी का कायदा बनाने की कोशिश की, और दो लाइनें लिखकर भेजीं... बस, फिर क्या था, मेरे खुराफाती दिमाग में कीड़ा कुलबुलाया, और मैंने अपनी तरफ से पूरा कर डाला... बताइए, कैसा रहा...?

सबसे पहले मुलाहिज़ा फरमाएं, ये है रत्नेश जी की कविता...

क की कोयल कूक रही है...
ख खरगोश खड़ा है...
ग की गइया बैठी भइया...
घ क घड़ा भरा है...
आगे देखो ड़. खाली... सभी बजाओ मिलकर ताली...

च से चमके चंदा मामा...
छ क छप्पर छाये...
ज की बनी जलेबी रानी...
झ झंडा फहराए...
आगे देखो ञ खाली... सभी बजाओ मिलकर ताली...

और अब मेरा लिखा काव्यात्मक कायदा...

'क' से कोयल कूक रही, 'ख' से खरगोश खड़ा है...
'ग' से गाय रंभाती है, 'घ' से घड़ा भरा है...

'ङ' खाली से कुछ न शुरू हो, देखो, यहीं पड़ा है...

'च' से चंदा मामा चमका, 'छ' से छप्पर छाया...
'ज' से जलेबी मीठी-मीठी, 'झ' झंडा फहराया...
'ञ' खाली से भी न बने कुछ, मैं तो अब चकराया...

'ट' से लाल टमाटर खाया, 'ठ' से ठोकर खाई...
'ड' से डमरू बजता, भैया, 'ढ' ढोलक बजवाई...
'ण' से भी कुछ शुरू न होता, है अजीब यह भाई...

'त' से तीर रहे तरकश में, 'थ' से थरमस बनता...
'द' से दादा-दादी होते, 'ध' से धनुष है तनता...
जोर से बजता 'न' से नगाड़ा, बच्चा-बच्चा सुनता...

'प' से उड़ती पतंग हवा में, 'फ' से खिलते फूल...
'ब' से बकरी मैं-मैं करती, जब भी उड़ती धूल...
'भ' से भालू, 'म' से मछली, इनको भी मत भूल...

'य' से यज्ञ किया साधु ने, 'र' से रस्सी बांधी...
'ल' से लोटा होता, 'व' से वायु की चलती आंधी...

'श' से शलगम उगती है, 'ष' से षट्कोण है बनता...
'स' से सरगम बने, जो 'ह' से हारमोनियम बजता...

'क्ष' से क्षत्रिय घूमे लेकर, हाथ में 'त्र' से त्रिशूल...

'ज्ञ' से ज्ञानी जो भी पढ़ाएं, कभी न उसको भूल...

Wednesday, February 22, 2012

आधुनिक काल के दोहे...

विशेष नोट : ये दोहे आज फेसबुक पर मिले, लेकिन वहां स्पष्ट नहीं था कि यह मेरे पसंदीदा हास्य कवियों में से एक हुल्लड़ मुरादाबादी के लिखे हुए हैं अथवा नहीं... हालांकि दोहों से साफ लगता है कि ये उन्हीं की रचनाएं हैं... बहरहाल, आप लोग भी आनन्द लें...

कर्ज़ा देता मित्र को, वह मूर्ख कहलाए,
महामूर्ख वह यार है, जो पैसे लौटाए...

बिना जुर्म के पिटेगा, समझाया था तोय,
पंगा लेकर पुलिस से, साबित बचा न कोय...

गुरु पुलिस दोऊ खड़े, काके लागूं पाय,
तभी पुलिस ने गुरु के, पांव दिए तुड़वाय...

पूर्ण सफलता के लिए, दो चीज़ें रखो याद,
मंत्री की चमचागिरी, पुलिस का आशीर्वाद...

नेता को कहता गधा, शरम न तुझको आए,
कहीं गधा इस बात का, बुरा मान न जाए...

बूढ़ा बोला, वीर रस, मुझसे पढ़ा न जाए,
कहीं दांत का सैट ही, नीचे न गिर जाए...

हुल्लड़ खैनी खाइए, इससे खांसी होय,
फिर उस घर में रात को, चोर घुसे न कोय...

हुल्लड़ काले रंग पर, रंग चढ़े न कोय,
लक्स लगाकर कांबली, तेंदुलकर न होय...

