Monday, December 05, 2011

तब न समझी मां, बाप, अध्यापक की कीमत... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : अगली पीढ़ी को कुछ सिखाने के लिए बिल्कुल यूं ही लिखी है यह अकविता... दरअसल, दो दिन पहले अपने पुराने स्कूल में गया था, लगभग 24 साल बाद, और वहां एक एहसास बेहद सुकून देने वाला था... मां-बाप की तरह अध्यापक भी उतना ही खुश होते हैं, बच्चे की कामयाबी देखकर... अपनी मां, पिता और सभी अध्यापकों को समर्पित कर रहा हूं...

आज मैं कामयाब हूं... नामी हूं... मशहूर हूं...
शायद ऐसा ही हूं... शायद ऐसा नहीं हूं...
लेकिन आज रह-रहकर याद आ रही हैं,
बहुत-सी बातें, जिनकी कीमत तब न समझी...

पापा की झिड़कियां, मां की डांट, और चपत,
अध्यापकों - अध्यापिकाओं का फटकारना,
सारी क्लास के सामने मुर्गा बना देना,
या हाथ ऊपर कर कोने में खड़ा कर देना...

तब मुझे उन पर गुस्सा ही गुस्सा आता था,
पिटता मन रोज़ाना विद्रोही हो उठता था,
जी करता था, भाग जाऊं, और पीछा छुड़ा लूं,
उस जबरदस्ती की पढ़ाई-लिखाई से...

लेकिन पापा की झिड़की में लिपटा हुआ स्नेह,
और मां की चपत के पीछे छिपी ममता,
अध्यापकों का दुलार और मेरे भले की भावना,
अब महसूस होती है, आज समझ आती है...

जब मैं देखता हूं, अपनी कामयाबी की खुशी,
उनके खिलखिलाते चेहरों पर झलकती हुई,
मेरी मां मुझे देखकर रोते हुए हंस रही है,
पिता सिर पर हाथ रख सीने से लिपटा रहे हैं...

बीसियों साल बाद मिलकर भी, मेरे अध्यापक,
पहचान रहे हैं, और हंसकर मुझे मिलवा रहे हैं,
मेरे बाद वाली पीढ़ी से, जो आज मुर्गा बनती है,
हाथ उठाकर क्लास के कोने में खड़ी रहती है...

घर पर मैं देखता हूं, अपने बच्चों की सूरतें,
मां से डांट या मुझसे चपत खाने के बाद,
उन्हें स्कूल में रोज़ डांटे जाने की पीड़ा,
जब विद्रोही भावों के साथ प्रकट होती है...

मेरा मन फिर विचलित हो उठता है,
काश, मैं उन्हें आज ही समझा सकता,
कि यह सब उनके भले के लिए ही है,
क्योंकि मैं अब समझ चुका हूं...

Tuesday, November 08, 2011

स्वदेश के प्रति... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : आदरणीय कवयित्री सुश्री सुभद्राकुमारी चौहान की यह रचना आज कविताकोश.ओआरजी पर दिखी, अच्छी लगा, सो, आप सबके लिए भी प्रस्तुत कर रहा हूं...

आ, स्वतंत्र प्यारे स्वदेश आ,
स्वागत करती हूं तेरा...
तुझे देखकर आज हो रहा,
दूना प्रमुदित मन मेरा...

आ, उस बालक के समान,
जो है गुरुता का अधिकारी...
आ, उस युवक-वीर सा जिसको,
विपदाएं ही हैं प्यारी...

आ, उस सेवक के समान तू,
विनय-शील अनुगामी सा...
अथवा आ तू युद्ध-क्षेत्र में,
कीर्ति-ध्वजा का स्वामी सा...

आशा की सूखी लतिकाएं,
तुझको पा, फिर लहराईं...
अत्याचारी की कृतियों को,
निर्भयता से दरसाईं...

Tuesday, October 25, 2011

दीपोत्सव की ढेरों शुभकामनाएं...

पटाखों के कानफोड़ धमाकों, फुलझड़ियों की सतरंगी झिलमिलाती छटाओं, और अंतरतम को मिठास से भर देने वाली मिठाइयों के बीच धन-धान्य के दीप, ज्ञान की मोमबत्तियां, सुख के उजाले और समृद्धि की किरणें इस दिवाली पर रोशन कर दें दुःखों की अमावस्या को, आपके जीवन में...


 दीपावली के इस पावन पर्व पर निष्ठा, सार्थक, हेमा तथा विवेक की ओर से हार्दिक मंगलकामनाएं...

Thursday, September 29, 2011

दुर्गा के 108 नाम - दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् (विश्वसारतन्त्र) - अनुवाद सहित...

विशेष नोट : शारदीय नवरात्रों में मां दुर्गा की आराधना करने हेतु दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् का विशेष महत्व होता है... इसी कारण सभी हिन्दी ब्लॉगप्रेमियों के लिए विकीपीडिया से साभार लेकर स्तोत्र तथा http://hi.bharatdiscovery.org से साभार लेकर इसका अर्थ प्रकाशित कर रहा हूं...

॥ दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् (विश्वसारतन्त्र) ॥

॥ ॐ ॥

॥ श्री दुर्गायै नमः ॥

॥ श्री दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् ॥

॥ ईश्वर उवाच ॥

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने ।
यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ॥ 1 ॥

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी ।
आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ॥ 2 ॥

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपाः ।
मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चितिः ॥ 3 ॥

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्द स्वरूपिणी ।
अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागतिः ॥ 4 ॥

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्नप्रिया सदा ।
सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ॥ 5 ॥

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती ।
पट्टाम्बरपरिधाना कलमञ्जरीरञ्जिनी ॥ 6 ॥

अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी ।
वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता ॥ 7 ॥

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा ।
चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृतिः ॥ 8 ॥

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा ।
बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहन वाहना ॥ 9 ॥

निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी ।
मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ॥ 10 ॥

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी ।
सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ॥ 11 ॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी ।
कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यतिः ॥ 12 ॥

अप्रौढ़ा चैव प्रौढ़ा च वृद्धमाता बलप्रदा ।
महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला ॥ 13 ॥

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी ।
नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ॥ 14 ॥

शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी ।
कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ॥ 15 ॥

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम् ।
नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ॥ 16 ॥

धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च ।
चतुर्वर्गं तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ॥ 17 ॥

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम् ।
पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ॥ 18 ॥

तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वैः सुरवरैरपि ।
राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवाप्नुयात् ॥ 19 ॥

गोरोचनालक्तककुङ्कुमेव सिन्धूरकर्पूरमधुत्रयेण ।
विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारिः ॥ 20 ॥

भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते ।
विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् संपदां पदम् ॥ 21 ॥

॥ इति श्री विश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम् ॥

दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् का अर्थ

॥ शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं ॥

कमलानने! अब मैं अष्टोत्तरशत (108) नामों का वर्णन करता हूं, सुनो; जिसके प्रसाद (पाठ या श्रवण) मात्र से परम साध्वी भगवती दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं... ॥ 1 ॥

