Thursday, December 31, 2009

कुछ ऐसा हो, साल नए में... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : अभी-अभी बैठे-बैठे सूझा, बहुत समय से कुछ नहीं लिखा है, सो, एक कोशिश करता हूं... जो बन पाया, आपके सामने है...

हो साल नया, पर काल वही है,
वही हैं हम, और चाल वही है...
देश वही है, वही है मिट्टी,
पत्ते-पौधे, छाल वही है...

वही हैं खुशियां, ग़म वैसे ही,
शोक और उन्माद वही है...
कितना ही, कोई भी रोके,
मौन वही, संवाद वही है...

कुछ ऐसा हो, साल नए में,
मुझको बदले, बेहतर कर दे...
सबको सब कुछ देता जाऊं,
पाऊं कुछ तब, ऐसा वर दे...

आवाज़ दो, हम एक हैं... (जां निसार अख़्तर)

विशेष नोट : मुझे पूरा विश्वास है कि हम सभी ने इन पंक्तियों को बचपन से अब तक कहीं न कहीं, और कभी न कभी ज़रूर सुना या पढ़ा होगा...

एक है अपना जहां, एक है अपना वतन...
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं...
आवाज़ दो, हम एक हैं...

ये वक़्त खोने का नहीं, ये वक़्त सोने का नहीं...
जागो वतन खतरे में है, सारा चमन खतरे में है...
फूलों के चेहरे ज़र्द हैं, ज़ुल्फ़ें फ़ज़ा की गर्द हैं...
उमड़ा हुआ तूफ़ान है, नरगे में हिन्दोस्तान है...
दुश्मन से नफ़रत फ़र्ज़ है, घर की हिफ़ाज़त फ़र्ज़ है...
बेदार हो, बेदार हो, आमादा-ए-पैकार हो...
आवाज़ दो, हम एक हैं...

ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं...
संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है...
गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट, गोकुल का मन...
गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं...
कह दो, कोई दुश्मन नज़र, उट्ठे न भूले से इधर...
कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं...
आवाज़ दो, हम एक हैं...

उट्ठो जवानाने वतन, बांधे हुए सर से क़फ़न...
उट्ठो दकन की ओर से, गंगो-जमन की ओर से...
पंजाब के दिल से उठो, सतलज के साहिल से उठो...
महाराष्ट्र की ख़ाक से, देहली की अर्ज़े-पाक से...
बंगाल से, गुजरात से, कश्मीर के बागात से...
नेफ़ा से, राजस्थान से, कुल ख़ाके-हिन्दोस्तान से...
आवाज़ दो, हम एक हैं...
आवाज़ दो, हम एक हैं...
आवाज़ दो, हम एक हैं...

मुश्किल लफ़्ज़ों के माने...
पैकार : जंग, युद्ध
अर्ज़े-पाक : पवित्र भूमि

Wednesday, December 30, 2009

लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले... (ज़ौक़)

विशेष नोट : मोहम्मद इब्राहिम 'ज़ौक़' या सिर्फ 'ज़ौक़' के नाम से मशहूर इस शायर का असली नाम शेख़ इब्राहिम था, और यह मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन थे...

लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले...
अपनी ख़ुशी न आए, न अपनी ख़ुशी चले...

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे...
पर क्या करें, जो काम न बे-दिल-लगी चले...

कम होंगे इस बिसात पे, हम जैसे बद-क़िमार...
जो चाल हम चले, सो निहायत बुरी चले...

हो उम्रे-ख़िज़्र भी, तो कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग...
हम क्या रहे यहां, अभी आए, अभी चले...

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ...
तुम भी चले चलो, यूं ही जब तक चली चले...

नाज़ां न हो ख़िरद पे, जो होना है वो ही हो...
दानिश तेरी, न कुछ मेरी दानिशवरी चले...

जाते हवाए-शौक़ में हैं, इस चमन से 'ज़ौक़'...
अपनी बला से बादे-सबा, अब कभी चले...