बुरे समय को देखकर, गंजे तू क्यों रोय,
किसी भी हालत में तेरा, बाल न बांका होय...

दोहों को स्वीकारिये, या दीजे ठुकराय,
जैसे मुझसे बन पड़े, मैंने दिए बनाय...

Thursday, February 16, 2012

इधर देखते हैं, उधर देखते हैं... (राधेश्याम रस्तोगी 'आरिफ़')

विशेष नोट : यह ग़ज़ल मेरे ताऊजी, श्री राधेश्याम रस्तोगी 'आरिफ़' की कलम से निकली थी, और उनकी शाया हुई किताब 'तफ़सीर-ए-दिल' का हिस्सा है... आप भी मुलाहिज़ा फरमाएं...


इधर देखते हैं, उधर देखते हैं,
तसव्वुर [1] में तेरा ही घर देखते हैं...

नुमायां जुनूं का, असर देखते हैं,
तुझे जबकि रश्क-ए-क़मर देखते हैं...

सर-ए-शाम, जब आप तशरीफ़ लाए,
सियाही में नूर-ए-सहर [2] देखते हैं...

मरीज़-ए-मुहब्बत हैं, आराम कैसा,
तुझे अपना जब, चारागर [3] देखते हैं...

हुए तेरी सूरत पे, शैदाई [4] सारे,
कभी भूलकर जो इधर देखते हैं...

गुलिस्तां [5] हो, या रेग [6] सहरा [7] हो 'आरिफ़',
तिरा जल्वा आठों पहर देखते हैं...

मुश्किल अल्फ़ाज़ के माने... [कठिन शब्दों के अर्थ]
1. ख़याल
2. प्रातःकाल का उजाला
3. उपचारक, चिकित्सक
4. मोहित
5. बाग
6. रेत
7. जंगल

अब कुछ शायर के बारे में... साल 1933 के जून माह की पांच तारीख को दुनिया में आए 'आरिफ़' साहेब ने साल 2004 में 25 अक्टूबर को इस जहान-ए-फ़ानी से कूच किया... जनाब 'आरिफ़' की ज़िन्दगी में शेर-ओ-शायरी का आग़ाज़ स्कूल के ज़माने से हुआ... उनके खुद के मुताबिक उन्हें खुशक़िस्मती से स्कूल और कॉलेज में शायर उस्तादों से तालीम पाने का हसीन मौका मिला... कुछ अर्सा जनाब नन्दलाल 'नैरंग' सरहदी के शागिर्द रहे, और सन् 1966 तक अपने शहर रेवाड़ी में बज़्म-ए-अदब के मो'तमद मुआविन (विश्वासपात्र सहायक) की हैसियत से उर्दू ज़बान और अदब के फ़रोग़ (उन्नति) के लिए कोशिश करते रहे... उस दौरान उनके कलाम हरियाणा और दिल्ली से शाया होने वाले उर्दू अख़बारों में अक्सर छपते रहे, जिनमें 'रोज़ाना प्रताप', 'रोज़ाना हरियाणा तिलक', 'भारत निर्माण' और 'पैग़ाम-ए-वतन' के नाम खासतैर पर उल्लेखनीय हैं... दिल्ली और हरियाणा के शहरों में सरकारी और ग़ैर सरकारी मुशायरों में शामिल होने के मौके अक्सर मिलते रहे... उसी दौरान बाहर की दुनिया देखने की तमन्ना लंदन ले गई, और वहां भी आहिस्ता-आहिस्ता अदबी संस्थाओं से संबंध स्थापित हो गए... 'कुल बर्तानिया अन्जुमन तरक़्क़ी-ए-उर्दू' की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य (1973-74) की हैसियत से उर्दू ज़बान-ओ-अदब की ख़िदमत का हसीन मौका हासिल हुआ... लंदन और उसके आसपास ब्रहिंगम, बोल्टन और दूसरे कई शहरों में तरही और ग़ैर तरही मुशायरों में शामिल होने के अक्सर मौके मिलते रहे... University of London (SOAS) के Department of Indology के सौजन्य से होने वाली अदबी महफिलों में भी शिरकत के मौके जनाब डॉ डेविड मैथ्यूज़ और डॉ रामदास गुप्ता की संगत की वजह से मिलते रहे...
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