सती (दक्ष की बेटी), साध्वी (आशावादी), भवप्रीता (भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली), भवानी (ब्रह्मांड की निवास), भवमोचनी (संसारबंधनों से मुक्त करने वाली), आर्या, दुर्गा, जया, आद्य (शुरुआत की वास्तविकता), त्रिनेत्र (तीन आंखों वाली), शूलधारिणी, पिनाकधारिणी (शिव का त्रिशूल धारण करने वाली), चित्रा (सुरम्य), चण्डघण्टा (प्रचण्ड स्वर से घण्टानाद करने वाली), महातपा: (भारी तपस्या करने वाली), मन: (मनन-शक्ति), बुद्धि: (बोधशक्ति), अहंकारी (अहंताका आश्रय), चित्तरूपा (वह जो सोच की अवस्था में है), चिता, चिति: (चेतना), सर्वमन्त्रमयी, सत्ता (सत्-स्वरूपा, जो सब से ऊपर है), सत्यानन्दस्वरूपिणी (अनन्त आनंद का रूप), अनन्ता (जिनके स्वरूप का कहीं अन्त नहीं), भाविनी (सबको उत्पन्न करने वाली, ख़ूबसूरत औरत), भाव्या (भावना एवं ध्यान करने योग्य), भव्या (कल्याणरूपा, भव्यता के साथ), अभव्या (जिससे बढकर भव्य कुछ नहीं), सदागति (हमेशा गति में, मोक्ष दान), शाम्भवी (शिवप्रिया, शंभू की पत्नी), देवमाता, चिन्ता, रत्‍‌नप्रिया (गहने से प्यार), सर्वविद्या (ज्ञान का निवास), दक्षकन्या (दक्ष की बेटी), दक्षयज्ञविनाशिनी, अपर्णा (तपस्या के समय पत्ते को भी न खाने वाली), अनेकवर्णा (अनेक रंगों वाली), पाटला (लाल रंग वाली), पाटलावती (गुलाब के फूल या लाल परिधान या फूल धारण करने वाली), पट्टाम्बरपरिधाना (रेशमी वस्त्र पहनने वाली), कलमञ्जीररञ्जिनी (मधुर ध्वनि करने वाले मञ्जीर / पायल को धारण करके प्रसन्न रहने वाली), अमेयविक्रमा (असीम पराक्रमवाली), क्रूरा (दैत्यों के प्रति कठोर), सुन्दरी, सुरसुन्दरी, वनदुर्गा, मातङ्गी, मतङ्गमुनिपूजिता, ब्राह्मी, माहेश्वरी, इंद्री, कौमारी, वैष्णवी, चामुण्डा, वाराही, लक्ष्मी:, पुरुषाकृति: (वह जो पुरुष का रूप ले ले), विमला (आनन्द प्रदान करने वाली), उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, नित्या, बुद्धिदा, बहुला, बहुलप्रेमा, सर्ववाहनवाहना, निशुम्भशुम्भहननी, महिषासुरमर्दिनी, मधुकैटभहंत्री, चण्डमुण्डविनाशिनी, सर्वासुरविनाशा, सर्वदानवघातिनी, सर्वशास्त्रमयी, सत्या, सर्वास्त्रधारिणी, अनेकशस्त्रहस्ता, अनेकास्त्रधारिणी, कुमारी, एककन्या, कैशोरी, युवती, यति, अप्रौढ़ा (जो कभी पुराना न हो), प्रौढ़ा (जो पुराना है), वृद्धमाता, बलप्रदा, महोदरी, मुक्तकेशी, घोररूपा, महाबला, अग्निज्वाला, रौद्रमुखी, कालरात्रि:, तपस्विनी, नारायणी, भद्रकाली, विष्णुमाया, जलोदरी, शिवदूती, करली, अनन्ता (विनाशरहिता), परमेश्वरी, कात्यायनी, सावित्री, प्रत्यक्षा, ब्रह्मवादिनी ॥ 2-15 ॥

देवी पार्वती! जो प्रतिदिन दुर्गाजी के इस अष्टोत्तरशतनाम का पाठ करता है, उसके लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है... ॥ 16 ॥

वह धन, धान्य, पुत्र, स्त्री, घोड़ा, हाथी, धर्म आदि चार पुरुषार्थ तथा अन्त में सनातन मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है... ॥ 17 ॥

कुमारी का पूजन और देवी सुरेश्वरी का ध्यान करके पराभक्ति के साथ उनका पूजन करें, फिर अष्टोत्तरशत नाम का पाठ आरम्भ करें... ॥ 18 ॥

देवि! जो ऐसा करता है, उसे सब श्रेष्ठ देवताओं से भी सिद्धि प्राप्त होती है... राजा उसके दास हो जाते हैं... वह राज्यलक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है... ॥ 19 ॥

गोरोचन, लाक्षा, कुङ्कुम, सिन्दूर, कपूर, घी (अथवा दूध), चीनी और मधु - इन वस्तुओं को एकत्र करके इनसे विधिपूर्वक यन्त्र लिखकर जो विधिज्ञ पुरुष सदा उस यन्त्र को धारण करता है, वह शिव के तुल्य (मोक्षरूप) हो जाता है... ॥ 20 ॥

भौमवती अमावास्या की आधी रात में, जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र पर हों, उस समय इस स्तोत्र को लिखकर जो इसका पाठ करता है, वह सम्पत्तिशाली होता है... ॥ 21 ॥

Thursday, September 08, 2011

सूरज, चांद और अखबार... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : मेरे विचार में छोटे-छोटे बच्चों को आसपास की चीज़ों के बारे में जानकारी देने और सिखाने के लिए कविताएं बेहतरीन ज़रिया होती हैं... छोटी-छोटी लयबद्ध कविताएं बच्चे स्वभावतः जल्दी याद कर लेते हैं, सो, इस बार प्रयास किया है, तीन छोटी-छोटी कविताएं लिखकर, उनके माध्यम से सूरज, चांद और अखबार के बारे में सिखाने का...

सूरज


दिन भर देता हमें रोशनी,
सबको मार्ग दिखाता है...
शाम ढले यह छिप जाता है,
सूरज यह कहलाता है...
इसके चारों तरफ हमारी,
धरती चक्कर काटती है...
इस तारे में, आग भरी है,
धूप हमें यह बांटती है...

चांद


रात हुई, और गगन को देखा,
पाया एक अनूठा मंजर...
तारों में एक गेंद पड़ी थी,
चमक रही थी, वह जमकर...
किसी रात यह छोटी होती,
किसी रात में बिल्कुल गोल...
किसी रात यह नज़र न आती,
चंदा मामा इसको बोल...

अखबार


सुबह-सवेरे, आ जाता है,
खबरें लेकर, दुनियाभर की...
कहलाता है यह अखबार,
तस्वीरें लाता सुन्दर-सी...
पापा उठकर सुबह-सवेरे,
पढ़ते हैं, सबसे पहले...
कहते हैं, सुधरेगी भाषा,
बच्चे गर इसको पढ़ लें...

Friday, September 02, 2011

आज सड़कों पर... (दुष्यंत कुमार)

विशेष नोट : 'हो गई है पीर पर्वत सी...' के अतिरिक्त दुष्यंत कुमार की यह कविता 'आज सड़कों पर...' भी मुझे काफी पसंद है... सो, अब आप लोग भी इसे पढ़ें... 

 दुष्यंत कुमार (1 सितंबर, 1933 - 30 दिसंबर, 1975)

आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख,
पर अंधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख...

एक दरिया है यहां पर, दूर तक फैला हुआ,
आज अपने बाज़ुओं को देख, पतवारें न देख...

अब यकीनन ठोस है धरती, हकीकत की तरह,
यह हकीकत देख, लेकिन खौफ के मारे न देख...

वे सहारे भी नहीं, अब जंग लड़नी है तुझे,
कट चुके जो हाथ, उन हाथों में तलवारें न देख...