मुश्किल लफ़्ज़ों के माने...
हयात : ज़िन्दगी
क़ज़ा : मौत
बिसात : जुए के खेल में
बद-क़िमार : कच्चे जुआरी
उम्रे-ख़िज़्र : अमरता
ब-वक़्ते-मर्ग : मौत के वक्त
ख़िरद : बुद्धि
दानिश : समझदारी
हवाए-शौक़ : प्रेम की हवा
बादे-सबा : सुबह की शीतल वायु

Monday, December 28, 2009

ऐ मेरे वतन के लोगों...

विशेष नोट : यह अमर गीत कवि प्रदीप (वास्तविक नाम - रामचंद्र द्विवेदी) ने लिखा था, और भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए भारतीय वीरों को समर्पित इस गीत को संगीतबद्ध किया था सी रामचंद्र ने... भारतकोकिला कही जाने वाली लता मंगेशकर ने वर्ष 1963 के गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के रामलीला मैदान में इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में गाया था... विशेष बात यह है कि इस गीत से जुड़े किसी भी कलाकार या तकनीशियन (गायक, लेखक, संगीत निर्देशक, वाद्ययंत्र बजाने वालों, रिकॉर्डिंग स्टूडियो, साउंड रिकॉर्डिस्ट आदि) ने कोई पारिश्रमिक नहीं लिया था, और बाद में लेखक कवि प्रदीप ने इस गीत की रॉयल्टी भी 'वार विडोज़ फंड' (War Widow Fund) को दे दी थी...

ऐ मेरे वतन के लोगों,
तुम ख़ूब लगा लो नारा...
ये शुभ दिन है हम सबका,
लहरा लो तिरंगा प्यारा...
पर मत भूलो सीमा पर,
वीरों ने हैं प्राण गंवाए...
कुछ याद उन्हें भी कर लो...
कुछ याद उन्हें भी कर लो...
जो लौटके घर न आए...
जो लौटके घर न आए...

ऐ मेरे वतन के लोगों,
ज़रा आंख में भर लो पानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

जब घायल हुआ हिमालय,
ख़तरे में पड़ी आज़ादी...
जब तक थी सांस लड़े वो,
जब तक थी सांस लड़े वो,
फिर अपनी लाश बिछा दी...

संगीन पे धरकर माथा,
सो गए अमर बलिदानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

जब देश में थी दिवाली,
वो खेल रहे थे होली...
जब हम बैठे थे घरों में,
जब हम बैठे थे घरों में,
वो झेल रहे थे गोली...

थे धन्य जवान वो अपने,
थी धन्य वो उनकी जवानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

कोई सिख, कोई जाट-मराठा,
कोई सिख, कोई जाट-मराठा,
कोई गुरखा कोई मदरासी...
कोई गुरखा कोई मदरासी...
सरहद पे मरनेवाला,
सरहद पे मरनेवाला,
हर वीर था भारतवासी...

जो खून गिरा पर्वत पर,
वो खून था हिन्दुस्तानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

थी खून से लथपथ काया,
फिर भी बंदूक उठाके...
दस-दस को एक ने मारा,
फिर गिर गए होश गंवा के...

जब अंत समय आया तो,
कह गए के अब मरते हैं...
खुश रहना, देश के प्यारों,
अब हम तो सफर करते हैं...
अब हम तो सफर करते हैं...

क्या लोग थे वो दीवाने,
क्या लोग थे वो अभिमानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

तुम भूल न जाओ उनको,
इसलिए कही ये कहानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

जय हिन्द, जय हिन्द की सेना...
जय हिन्द, जय हिन्द की सेना...
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द...

Saturday, December 19, 2009

पोल-खोलक यंत्र... (अशोक चक्रधर)

विशेष नोट : मेरे पसंदीदा हास्य कवियों की सूची में एक नाम बेहद अच्छे व्यंग्यकार अशोक चक्रधर का भी है... मज़ेदार बात यह है कि मेरी मां को भी उनकी रचनाएं, और उनसे भी ज़्यादा कवितापाठ करते वक्त उनके चेहरे पर आने वाली मुस्कुराहट पसंद है... वह मेरी पत्नी के अध्यापक भी रहे हैं... उनकी कई रचनाएं कभी दूरदर्शन पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में सुनी हैं... आज उन्हीं की एक रचना आप सबके लिए भी...

