विशेष नोट : बचपन में पाठ्यपुस्तकों में जिन कवियों को पढ़ाया गया, उनमें रामधारी सिंह 'दिनकर' का नाम प्रमुख है... कविताकोश.ओआरजी (http://www.KavitaKosh.org) पर इस कविता के साथ प्रकाशित कवि परिचय के अनुसार 23 सितम्बर, 1908 को बिहार में बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में जन्मे श्री दिनकर ने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की, तथा साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया... 'राष्ट्रकवि' की उपाधि से सुशोभित तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं... उनका निधन 24 अप्रैल, 1974 को हुआ... यह कविता उनकी कलम से निकली बहुत-सी बेजोड़ रचनाओं में से एक है, जो आज भी प्रासंगिक है...
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गई, शांति से बोलो...?
किसने कहा, और मत वेधो हृदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुमकुम से, कुसुम से, केसर से...?
कुमकुम...? लेपूं किसे...? सुनाऊं किसको कोमल गान...?
तड़प रहा आंखों के आगे, भूखा हिन्दुस्तान...
फूलों के रंगीन लहर पर, ओ उतरने वाले...
ओ रेशमी नगर के वासी, ओ छवि के मतवाले...
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियाला है...
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार...
वह संसार, जहां तक पहुंची अब तक नहीं किरण है,
जहां क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है...
देख जहां का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है,
मां को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है...
पूज रहा है जहां चकित हो, जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में, अटका कहां स्वराज...?
अटका कहां स्वराज...? बोल दिल्ली, तू क्या कहती है...?
तू रानी बन गई, वेदना जनता क्यों सहती है...?
सबके भाग्य दबा रखे हैं, किसने अपने कर में...?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में...
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनी, महावज्र टूटेगा...
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा,
जिसका है ये न्यास, उसे सत्वर पहुंचाना होगा...
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं,
गंगा का पथ रोक, इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं...
कह दो उनसे झुके अगर, तो जग मे यश पाएंगे,
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाएंगे...
समर शेष है, जनगंगा को खुलकर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो...
पथरीली ऊंची जमीन है...? तो उसको तोड़ेंगे,
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे...
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खण्ड-खण्ड हो, गिरे विषमता की काली जंजीर...
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं...
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है...
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल,
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल...
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना,
सावधान हो खड़ी, देश भर में गांधी की सेना...
बलि देकर भी बलि, स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे,
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बांधो रे...
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध...
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गई, शांति से बोलो...?
किसने कहा, और मत वेधो हृदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुमकुम से, कुसुम से, केसर से...?
कुमकुम...? लेपूं किसे...? सुनाऊं किसको कोमल गान...?
तड़प रहा आंखों के आगे, भूखा हिन्दुस्तान...
फूलों के रंगीन लहर पर, ओ उतरने वाले...
ओ रेशमी नगर के वासी, ओ छवि के मतवाले...
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियाला है...
मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार...
वह संसार, जहां तक पहुंची अब तक नहीं किरण है,
जहां क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है...
देख जहां का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है,
मां को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है...
पूज रहा है जहां चकित हो, जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में, अटका कहां स्वराज...?
अटका कहां स्वराज...? बोल दिल्ली, तू क्या कहती है...?
तू रानी बन गई, वेदना जनता क्यों सहती है...?
सबके भाग्य दबा रखे हैं, किसने अपने कर में...?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में...
समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनी, महावज्र टूटेगा...
समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा,
जिसका है ये न्यास, उसे सत्वर पहुंचाना होगा...
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं,
गंगा का पथ रोक, इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं...
कह दो उनसे झुके अगर, तो जग मे यश पाएंगे,
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाएंगे...
समर शेष है, जनगंगा को खुलकर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो...
पथरीली ऊंची जमीन है...? तो उसको तोड़ेंगे,
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे...
समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खण्ड-खण्ड हो, गिरे विषमता की काली जंजीर...
समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं...
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है...
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल,
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल...
तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना,
सावधान हो खड़ी, देश भर में गांधी की सेना...
बलि देकर भी बलि, स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे,
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बांधो रे...
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध...
50-60 साल पहले की कविता भी यही हाल बताती है। पता नहीं कब तक और किस सदी तक जिंदा रहेगी यह कविता।
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