ये धुंधलका है नज़र का, तू महज़ मायूस है,
रोजनों को देख, दीवारों में दीवारें न देख...

राख कितनी राख है, चारों तरफ बिखरी हुई,
राख में चिनगारियां ही देख, अंगारे न देख...

Friday, August 19, 2011

समर शेष है... (रामधारी सिंह 'दिनकर')

विशेष नोट : बचपन में पाठ्यपुस्तकों में जिन कवियों को पढ़ाया गया, उनमें रामधारी सिंह 'दिनकर' का नाम प्रमुख है... कविताकोश.ओआरजी (http://www.KavitaKosh.org) पर इस कविता के साथ प्रकाशित कवि परिचय के अनुसार 23 सितम्बर, 1908 को बिहार में बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में जन्मे श्री दिनकर ने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की, तथा साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया... 'राष्ट्रकवि' की उपाधि से सुशोभित तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं... उनका निधन 24 अप्रैल, 1974 को हुआ... यह कविता उनकी कलम से निकली बहुत-सी बेजोड़ रचनाओं में से एक है, जो आज भी प्रासंगिक है...


ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गई, शांति से बोलो...?
किसने कहा, और मत वेधो हृदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुमकुम से, कुसुम से, केसर से...?

कुमकुम...? लेपूं किसे...? सुनाऊं किसको कोमल गान...?
तड़प रहा आंखों के आगे, भूखा हिन्दुस्तान...

फूलों के रंगीन लहर पर, ओ उतरने वाले...
ओ रेशमी नगर के वासी, ओ छवि के मतवाले...
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियाला है...

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार...

वह संसार, जहां तक पहुंची अब तक नहीं किरण है,
जहां क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है...
देख जहां का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है,
मां को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है...

पूज रहा है जहां चकित हो, जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में, अटका कहां स्वराज...?

अटका कहां स्वराज...? बोल दिल्ली, तू क्या कहती है...?
तू रानी बन गई, वेदना जनता क्यों सहती है...?
सबके भाग्य दबा रखे हैं, किसने अपने कर में...?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में...

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनी, महावज्र टूटेगा...

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा,
जिसका है ये न्यास, उसे सत्वर पहुंचाना होगा...
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं,
गंगा का पथ रोक, इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं...

कह दो उनसे झुके अगर, तो जग मे यश पाएंगे,
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाएंगे...

समर शेष है, जनगंगा को खुलकर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो...
पथरीली ऊंची जमीन है...? तो उसको तोड़ेंगे,
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे...

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खण्ड-खण्ड हो, गिरे विषमता की काली जंजीर...

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं...

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है...

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल,
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल...

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना,
सावधान हो खड़ी, देश भर में गांधी की सेना...
बलि देकर भी बलि, स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे,
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बांधो रे...

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध...

Thursday, August 18, 2011

मुसाफिर हूं यारों... (परिचय)

विशेष नोट : यह गीत हमेशा से मेरे पसंदीदा गीतों की सूची में रहा है, जिसके दो कारण हैं... एक, यह मेरे पसंदीदा पार्श्वगायक की आवाज़ में है, और दूसरी वजह इसके रचयिता गुलज़ार हैं, जिनका शायद ही कोई गीत होगा, जो मुझे पसंद न आया हो... सो, आज उनकी 75वीं वर्षगांठ पर उनका लिखा यह गीत आप सबके लिए...


फिल्म : परिचय (1972)
संगीतकार : राहुल देव बर्मन (आरडी बर्मन, पंचम)
गीतकार : गुलज़ार (सम्पूरण सिंह कालरा)
पार्श्वगायक : किशोर कुमार

मुसाफिर हूं यारों...
न घर है, न ठिकाना...
मुझे चलते जाना है... बस, चलते जाना...

एक राह रुक गई, तो और जुड़ गई...
मैं मुड़ा तो साथ-साथ, राह मुड़ गई...
हवा के परों पर, मेरा आशियाना...
मुसाफिर हूं यारों...
न घर है, न ठिकाना...
मुझे चलते जाना है... बस, चलते जाना...

दिन ने हाथ थामकर, इधर बिठा लिया...
रात ने इशारे से, उधर बुला लिया...
सुबह से, शाम से, मेरा दोस्ताना...
मुसाफिर हूं यारों...
न घर है, न ठिकाना...
मुझे चलते जाना है... बस, चलते जाना...

Wednesday, August 10, 2011

कौन क्या-क्या खाता है...? (काका हाथरसी)

विशेष नोट : काका हाथरसी बहुत छोटी-सी आयु (मेरी ही आयु की बात कर रहा हूं) से मेरे पसंदीदा हास्य कवि रहे हैं... आकाशवाणी के कार्यक्रमों को सुनने वाले जानते हैं कि उनकी कुण्डलियां बेहद प्रसिद्ध रही हैं... इन्हीं पर आधारित उनकी लिखी एक कविता आप सबके लिए kavitakosh.org से लेकर आया हूं...

खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधि, लड्डू खाएं किलोल,
लड्डू खाएं किलोल, जपें खाने की माला,
ऊंची रिश्वत खाते, ऊंचे अफसर आला,
दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सिर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते...

दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर,
हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर,
कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएं भ्रष्टाजी,
बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी,
दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं,
न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं...

सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय,
चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय,
नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएं,
पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएं,
उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते,
छेड़छाड़ में नकली मजनूं, चप्पल खाते...

सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं,
राजीव जी के सामने, मंत्री चक्कर खायं,
मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएं,
एलेक्शन में हार जायं तो मुंह की खाएं,
जीजाजी खाते देखे साली की गाली,
पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली...

मंदिर जाकर भक्तगण, खाते प्रभू प्रसाद,
चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद,
चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन,
कंट्रैक्टर से इंजीनियर जी खायं कमीशन,
अनुभवहीन व्यक्ति दर-दर की ठोकर खाते,
बच्चों की फटकारें, बूढ़े होकर खाते...

दद्दा खाएं दहेज में, दो नंबर के नोट,
पाखंडी मेवा चरें, पंडित चाटें होंट,
पंडित चाटें होंट, वोट खाते हैं नेता,
खायं मुनाफा उच्च, निच्च राशन विक्रेता,
काकी मैके गई, रेल में खाकर धक्का,
कक्का स्वयं बनाकर खाते कच्चा-पक्का...

चालीसवां राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव (अशोक चक्रधर)

विशेष नोट : मेरे पसंदीदा हास्य कवियों की सूची में एक नाम बेहद अच्छे व्यंग्यकार अशोक चक्रधर का भी है... मज़ेदार बात यह है कि मेरी मां को भी उनकी रचनाएं, और उनसे भी ज़्यादा कवितापाठ करते वक्त उनके चेहरे पर आने वाली मुस्कुराहट पसंद है... वह मेरी पत्नी के अध्यापक भी रहे हैं... उनकी कई रचनाएं कभी दूरदर्शन पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में सुनी हैं... आज उन्हीं की एक और रचना आप सबके लिए लेकर आया हूं...

पिछले दिनों
चालीसवां राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव मनाया गया...
सभी सरकारी संस्थानों को बुलाया गया...