ठोकर खाकर हमने,
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई,
कुछ घरघराया...

झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा,
अब यंत्र से,
पत्नी की आवाज़ आई...
मैं तो भर पाई...!
सड़क पर चलने तक का,
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर,
या सली़क़ा नहीं आता...
बीवी साथ है,
यह तक भूल जाते हैं...
और भिखमंगे-नदीदों की तरह,
चीज़ें उठाते हैं...
...इनसे,
इनसे तो,
वो पूना वाला,
इंजीनियर ही ठीक था...
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता,
इस तरह राह चलते,
ठोकर तो न खाता...

हमने सोचा,
यंत्र ख़तरनाक है...!
और यह भी इत्तफ़ाक़ है,
कि हमको मिला है,
और मिलते ही,
पूना वाला गुल खिला है...

और भी देखते हैं,
क्या-क्या गुल खिलते हैं...?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं...

तो हमने एक दोस्त का,
दरवाज़ा खटखटाया...
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया...
दिमाग़ में होने लगी आहट,
कुछ शूं-शूं,
कुछ घरघराहट...
यंत्र से आवाज़ आई,
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को,
नहीं लाया है...

प्रकट में बोला,
ओहो...!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है...!
और सब ठीक है...?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं...?
हमने कहा,
भा... भी... जी...
या छप्पनछुरी गुलबदन...?

वो बोला,
होश की दवा करो श्रीमन्‌,
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो...
भाभीजी के लिए,
कैसे-कैसे शब्दों का,
प्रयोग करते हो...?

हमने सोचा,
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही,
हट रहा है...
सो, फ़ैसला किया,
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी,
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे...

लेकिन अनुभव हुए नए-नए,
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए...
स्वयं नहीं निकले...
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं,
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी,
अभी-अभी सोए हैं...
यंत्र ने बताया,
बिल्कुल नहीं सोए हैं,
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ,
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है...

अगले दिन कॉलिज में,
बीए फ़ाइनल की क्लास में,
एक लड़की बैठी थी,
खिड़की के पास में...
लग रहा था,
हमारा लेक्चर नहीं सुन रही है,
अपने मन में,
कुछ और-ही-और,
गुन रही है...
तो यंत्र को ऑन कर,
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर,
हर्ष की रेखा...
यंत्र से आवाज़ आई,
सर जी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो,
कितने स्मार्ट होते...!

एक सहपाठी,
जो कॉपी पर उसका,
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ,
पिकनिक मना रहा था...
हमने सोचा,
फ़्रायड ने सारी बातें,
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में,
सेक्स के अलावा कुछ नहीं है...

कुछ बातें तो,
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में,
भाषाएं बौनी हैं...

एक बार होटल में,
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे,
वापस लाया,
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले,
यंत्र से आवाज़ आई,
चले आते हैं,
मनहूस, कंजर कहीं के, साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले...
हमने सोचा,
ग़नीमत है,
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले...

ख़ैर साहब...!,
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं...
कभी ज़हर तो कभी,
अमृत के घूंट पिलाए हैं...
वह जो लिपस्टिक और पाउडर में,
पुती हुई लड़की है,
हमें मालूम है,
उसके घर में कितनी कड़की है...!
और वह जो पनवाड़ी है,
यंत्र ने बता दिया,
कि हमारे पान में,
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है...

एक दिन कवि सम्मेलन मंच पर भी,
अपना यंत्र लाए थे,
हमें सब पता था,
कौन-कौन कवि,
क्या-क्या करके आए थे...

ऊपर से वाह-वाह,
दिल में कराह,
अगला हूट हो जाए, पूरी चाह...
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ,
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था...

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया,
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान,
कई कवि मित्र,
एक साथ सोच रहे थे,
अरे, यह तो जम गया...!

चल गई... (शैल चतुर्वेदी)

विशेष नोट : एक और भी हास्य कवि थे, स्वर्गीय शैल चतुर्वेदी, जिनकी यह कविता बचपन में दूरदर्शन पर आते रहने वाले हास्य कवि सम्मेलनों में कई बार सुनी... आज एक वेबसाइट पर दिखी तो आप लोगों के लिए भी अपने ब्लॉग पर ले आया हूं...

वैसे तो एक शरीफ इंसान हूं...
आप ही की तरह श्रीमान हूं...
मगर अपनी आंख से बहुत परेशान हूं...
अपने आप चलती है...
लोग समझते हैं, चलाई गई है...
जान-बूझकर मिलाई गई है...

एक बार बचपन में...
शायद सन पचपन में...
क्लास में...
एक लड़की बैठी थी पास में...
नाम था सुरेखा...
उसने हमें देखा...
और बांई चल गई...
लड़की हाय-हाय...
क्लास छोड़ बाहर निकल गई...

थोड़ी देर बाद...
हमें है याद...
प्रिंसिपल ने बुलाया...
लंबा-चौड़ा लेक्चर पिलाया...
हमने कहा, जी, भूल हो गई...
वो बोले, ऐसा भी होता है भूल में...
शर्म नहीं आती,
ऐसी गंदी हरकतें करते हो,
स्कूल में...
और इससे पहले कि,
हकीकत बयान करते...
कि फिर चल गई...
प्रिंसिपल को खल गई...
हुआ यह परिणाम...
कट गया नाम...

बमुश्किल तमाम...
मिला एक काम...
इंटरव्यू में, खड़े थे क्यू में...
एक लड़की थी सामने अड़ी...
अचानक मुड़ी...
नजर उसकी हम पर पड़ी...
और आंख चल गई...
लड़की उछल गई...
दूसरे उम्मीदवार चौंके...
उस लडकी की साइड लेकर...
हम पर भौंके...

फिर क्या था...
मार-मार जूते-चप्पल...
फोड़ दिया बक्कल...
सिर पर पांव रखकर भागे...
लोग-बाग पीछे, हम आगे...
घबराहट में घुस गए एक घर में...
भयंकर पीड़ा थी सिर में...
बुरी तरह हांफ रहे थे...
मारे डर के कांप रहे थे...
तभी पूछा उस गृहिणी ने...
कौन...?
हम खड़े रहे मौन...
वो बोली,
बताते हो या किसी को बुलाऊं...?
और उससे पहले...
कि जबान हिलाऊं...
चल गई...

वह मारे गुस्से के...
जल गई...
साक्षात दुर्गा-सी दीखी...
बुरी तरह चीखी...
बात की बात में...
जुड़ गए अड़ोसी-पड़ोसी...
मौसा-मौसी...
भतीजे-मामा...
मच गया हंगामा...
चड्डी बना दिया हमारा पजामा...
बनियान बन गया कुर्ता...
मार-मार बना दिया भुरता...

हम चीखते रहे...
और पीटने वाले...
हमें पीटते रहे...
भगवान जाने कब तक...
निकालते रहे रोष...
और जब हमें आया होश...
तो देखा, अस्पताल में पड़े थे...
डाक्टर और नर्स घेरे खड़े थे...

हमने अपनी एक आंख खोली...
तो एक नर्स बोली...
दर्द कहां है...?
हम कहां-कहां बताते...
और इससे पहले कि कुछ कह पाते...
चल गई...

नर्स कुछ नहीं बोली...
बाई गॉड... (चल गई)
मगर डाक्टर को खल गई...
बोला, इतने सीरियस हो...
फिर भी ऐसी हरकत,
कर लेते हो इस हाल में...
शर्म नहीं आती मोहब्बत करते हुए,
अस्पताल में...?

उन सबके जाते ही आया वार्ड-बॉय...
देने लगा अपनी राय...
भाग जाएं चुपचाप...
नहीं जानते आप...
बढ़ गई है बात...
डाक्टर को गड़ गई है...
केस आपका बिगड़वा देगा...
न हुआ तो मरा बताकर...
जिंदा ही गड़वा देगा...

तब अंधेरे में आंखें मूंदकर...
खिड़की से कूदकर भाग आए...
जान बची तो लाखों पाए...