भेजी गई सभी को निमंत्रण-पत्रावली,
साथ में प्रतियोगिता की नियमावली...
लिखा था -
प्रिय भ्रष्टोदय,
आप तो जानते हैं,
भ्रष्टाचार हमारे देश की
पावन-पवित्र सांस्कृतिक विरासत है,
हमारी जीवन-पद्धति है,
हमारी मजबूरी है, हमारी आदत है...
आप अपने विभागीय भ्रष्टाचार का
सर्वोत्कृष्ट नमूना दिखाइए,
और उपाधियां तथा पदक-पुरस्कार पाइए...
व्यक्तिगत उपाधियां हैं -
भ्रष्टशिरोमणि, भ्रष्टविभूषण,
भ्रष्टभूषण और भ्रष्टरत्न,
और यदि सफल हुए आपके विभागीय प्रयत्न,
तो कोई भी पदक, जैसे -
स्वर्ण गिद्ध, रजत बगुला,
या कांस्य कउआ दिया जाएगा...
सांत्वना पुरस्कार में,
प्रमाण-पत्र और
भ्रष्टाचार प्रतीक पेय व्हिस्की का
एक-एक पउवा दिया जाएगा...
प्रविष्टियां भरिए...
और न्यूनतम योग्यताएं पूरी करते हों तो
प्रदर्शन अथवा प्रतियोगिता खंड में स्थान चुनिए...

कुछ तुले, कुछ अनतुले भ्रष्टाचारी,
कुछ कुख्यात निलंबित अधिकारी,
जूरी के सदस्य बनाए गए,
मोटी रकम देकर बुलाए गए...
मुर्ग तंदूरी, शराब अंगूरी,
और विलास की सारी चीज़ें जरूरी,
जुटाई गईं,
और निर्णायक मंडल,
यानि कि जूरी को दिलाई गईं...

एक हाथ से मुर्गे की टांग चबाते हुए,
और दूसरे से चाबी का छल्ला घुमाते हुए,
जूरी का एक सदस्य बोला -
मिस्टर भोला,
यू नो,
हम ऐसे करेंगे या वैसे करेंगे,
बट बाइ द वे,
भ्रष्टाचार नापने का पैमाना क्या है,
हम फैसला कैसे करेंगे...?

मिस्टर भोला ने सिर हिलाया,
और हाथों को घूरते हुए फरमाया -
चाबी के छल्ले को टेंट में रखिए,
और मुर्गे की टांग को प्लेट में रखिए,
फिर सुनिए मिस्टर मुरारका,
भ्रष्टाचार होता है चार प्रकार का...
पहला - नज़राना...
यानि नज़र करना, लुभाना...
यह काम होने से पहले दिया जाने वाला ऑफर है...
और पूरी तरह से
देनेवाले की श्रद्धा और इच्छा पर निर्भर है...
दूसरा - शुकराना...
इसके बारे में क्या बताना...
यह काम होने के बाद बतौर शुक्रिया दिया जाता है...
लेने वाले को
आकस्मिक प्राप्ति के कारण बड़ा मजा आता है...
तीसरा - हकराना, यानि हक जताना...
हक बनता है जनाब,
बंधा-बंधाया हिसाब...
आपसी सैटलमेंट,
कहीं दस परसेंट, कहीं पंद्रह परसेंट, कहीं बीस परसेंट...
पेमेंट से पहले पेमेंट...
चौथा - जबराना...
यानी जबर्दस्ती पाना...
यह देने वाले की नहीं,
लेने वाले की
इच्छा, क्षमता और शक्ति पर डिपेंड करता है...
मना करने वाला मरता है...
इसमें लेने वाले के पास पूरा अधिकार है,
दुत्कार है, फुंकार है, फटकार है...
दूसरी ओर न चीत्कार, न हाहाकार,
केवल मौन स्वीकार होता है...
देने वाला अकेले में रोता है...

तो यही भ्रष्टाचार का सर्वोत्कृष्ट प्रकार है...
जो भ्रष्टाचारी इसे न कर पाए, उसे धिक्कार है...
नजराना का एक प्वाइंट,
शुकराना के दो, हकराना के तीन,
और जबराना के चार...
हम भ्रष्टाचार को अंक देंगे इस प्रकार...

रात्रि का समय...
जब बारह पर आ गई सुई,
तो प्रतियोगिता शुरू हुई...

सर्वप्रथम जंगल विभाग आया,
जंगल अधिकारी ने बताया -
इस प्रतियोगिता के
सारे फर्नीचर के लिए,
चार हजार चार सौ बीस पेड़ कटवाए जा चुके हैं...
और एक-एक डबल बैड, एक-एक सोफा-सैट,
जूरी के हर सदस्य के घर, पहले ही भिजवाए जा चुके हैं...
हमारी ओर से भ्रष्टाचार का यही नमूना है,
आप सुबह जब जंगल जाएंगे,
तो स्वयं देखेंगे,
जंगल का एक हिस्सा अब बिलकुल सूना है...

अगला प्रतियोगी पीडब्ल्यूडी का,
उसने बताया अपना तरीका -
हम लैंड-फिलिंग या अर्थ-फिलिंग करते हैं...
यानि ज़मीन के निचले हिस्सों को,
ऊंचा करने के लिए मिट्टी भरते हैं...
हर बरसात में मिट्टी बह जाती है,
और समस्या वहीं-की-वहीं रह जाती है...
जिस टीले से हम मिट्टी लाते हैं,
या कागजों पर लाया जाना दिखाते हैं,
यदि सचमुच हमने उतनी मिट्टी को डलवाया होता,
तो आपने उस टीले की जगह पृथ्वी में,
अमरीका तक का आर-पार गड्ढा पाया होता...
लेकिन टीला ज्यों-का-त्यों खड़ा है,
उतना ही ऊंचा, उतना ही बड़ा है...
मिट्टी डली भी और नहीं भी,
ऐसा नमूना नहीं देखा होगा कहीं भी...

क्यू तोड़कर अचानक,
अंदर घुस आए एक अध्यापक -
हुजूर, मुझे आने नहीं दे रहे थे,
शिक्षा का भ्रष्टाचार बताने नहीं दे रहे थे, प्रभो!

एक जूरी मेंबर बोला - चुप रहो,
चार ट्यूशन क्या कर लिए,
कि भ्रष्टाचारी समझने लगे,
प्रतियोगिता में शरीक होने का दम भरने लगे...
तुम क्वालिफाई ही नहीं करते,
बाहर जाओ -
नेक्स्ट, अगले को बुलाओ...

अब आया पुलिस का एक दरोगा बोला -
हम न हों तो भ्रष्टाचार कहां होगा...?
जिसे चाहें पकड़ लेते हैं, जिसे चाहें रगड़ देते हैं,
हथकड़ी नहीं डलवानी, दो हज़ार ला,
जूते भी नहीं खाने, दो हज़ार ला,
पकड़वाने के पैसे, छुड़वाने के पैसे,
ऐसे भी पैसे, वैसे भी पैसे,
बिना पैसे, हम हिलें कैसे...?
जमानत, तफ़्तीश, इनवेस्टीगेशन,
इनक्वायरी, तलाशी या ऐसी सिचुएशन,
अपनी तो चांदी है,
क्योंकि स्थितियां बांदी हैं,
डंके का ज़ोर है,
हम अपराध मिटाते नहीं हैं,
अपराधों की फसल की देखभाल करते हैं,
वर्दी और डंडे से कमाल करते हैं...

फिर आए क्रमश:
एक्साइज़ वाले, इन्कम टैक्स वाले,
स्लम वाले, कस्टम वाले,
डीडीए वाले,
टीए, डीए वाले,
रेल वाले, खेल वाले,
हैल्थ वाले, वैल्थ वाले,
रक्षा वाले, शिक्षा वाले,
कृषि वाले, खाद्य वाले,
ट्रांसपोर्ट वाले, एअरपोर्ट वाले,
सभी ने बताए अपने-अपने घोटाले...