एक दिन सकारे...
बाप जी हमारे...
बोले हमसे,
अब क्या कहें तुमसे...?
कुछ नहीं कर सकते,
तो शादी कर लो...
लड़की देख लो...
मैंने देख ली है,
जरा हैल्थ की कच्ची है...
बच्ची है, फिर भी अच्छी है...
जैसी भी, आखिर लड़की है...
बड़े घर की है...
फिर बेटा,
यहां भी तो कड़की है...

हमने कहा,
जी, अभी क्या जल्दी है...?
वह बोले,
गधे हो...
ढाई मन के हो गए,
मगर बाप के सीने पर लदे हो...
वह घर फंस गया तो संभल जाओगे...

तब एक दिन भगवान से मिलके...
धड़कता दिल ले...
पहुंच गए रुड़की,
देखने लड़की...
शायद हमारी होने वाली सास...
बैठी थी हमारे पास...
बोली, यात्रा में तकलीफ तो नहीं हुई...
और आंख मुई चल गई...

वह समझी कि मचल गई...
बोली, लड़की तो अंदर है...
मैं लड़की की मां हूं...
लड़की को बुलाऊं...
और इससे पहले कि मैं जुबान हिलाऊं...
आंख चल गई दुबारा...
उन्होंने किसी का नाम ले पुकारा...
झटके से खड़ी हो गईं...

हम जैसे गए थे, लौट आए...
घर पहुंचे मुंह लटकाए...
पिता जी बोले,
अब क्या फायदा,
मुंह लटकाने से...
आग लगे ऐसी जवानी में,
डूब मरो चुल्लू भर पानी में...
नहीं डूब सकते तो आंखें फोड़ लो...
नहीं फोड़ सकते हमसे नाता ही तोड़ लो...
जब भी कहीं जाते हो,
पिटकर ही आते हो...
भगवान जाने कैसे चलाते हो...?

अब आप ही बताइए,
क्या करूं...?
कहां जाऊं...?
कहां तक गुन गाऊं,
अपनी इस आंख के...
कमबख्त जूते खिलवाएगी,
लाख-दो-लाख के...
अब आप ही संभालिए...
मेरा मतलब है कि कोई रास्ता निकालिए...
जवान हो या वृद्धा,
पूरी हो या अद्धा...
केवल एक लड़की...
जिसकी एक आंख चलती हो...
पता लगाइए...
और मिल जाए तो,
हमारे आदरणीय 'काका' जी को बताइए...

Friday, December 18, 2009

कलम, आज उनकी जय बोल... (रामधारी सिंह 'दिनकर')

विशेष नोट : यह कविता स्कूल की किताबों में नहीं, शौक की वजह से कहीं और पढ़ी थी... इस तरह की कविताएं हमेशा से पसंद आती रही हैं, सो, आज एक किताब में दिखी तो आप लोगों के लिए भी टाइप कर दी है...

जला अस्थियां बारी-बारी,
चिटकाई जिनमें चिंगारी...
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...

जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे...
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...

पीकर जिनकी लाल शिखाएं,
उगल रही सौ लपट दिशाएं...
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...

अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा...
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...

Thursday, December 10, 2009

मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों, एक किस्सा सुनो... (मिस्टर नटवरलाल)

विशेष नोट : यह गीत मुझे बचपन में बेहद अच्छा लगता था, सो, सोचता हूं, बेटे के लिए याद कर लूं...

फिल्म - मिस्टर नटवरलाल
पार्श्वगायक - अमिताभ बच्चन (यह पार्श्वगायक के रूप में अमिताभ बच्चन का पहला प्रयास था...)
संगीतकार - राजेश रोशन
गीतकार - आनन्द बख्शी

आओ बच्चों, आज तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं मैं...
शेर की कहानी सुनोगे... आजा मुन्ना हम्म...

मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों, एक किस्सा सुनो...
मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों, एक किस्सा सुनो...

कई साल पहले की ये बात है...

बोलो न... चुप क्यों हो गए...

भयानक अन्धेरी सियाह रात में,
लिए अपनी बन्दूक मैं हाथ में...
घने जंगलों से गुजरता हुआ कहीं जा रहा था...
घने जंगलों से गुजरता हुआ कहीं जा रहा था...
जा रहा था...
नहीं... आ रहा था...
नहीं... जा रहा था...

ओफ्फो... आगे भी तो बोलो न...

बताता हूं... बताता हूं...
नहीं भूलती, उफ्फ, वो जंगल की रात...
मुझे याद है, वो थी मंगल की रात...
चला जा रहा था, मैं डरता हुआ...
हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ...

बोलो हनुमान की जय...
हो जय जय, बजरंग बली की जय...
हां बोलो, हनुमान की जय...
हो जय जय, बजरंग बली की जय...

घड़ी थी, अन्धेरा मगर सख्त था...
कोई दस-सवा दस का वक्त था...
लरजता था कोयल की भी कूक से...
बुरा हाल हुआ उसपे भूख से...
लगा तोड़ने एक बेरी से बेर...
मेरे सामने आ गया एक शेर...

मेरी घिग्घी बंध गई, नजर फिर गई...
फिर तो बन्दूक भी हाथ से गिर गई...
मैं लपका... वो झपटा...
मैं ऊपर, वो नीचे...
वो आगे... मैं पीछे...
मैं पेड़ पे, वो नीचे...
अरे, बचाओ... अरे, बचाओ...
मैं डाल-डाल, वो पात-पात...
मैं पसीना, वो बाग-बाग...
मैं सुर में, वो ताल में...
ये जंगल, पाताल में...
बचाओ... बचाओ...
अरे, भागो रे भागो...

फिर क्या हुआ...

खुदा की कसम, मज़ा आ गया...
मुझे मारकर, बेसरम खा गया...
खा गया... लेकिन आप तो ज़िन्दा हैं...
अरे, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू...
हम्म...
ल... ल... ल... र... ल... ल...

ऐ मेरे प्यारे वतन... (काबुलीवाला)

विशेष नोट : भजनों और संस्कृत श्लोकों के अतिरिक्त जो मुझे बेहद पसंद है, वह देशभक्ति गीत हैं... और मुझे खुशी होती है कि मैं उन लोगों में से हूं, जो इन गीतों को सिर्फ 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) पर ही नहीं, सारे साल लगभग रोज़ ही सुनता हूं... सो, एक ऐसा ही गीत आपके लिए भी...

फिल्म - काबुलीवाला
पार्श्वगायक - मन्ना डे
संगीतकार - सलिल चौधरी
गीतकार - प्रेम धवन

ऐ मेरे प्यारे वतन... ऐ मेरे बिछड़े चमन...
तुझपे दिल कुर्बान...
तू ही मेरी आरज़ू... तू ही मेरी आबरू...
तू ही मेरी जान...

मां का दिल बनके कभी, सीने से लग जाता है तू...
और कभी नन्ही-सी बेटी, बनके याद आता है तू...
जितना याद आता है मुझको, उतना तड़पाता है तू...
तुझपे दिल कुर्बान...

तेरे दामन से जो आए, उन हवाओं को सलाम...
चूम लूं मैं उस ज़ुबां को, जिसपे आए तेरा नाम...
सबसे प्यारी सुबह तेरी, सबसे रंगीं तेरी शाम...
तुझपे दिल कुर्बान...

छोड़कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हम...
है मगर ये ही तमन्ना, तेरे ज़र्रों की कसम...
जिस जगह पैदा हुए थे, उस जगह ही निकले दम...
तुझपे दिल कुर्बान...

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं... (लीडर)

विशेष नोट : भजनों और संस्कृत श्लोकों के अतिरिक्त जो मुझे बेहद पसंद है, वह देशभक्ति गीत हैं... और मुझे खुशी होती है कि मैं उन लोगों में से हूं, जो इन गीतों को सिर्फ 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) पर ही नहीं, सारे साल लगभग रोज़ ही सुनता हूं... सो, एक ऐसा ही गीत आपके लिए भी...