प्रतियोगिता पूरी हुई,
तो जूरी के एक सदस्य ने कहा -
देखो भाई,
स्वर्ण गिद्ध तो पुलिस विभाग को जा रहा है,
रजत बगुले के लिए पीडब्ल्यूडी, डीडीए के बराबर आ रहा है...
और ऐसा लगता है हमको,
कांस्य कउआ मिलेगा एक्साइज़ या कस्टम को...

निर्णय-प्रक्रिया चल ही रही थी कि
अचानक मेज फोड़कर,
धुएं के बादल अपने चारों ओर छोड़कर,
श्वेत धवल खादी में लक-दक,
टोपीधारी गरिमा-महिमा उत्पादक,
एक विराट व्यक्तित्व प्रकट हुआ...
चारों ओर रोशनी और धुआं...
जैसे गीता में श्रीकृष्ण ने,
अपना विराट स्वरूप दिखाया,
और महत्त्व बताया था...
कुछ-कुछ वैसा ही था नज़ारा...
विराट नेताजी ने मेघ-मंद्र स्वर में उचारा -
मेरे हज़ारों मुंह, हजारों हाथ हैं...
हज़ारों पेट हैं, हज़ारों ही लात हैं...
नैनं छिन्दन्ति पुलिसा-वुलिसा,
नैनं दहति संसदा...
नाना विधानि रुपाणि,
नाना हथकंडानि च...
ये सब भ्रष्टाचारी मेरे ही स्वरूप हैं,
मैं एक हूं, लेकिन करोड़ों रूप हैं...
अहमपि नजरानम् अहमपि शुकरानम्,
अहमपि हकरानम् च जबरानम् सर्वमन्यते...
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार,
इंजीनियर, ओवरसियर, रिश्तेदार-नातेदार,
मुझसे ही पैदा हुए, मुझमें ही समाएंगे,
पुरस्कार ये सारे मेरे हैं, मेरे ही पास आएंगे...

Tuesday, June 28, 2011

फूलों के रंग से... (प्रेम पुजारी)

विशेष नोट : बेहद खूबसूरत कविता, जो हमेशा से मुझे बेहद पसंद रही है... मन में पगे प्रेम की इतनी सुंदर अभिव्यक्ति यदा-कदा ही देखने-सुनने को मिलती है, सो, आज आप सब भी इसका आनंद लें...

फिल्म : प्रेम पुजारी (1970)
गीतकार : नीरज
संगीतकार : सचिनदेव बर्मन
पार्श्वगायक : किशोर कुमार

फूलों के रंग से, दिल की कलम से, तुझको लिखी रोज़ पाती...
कैसे बताऊं, किस-किस तरह से, पल-पल मुझे तू सताती...
तेरे ही सपने, लेकर के सोया, तेरी ही यादों में जागा...
तेरे खयालों में, उलझा रहा यूं, जैसे कि माला में धागा...
हां... बादल-बिजली, चन्दन-पानी जैसा अपना प्यार...
लेना होगा, जनम हमें, कई-कई बार...
हां... इतना मदिर, इतना मधुर, तेरा-मेरा प्यार...
लेना होगा, जनम हमें, कई-कई बार...

सांसों की सरगम, धड़कन की बीना, सपनों की गीतांजलि तू...
मन की गली में, महके जो हरदम, ऐसी जूही की कली तू...
छोटा सफ़र हो, लम्बा सफ़र हो, सूनी डगर हो या मेला...
याद तू आए, मन हो जाए, भीड़ के बीच अकेला...
हां... बादल-बिजली, चन्दन-पानी जैसा अपना प्यार...
लेना होगा, जनम हमें, कई-कई बार...
हां... इतना मदिर, इतना मधुर, तेरा-मेरा प्यार...
लेना होगा, जनम हमें, कई-कई बार...

पूरब हो पश्चिम, उत्तर हो दख्खिन, तू हर जगह मुस्कुराए...
जितना ही जाऊं, मैं दूर तुझसे, उतनी ही तू पास आए...
आंधी ने रोका, पानी ने टोका, दुनिया ने हंसकर पुकारा...
तस्वीर तेरी, लेकिन लिए मैं, कर आया सबसे किनारा...
हां... बादल-बिजली, चन्दन-पानी जैसा अपना प्यार...
लेना होगा, जनम हमें, कई-कई बार...
हां... इतना मदिर, इतना मधुर, तेरा-मेरा प्यार...
लेना होगा, जनम हमें, कई-कई बार...

Tuesday, June 21, 2011

जो दिया था तुमने इक दिन, मुझे फिर वो प्यार दे दो... (संबंध)

विशेष नोट : आज सुबह-सुबह मेरे फुफेरे भाई ने अपने फेसबुक पर इक गीत के मुखड़े से स्टेटस अपडेट किया... बस, याद आ गया, कितना अच्छा लगता था यह गीत स्कूल के दिनों में... कवि प्रदीप के लिखे बेहद खूबसूरत बोल, और सचमुच हिलाकर रख देने वाली आवाज़ महेन्द्र कपूर की... सो, आप सब भी आनंद लीजिए...

फिल्म : सम्बन्ध (1968)
संगीतकार : ओपी नय्यर
पार्श्वगायक : महेन्द्र कपूर, हेमंत कुमार
गीतकार : कवि प्रदीप (वास्तविक नाम - रामचंद्र द्विवेदी)

किस बाग़ में मैं जन्मा, खेला, मेरा रोम-रोम यह जानता है...
तुम भूल गए शायद माली, पर फूल तुम्हें पहचानता है...

जो दिया था तुमने इक दिन, मुझे फिर वो प्यार दे दो...
इक कर्ज़ मांगता हूं, बचपन उधार दे दो...

तुम छोड़ गए थे जिसको, इक धूल-भरे रस्ते में,
वो फूल आज रोता है, इक अमीर के गुलदस्ते में...
मेरा दिल तड़प रहा है, मुझे फिर दुलार दे दो...
इक कर्ज़ मांगता हूं, बचपन उधार दे दो...
जो दिया था तुमने इक दिन, मुझे फिर वो प्यार दे दो...

मेरी उदास आंखों को, है याद वो वक्त सलोना,
जब झूला था बांहों में, मैं बनके तुम्हारा खिलौना...
मेरी वो खुशी की दुनिया, फिर एक बार दे दो...
इक कर्ज़ मांगता हूं, बचपन उधार दे दो...
जो दिया था तुमने इक दिन, मुझे फिर वो प्यार दे दो...

तुम्हें देख नाच उठते हैं, मेरे पिछले दिन वो सुनहरे,
और दूर कहीं दिखते हैं, मुझसे बिछड़े दो चेहरे...
जिसे सुनके घर वो लौटे, मुझे वो पुकार दे दो...
इक कर्ज़ मांगता हूं, बचपन उधार दे दो...
जो दिया था तुमने इक दिन, मुझे फिर वो प्यार दे दो...

Saturday, June 04, 2011

प्यारी निष्ठा... (रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक')

विशेष नोट : श्री रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक' द्वारा उनकी पोती प्राची के लिए रचित कविता 'प्यारी प्राची' को मैंने पिछले वर्ष अपने ब्लॉग पर प्रकाशित किया था, और बेटी के प्यार में पड़कर उसमें उनकी पोती का नाम क्षमाप्रार्थना के साथ अपनी बेटी के नाम से बदल दिया था... आज शास्त्री जी ने मेरी बेटी के लिए नई कविता लिखकर प्रेषित की है, उनका हार्दिक धन्यवाद, एक पिता के रूप में... आप सब भी पढ़कर आनंद लें... वैसे इस कविता के प्रकाशन के साथ ही उनकी मूल कविता में उनकी पोती प्राची का ही नाम लगा दिया है...


प्यारी-प्यारी गुड़िया जैसी,
बिटिया तुम हो कितनी प्यारी...
मोहक है मुस्कान तुम्हारी,
घर-भर की तुम राजदुलारी...

नए-नए परिधान पहनकर,
सबको बहुत लुभाती हो...
अपने मन का गाना सुनकर,
ठुमके खूब लगाती हो...

निष्ठा तुम प्राची जैसी ही,
चंचल-नटखट बच्ची हो...
मन में मैल नहीं रखती हो,
देवी जैसी सच्ची हो...

दिन-भर के कामों से थककर,
जब घर वापिस आता हूं...
तुमसे बातें करके सारे,
कष्ट भूल मैं जाता हूं...

मेरे घर-आंगन की तुम तो,
नन्हीं कलिका हो सुरभित...
हंसते-गाते देख तुम्हें,
मन सबका हो जाता हर्षित...

Friday, June 03, 2011

छुट्टियों में दिल्ली की सैर... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : गर्मियां आईं, स्कूलों में छुट्टियां हुईं, और बच्चे दिल्ली पहुंचे, यह तो हर बार होता ही है... हर बार उन्हें कुछ न कुछ नया सिखाता भी हूं, सो, इस बार भी एक कविता लिख दी है उनके लिए... आप लोग भी मुलाहिज़ा फरमाएं...
 

छुट्टी थी जब स्कूल में अपने, सब कुछ हुआ था बंद,
दिल्ली जाकर मैं और निष्ठा, रहे थे सबके संग...

दादा-दादी, चाचा-चाची, सबका मिला था प्यार,
रोज़ किया था हल्ला-गुल्ला, रोज़ ही चीख-पुकार...

सॉफ्टी थी, और शरबत भी था, था रबड़ी का दोना,
सबके संग खाया था सब कुछ, कोई न रोना-धोना...

लोटस टेम्पल, लालकिला भी देखा था इस बार,
कुतुब दिखाया पापा ने, दिलवाई खिलौना कार...

चिड़ियाघर में सभी जानवर, देखे हमने मिलकर,
शेर भी देखा, हाथी भी था, और था मोटा बंदर...

मैट्रो की भी सैर कराई, बहुत मज़ा था आया,
इंडिया गेट पर बोट में बैठे, सबका मन हर्षाया...

पार्क में लेकर गई थीं मम्मी, ढेरों थे वहां झूले,
वहां किया था हल्ला जमकर, अब तक हम न भूले...

कोई नहीं थी चिन्ता हमको, कोई किया न काम,
सारे दिन करते थे मस्ती, खेल-कूद, आराम...

चिड़िया... (श्यामसुन्दर अग्रवाल)

विशेष नोट : हर साल की तरह छुट्टियों में बच्चे इस बार भी मेरे पास दिल्ली पहुंच चुके हैं, सो, उन्हें कुछ नया सिखाने की मेरी कवायद भी हमेशा की तरह शुरू हो गई है, जिसका परिणाम श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल द्वारा रचित इस शिक्षाप्रद बाल कविता के रूप में आपके सामने है... भारतीय भाषाओं में रचित काव्य के संकलन के लिए प्रसिद्ध www.kavitakosh.org के अनुसार श्री अग्रवाल का जन्म पंजाब के कोटकपुरा में हुआ था... श्री अग्रवाल हिन्दी और पंजाबी भाषा में कविताएं रचने के अतिरिक्त कहानियां और लघुकथाएं लिखने, उनके सम्पादन तथा अनुवाद करने के लिए भी जाने जाते हैं... श्री अग्रवाल पिछले 21 वर्ष से लघुकथाओं की पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'मिन्नी' के संयुक्त सम्पादक भी हैं... 
 
 
 सुबह-सवेरे आती चिड़िया,
आकर मुझे जगाती चिड़िया...
ऊपर बैठ मुंडेर पर,
चीं-चीं, चूं-चूं गाती चिड़िया...

जाना है, नहीं स्कूल उसे,
न ही दफ़्तर जाती चिड़िया...
फिर भी सदा समय से आती,
आलस नहीं दिखाती चिड़िया...

थोड़ा-सा चुग्गा लेकर भी,
दिन-भर पंख फैलाती चिड़िया...
इससे सेहत ठीक है रखती,
नहीं दवाई खाती चिड़िया...

छोटी-सी है, फिर भी बच्चों,
बातें कई सिखाती चिड़िया...
रखो सदा ध्यान समय का,
सबको पाठ पढ़ाती चिड़िया...

Friday, May 20, 2011

आई रेल, आई रेल... (रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

विशेष नोट : गर्मी की छुट्टियों के दौरान बच्चों को कुछ नया सिखाने के उद्देश्य से कविताकोश.ओआरजी पर आया था, और वहां रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की लिखी यह कविता मिली... अच्छी लगी, सो, आप लोग भी पढ़ लें...


 धक्का-मुक्की, रेलम-पेल,
आई रेल, आई रेल...

इंजन चलता सबसे आगे,
पीछे-पीछे डिब्बे भागे...

हॉर्न बजाता, धुआं छोड़ता,
पटरी पर यह तेज़ दौड़ता...

जब स्टेशन आ जाता है,
सिग्नल पर रुक जाता है...

जब तक बत्ती लाल रहेगी,
इसकी ज़ीरो चाल रहेगी...

हरा रंग जब हो जाता है,
तब आगे को बढ़ जाता है...

बच्चों को यह बहुत सुहाती,
नानी के घर तक ले जाती...

छुक-छुक करती आती रेल,
आओ मिलकर खेलें खेल...

धक्का-मुक्की, रेलम-पेल,
आई रेल, आई रेल...

कोई दीवाना कहता है... (डॉ कुमार विश्वास)

विशेष नोट : कुछ दिन पहले मैंने आज के दौर के अपने पसंदीदा कवि कुमार विश्वास की एक बेहतरीन कविता आप लोगों को पढ़वाई थी... अब आप लोगों के सामने डॉ विश्वास की वह कविता लेकर आया हूं, जिसके लिए वह सबसे ज़्यादा पहचाने जाते हैं... डॉ विश्वास की खुद की वेबसाइट (KumarVishwas.com) के मुताबिक 10 फरवरी, 1970 को पिलखुआ, जिला ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश में जन्मे कुमार की चर्चित कृतियों में 'कोई दीवाना कहता है' (कविता संग्रह, 2007) के अतिरिक्त 'इक पगली लड़की के बिन' (कविता संग्रह, 1995) तो शामिल है ही, हिन्दी भाषा की अनेक पत्रिकाओं में उनकी अन्य कविताएं भी प्रकाशित हुई हैं, तथा वह देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों, जैसे आईआईएम, आईआईटी, एनआईटी और अग्रणी विश्वविद्यालयों के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि कहलाते हैं। डॉ विश्वास आजकल कई फिल्मों में गीत, पटकथा और कहानी-लेखन का काम कर रहे हैं...

कॉपीराइट नोट : इस कविता के सर्वाधिकार इसके रचयिता डॉ कुमार विश्वास के पास ही हैं, तथा उन्हें श्रेय देते हुए इस कविता को यहां प्रकाशित कर रहा हूं... यदि किसी भी कारण से डॉ विश्वास अथवा / तथा उनकी रचनाओं के प्रकाशक / प्रकाशकों को इस पर आपत्ति हो, तो कृपया vivek.rastogi.2004@gmail.com पर सूचित करें, इसे तुरंत हटा दिया जाएगा...

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है,
मगर धरती की बेचैनी को, बस बादल समझता है...
मैं तुझसे दूर कैसा हूं, तू मुझसे दूर कैसी है,
ये तेरा दिल समझता है, या मेरा दिल समझता है...

मोहब्बत एक अहसासों की, पावन-सी कहानी है,
कभी कबिरा दीवाना था, कभी मीरा दीवानी है...
यहां सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आंसू हैं,
जो तू समझे तो मोती है, जो न समझे तो पानी है...

समन्दर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नहीं सकता,
यह आंसू प्यार का मोती है, इसको खो नहीं सकता...
मेरी चाहत को दुल्हन, तू बना लेना, मगर सुन ले,
जो मेरा हो नहीं पाया, वो तेरा हो नहीं सकता...

भ्रमर कोई कुमुदिनी पर, मचल बैठा तो हंगामा,
हमारे दिल में कोई ख्वाब, पल बैठा तो हंगामा...
अभी तक डूबकर सुनते थे, सब किस्सा मोहब्बत का,
मैं किस्से को हकीक़त में, बदल बैठा तो हंगामा...

Monday, May 09, 2011

लालाजी, लालाजी, एक लड्डू दो... (अज्ञात)

विशेष नोट : रविवार, 8 मई, 2011 को बरेली से दिल्ली लौटते वक्त ट्रेन में एक बच्चा मिला, जिसका नाम नोमान है, वह दिल्ली में ही दिलशाद गार्डन के ग्रीनवे स्कूल की पहली क्लास (1 D) में पढ़ता है... उसने रास्ते में एक कविता सुनाई, जो मुझे अपने बच्चों के लिए भी अच्छी लगी, सो, आप लोग भी मुलाहिज़ा फरमाएं...

बच्चा : लालाजी, लालाजी, एक लड्डू दो...

लालाजी : लड्डू चाहिए तो चार आने दो...

बच्चा : लालाजी, लालाजी, पैसे नहीं...

लालाजी : पैसे नहीं, तो लड्डू नहीं...

बच्चा : लालाजी, लालाजी, इक बात कहूं...
बच्चा : आपकी मूंछें बड़ी, प्यारी है...

लालाजी : बेटाजी, बेटाजी, मेरे पास तो आओ...
लालाजी : इक लड्डू छोड़ो, तुम दो लड्डू खाओ...

बच्चा : लालाजी, लालाजी, पॉकेट्स हैं चार...
बच्चा : चारों भर जाएं तो सबको नमस्कार...

Sunday, May 01, 2011

अन्वेषण... (रामनरेश त्रिपाठी)

विशेष नोट : इस कविता का ज़िक्र आज (दिनांक 1 मई, 2011) सुबह मेरी मां ने किया... उनके मुताबिक यह कविता उन्होंने तब पढ़ी थी, जब वह सातवीं कक्षा में पढ़ती थीं... इन्टरनेट पर ढूंढी, मिल गई, बेहद अच्छी लगी, सो, अब आप लोग भी पढ़ लें... कविता के रचयिता श्री रामनरेश त्रिपाठी का जन्म वर्ष 1881 में जौनपुर जिले के कोइरीपुर ग्राम में हुआ, तथा उनकी प्रारंभिक शिक्षा भी जौनपुर में हुई... श्री त्रिपाठी ने कविता के अलावा उपन्यास, नाटक, आलोचना, हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास तथा बालोपयोगी पुस्तकें लिखीं और कविता कौमुदी (आठ भाग में), हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, बांग्ला की कविताएं तथा ग्राम्य गीत (कविता संकलन) संपादित और प्रकाशित किए... इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं - मिलन, पथिक, स्वप्न तथा मानसी... स्वप्न पर इन्हें हिन्दुस्तान अकादमी का पुरस्कार मिला...

मैं ढूंढता तुझे था, जब कुंज और वन में,
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में...

तू आह बन किसी की, मुझको पुकारता था,
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में, भजन में...

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू,
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में...

बनकर किसी के आंसू, मेरे लिए बहा तू,
आंखें लगी थी मेरी, तब मान और धन में...

बाजे बजा-बजाकर, मैं था तुझे रिझाता,
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में...

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर,
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में...

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था,
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहां चरन में...

तूने दिए अनेकों अवसर, न मिल सका मैं,
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में...

तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था,
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में...

क्रीसस की हाय में था, करता विनोद तू ही,
तू अंत में हंसा था, महमूद के रुदन में...

प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना,
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में...

आखिर चमक पड़ा तू गांधी की हड्डियों में,
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में...

कैसे तुझे मिलूंगा, जब भेद इस कदर है,
हैरान होके भगवन, आया हूं मैं सरन में...

तू रूप के किरन में सौंदर्य है सुमन में,
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में...

तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में,
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में...

हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू,
देखूं तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में...

कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है,
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में...

दुख में न हार मानूं, सुख में तुझे न भूलूं,
ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में...

Thursday, April 28, 2011

है नमन उनको... (डॉ कुमार विश्वास)

विशेष नोट : आज के दौर के मेरे पसंदीदा कवियों में शामिल कुमार विश्वास की यह कविता हाल ही में सुनी मैंने... रोक नहीं पाया - न आंखों से गिरते आंसुओं को, और न आप लोगों तक पहुंचाने के लिए कविता को टाइप करती अंगुलियों को... देशभक्ति के जज़्बे से भरी बहुत-सी कविताएं पढ़ी-सुनी हैं, लेकिन शहीदों को जिस तरह श्रद्धांजलि कुमार विश्वास ने दी है, वह अन्यत्र ढूंढना आसान नहीं... रोंगटे खड़े हो जाते हैं, आंसू टपकने लगते हैं, गला रूंध जाता है... बहरहाल, 'कोई दीवाना कहता है...' के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध डॉ विश्वास की यह कविता मुझे यूट्यूब पर मिली... सो, आप सबके लिए भी ले आया हूं... आपकी जानकारी के लिए डॉ विश्वास की खुद की वेबसाइट (KumarVishwas.com) के मुताबिक 10 फरवरी, 1970 को पिलखुआ, जिला ग़ाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश में जन्मे कुमार की चर्चित कृतियों में 'इक पगली लड़की के बिन' (कविता संग्रह, 1995), तथा 'कोई दीवाना कहता है' (कविता संग्रह, 2007) तो शामिल हैं ही, इसके अतिरिक्त हिन्दी भाषा की अनेक पत्रिकाओं में उनकी कविताएं प्रकाशित हुई हैं, तथा वह देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों, जैसे आईआईएम, आईआईटी, एनआईटी और अग्रणी विश्वविद्यालयों के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि कहलाते हैं। डॉ विश्वास आजकल कई फिल्मों में गीत, पटकथा और कहानी-लेखन का काम कर रहे हैं...

कॉपीराइट नोट : इस कविता के सर्वाधिकार इसके रचयिता डॉ कुमार विश्वास के पास ही हैं, तथा उन्हें श्रेय देते हुए इस कविता को यहां प्रकाशित कर रहा हूं... यदि किसी भी कारण से डॉ विश्वास अथवा / तथा उनकी रचनाओं के प्रकाशक / प्रकाशकों को इस पर आपत्ति हो, तो कृपया vivek.rastogi.2004@gmail.com पर सूचित करें, इसे तुरंत हटा दिया जाएगा...

है नमन उनको, कि जो यश-काय को अमरत्व देकर,
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गए हैं...
है नमन उनको, कि जिनके सामने बौना हिमालय,
जो धरा पर गिर पड़े, पर आसमानी हो गए हैं...
है नमन उनको, कि जो यश-काय को अमरत्व देकर,
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गए हैं...

पिता, जिसके रक्त ने उज्ज्वल किया कुल-वंश माथा,
मां वही, जो दूध से इस देश की रज तोल आई...
बहन, जिसने सावनों में भर लिया पतझड़ स्वयं ही,
हाथ न उलझें कलाई से, जो राखी खोल लाई...
बेटियां, जो लोरियों में भी प्रभाती सुन रही थीं,
पिता, तुम पर गर्व है, चुपचाप जाकर बोल आईं...
प्रिया, जिसकी चूड़ियों में सितारे से टूटते थे,
मांग का सिंदूर देकर, जो उजाले मोल लाई...
है नमन उस देहरी को, जहां तुम खेले कन्हैया,
घर तुम्हारे, परम तप की राजधानी हो गए हैं...

है नमन उनको, कि जिनके सामने बौना हिमालय...

हमने लौटाए सिकंदर, सिर झुकाए, मात खाए,
हमसे भिड़ते हैं वे, जिनका मन धरा से भर गया है...
नर्क में तुम पूछना अपने बुज़ुर्गों से कभी भी,
उनके माथे पर हमारी ठोकरों का ही बयां है...
सिंह के दांतों से गिनती सीखने वालों के आगे,
शीश देने की कला में, क्या अजब है, क्या नया है...
जूझना यमराज से आदत पुरानी है हमारी,
उत्तरों की खोज में फिर एक नचिकेता गया है...
है नमन उनको, कि जिनकी अग्नि से हारा प्रभंजन,
काल-कौतुक जिनके आगे पानी-पानी हो गए हैं...

है नमन उनको, कि जिनके सामने बौना हिमालय...

लिख चुकी है विधि तुम्हारी वीरता के पुण्य लेखे,
विजय के उद्घोष, गीता के कथन, तुमको नमन है...
राखियों की प्रतीक्षा, सिंदूर-दानों की व्यथा,
ओ, देशहित-प्रतिबद्ध यौवन के सपन, तुमको नमन है...
बहन के विश्वास, भाई के सखा, कुल के सहारे,
पिता के व्रत के फलित, मां के नयन, तुमको नमन है...
कंचनी तन, चांदनी मन, आह, आंसू, प्यार, सपने,
राष्ट्र के हित कर गए सब कुछ हवन, तुमको नमन है...

है नमन उनको, कि जिनको काल पाकर हुआ पावन,
है नमन उनको, कि जिनको मृत्यु पाकर हुई पावन...
शिखर जिनके चरण छूकर, और मानी हो गए हैं...

है नमन उनको, कि जिनके सामने बौना हिमालय,
जो धरा पर गिर पड़े, पर आसमानी हो गए हैं...
है नमन उनको, कि जो यश-काय को अमरत्व देकर,
इस जगत में शौर्य की जीवित कहानी हो गए हैं...
है नमन उनको, कि जिनके सामने बौना हिमालय...

इसी गीत का वीडियो भी देखना चाहें तो...

Monday, March 28, 2011

बतूता का जूता... (सर्वेश्वरदयाल सक्सेना)

विशेष नोट : यह बाल कवि‍ता स्वर्गीय श्री सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की रचना है... मैं बचपन में बहुत-सी बाल पत्रिकाएं पढ़ा करता था, जिनमें 'पराग' भी शामिल थी... श्री सक्सेना का नाम पहली बार उसी पत्रिका में सम्पादक के तौर पर पढ़ा था... अतिरिक्त जानकारी के तौर पर KavitaKosh.org से श्री सक्सेना का परिचय उपलब्ध करवा रहा हूं... श्री सक्सेना का जन्म बस्ती जिले के एक गांव में हुआ, तथा उच्च शिक्षा काशी में... उन्होंने पहले अध्यापन किया, फिर आकाशवाणी से जुड़े... बाद में वह 'दिनमान के सहायक सम्पादक बने... श्री सक्सेना तीसरा सप्तक के कवियों में प्रमुख हैं, तथा इनकी रचनाएं रूसी, जर्मन, पोलिश तथा चेक भाषाओं में अनूदित हैं... इनके मुख्य काव्य-संग्रह हैं : 'काठ की घंटियां', 'बांस का पुल', 'गर्म हवाएं', 'कुआनो नदी', 'जंगल का दर्द', 'एक सूनी नाव', 'खूंटियों पर टंगे लोग' तथा 'कोई मेरे साथ चले'... इन्होंने उपन्यास, कहानी, गीत-नाटिका तथा बाल-काव्य भी लिखे हैं, तथा श्री सक्सेना को साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था...


ब्नबतूता... पहन के जूता...
निकल पड़े तूफान में...
थोड़ी हवा नाक में घुस गई...
घुस गई थोड़ी कान में...

कभी नाक को... कभी कान को...
मलते इब्नबतूता...
इसी बीच में निकल पड़ा...
उनके पैरों का जूता...

उड़ते-उड़ते जूता उनका...
जा पहुंचा जापान में...
इब्नबतूता खड़े रह गए...
मोची की दुकान में...

Thursday, January 27, 2011

सुपरमैन हैं मेरे पापा... (वि‍वेक भटनागर)

विशेष नोट : यह युवा कवि‍ एवं पत्रकार वि‍वेक भटनागर द्वारा रचित बाल कवि‍ता है, जो अचानक ही इंटरनेट पर दिख गई, और अच्छी लगी, सो, आप लोग भी इसका आनंद लें...

 

सुपरमैन हैं मेरे पापा...
सुपरमैन हैं मेरे पापा...

अक्सर चीतों से भिड़ जाते...
शेरों से भी न घबराते...
भालू से कुश्ती में जीते...
हाथी तक का दिल दहलाते...
मगरमच्छ का जबड़ा नापा...
सुपरमैन हैं मेरे पापा...

भूत-प्रेत भी उनसे डरते...
सारे उनकी सेवा करते...
सभी चुड़ैलें झाड़ू देतीं...
सारे राक्षस पानी भरते...
उनमें पापा का डर व्यापा...
सुपरमैन हैं मेरे पापा...

आसमान तक सीढ़ी रखते...
खूब दूर तक चढ़ते जाते...
इंद्रलोक में जाकर वह तो...
इंद्रदेव से हाथ मिलाते...
उनसे डर इंद्रासन कांपा...
सुपरमैन हैं मेरे पापा...

वि‍वेक भटनागर जी की इन पंक्तियों को पढ़ने के बाद मेरी फेसबुक मित्र, आदरणीय शरद जोशी जी की पुत्री तथा टीवी अभिनेत्री नेहा शरद ने इस कविता में कुछ जोड़ा, सो, वह भी प्रस्तुत है...

सुपरमैन हैं मेरे पापा...
मम्मी से थोड़ा घबराते...
उनको देख-देख हकलाते...
सिर झुकाकर ऐसे रहते,
जैसे मम्मी से शरमाते...
सुपरमैन हैं मेरे पापा...
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