फिल्म - लीडर
पार्श्वगायक - मोहम्मद रफी
संगीतकार - नौशाद
गीतकार - शकील बदायूंनी

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं,
सर कटा सकते हैं लेकिन, सर झुका सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

हमने सदियों में ये आज़ादी की नेमत पाई है,
हमने ये नेमत पाई है...
सैकड़ों कुर्बानियां देकर ये दौलत पाई है,
हमने ये दौलत पाई है...
मुस्कुराकर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियां,
सीनों पे अपने गोलियां...
कितने वीरानों से गुज़रे हैं तो जन्नत पाई है...
ख़ाक में हम अपनी इज़्ज़त को मिला सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

क्या चलेगी ज़ुल्म की, अहले वफ़ा के सामने,
अहले वफ़ा के सामने...
आ नहीं सकता कोई, शोला हवा के सामने,
शोला हवा के सामने...
लाख फ़ौजें ले के आए, अमन का दुश्मन कोई,
रुक नहीं सकता हमारी एकता के सामने...
हम वो पत्थर हैं जिसे, दुश्मन हिला सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

वक़्त की आवाज़ के, हम साथ चलते जाएंगे,
हम साथ चलते जाएंगे...
हर क़दम पर ज़िन्दगी का, रुख बदलते जाएंगे,
हम रुख़ बदलते जाएंगे...
’गर वतन में भी मिलेगा, कोई गद्दारे वतन,
जो कोई गद्दारे वतन...
अपनी ताकत से हम उसका सर कुचलते जाएंगे...
एक धोखा खा चुके हैं, और खा सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

हम वतन के नौजवां हैं, हमसे जो टकराएगा,
हमसे जो टकराएगा...
वो हमारी ठोकरों से ख़ाक में मिल जाएगा,
ख़ाक में मिल जाएगा...
वक़्त के तूफ़ान में बह जाएंगे ज़ुल्मो-सितम...
आसमां पर ये तिरंगा उम्र भर लहराएगा,
उम्र भर लहराएगा...
जो सबक बापू ने सिखलाया, भुला सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं,
सर कटा सकते हैं लेकिन, सर झुका सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

Thursday, December 03, 2009

खिलौनेवाला (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : हाल ही में मेरी मौसी मेरे बेटे को कुछ कविताएं सिखा रही थीं, सो, अपनी पढ़ी कुछ कविताएं याद हो आईं... सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित यह कविता उन्हीं में से एक है...

वह देखो मां आज, खिलौनेवाला फिर से आया है...
कई तरह के सुंदर-सुंदर, नए खिलौने लाया है...

हरा-हरा तोता पिंजरे में, गेंद एक पैसे वाली...
छोटी-सी मोटर गाड़ी है, सर-सर-सर चलने वाली...

सीटी भी है कई तरह की, कई तरह के सुंदर खेल...
चाभी भर देने से, भक-भक करती, चलने वाली रेल...

गुड़िया भी है बहुत भली-सी, पहने कानों में बाली...
छोटा-सा 'टी सेट' है, छोटे-छोटे हैं लोटा-थाली...

छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं, हैं छोटी-छोटी तलवार...
नए खिलौने ले लो भैया, ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार...

मुन्‍नू ने गुड़िया ले ली है, मोहन ने मोटरगाड़ी...
मचल-मचल सरला करती है, मां से लेने को साड़ी...

कभी खिलौनेवाला भी मां, क्‍या साड़ी ले आता है...
साड़ी तो वह कपड़े वाला, कभी-कभी दे जाता है...

अम्‍मा तुमने तो लाकर के, मुझे दे दिए पैसे चार...
कौन खिलौने लेता हूं मैं, तुम भी मन में करो विचार...

तुम सोचोगी मैं ले लूंगा, तोता, बिल्‍ली, मोटर, रेल...
पर मां, यह मैं कभी न लूंगा, ये तो हैं बच्‍चों के खेल...

मैं तो तलवार खरीदूंगा मां, या मैं लूंगा तीर-कमान...
जंगल में जा, किसी ताड़का, को मारूंगा राम समान...

तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों को, मैं मार भगाऊंगा...
यों ही कुछ दिन करते-करते रामचंद्र बन जाऊंगा...

यही रहूंगा, कौशल्‍या मैं तुमको, यहीं बनाऊंगा...
तुम कह दोगी वन जाने को, हंसते-हंसते जाऊंगा...

पर मां, बिना तुम्‍हारे वन में, मैं कैसे रह पाऊंगा...
दिन भर घूमूंगा जंगल में, लौट कहां पर आऊंगा...

किससे लूंगा पैसे, रूठूंगा तो कौन मना लेगा...
कौन प्‍यार से बिठा गोद में, मनचाही चींज़ें देगा...

Wednesday, December 02, 2009

कौन सिखाता है चिड़ियों को... (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)

विशेष नोट : हाल ही में मेरी मौसी मेरे बेटे को कुछ कविताएं सिखा रही थीं, सो, अपनी पढ़ी कुछ कविताएं याद हो आईं... द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी द्वारा रचित यह कविता उन्हीं में से एक है...

कौन सिखाता है चिड़ियों को, चीं-चीं, चीं-चीं करना...?
कौन सिखाता फुदक-फुदककर, उनको चलना-फिरना...?

कौन सिखाता फुर से उड़ना, दाने चुग-चुग खाना...?
कौन सिखाता तिनके ला-लाकर घोंसले बनाना...?

कौन सिखाता है बच्चों का, लालन-पालन उनको...?
मां का प्यार, दुलार, चौकसी कौन सिखाता उनको...?

कुदरत का यह खेल, वही हम सबको, सब कुछ देती...
किन्तु नहीं बदले में हमसे, वह कुछ भी है लेती...

हम सब उसके अंश कि जैसे तरु-पशु–पक्षी सारे...
हम सब उसके वंशज, जैसे सूरज-चांद-सितारे...

Thursday, September 10, 2009

मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला... (बशीर बद्र)

विशेष नोट : आजकल के शायरों में बशीर बद्र की कलम मुझे पसंद आती है... सो, उनकी यह ग़ज़ल आपकी नज़र कर रहा हूं...

मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला,
अगर गले नहीं मिलता, तो हाथ भी न मिला...

घरों पे नाम थे, नामों के साथ ओहदे थे,
बहुत तलाश किया, कोई आदमी न मिला...

तमाम रिश्तों को मैं, घर में छोड़ आया था,
फिर इसके बाद मुझे, कोई अजनबी न मिला...

ख़ुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैंने,
बस एक शख़्स को मांगा, मुझे वही न मिला...

बहुत अजीब है ये कुरबतों की दूरी भी,
वो मेरे साथ रहा, और मुझे कभी न मिला...

यूं ही बेसबब न फिरा करो... (बशीर बद्र)

विशेष नोट : आजकल के शायरों में बशीर बद्र की कलम मुझे पसंद आती है... सो, उनकी यह ग़ज़ल आपकी नज़र कर रहा हूं...

यूं ही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो,
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो...

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो...

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा, कोई जाएगा,
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो...

मुझे इश्तिहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियां,
जो कहा नहीं, वो सुना करो, जो सुना नहीं, वो कहा करो...

ये ख़िज़ां की ज़र्द-सी शाल में, जो उदास पेड़ के पास है,
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो...

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा... (बशीर बद्र)

विशेष नोट : आजकल के शायरों में बशीर बद्र की कलम मुझे पसंद आती है... सो, उनकी यह ग़ज़ल आपकी नज़र कर रहा हूं...

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा,
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा...

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है,
जिस तरफ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा...

कितनी सच्चाई से मुझसे, ज़िन्दगी ने कह दिया,
तू नहीं मेरा तो कोई दूसरा हो जाएगा...

मैं खुदा का नाम लेकर, पी रहा हूं दोस्तों,
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा...

सब उसी के हैं, हवा, ख़ुशबू, ज़मीन-ओ-आसमां,
मैं जहां भी जाऊंगा, उसको पता हो जाएगा...

Wednesday, August 19, 2009

इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के...

विशेष नोट : भजनों और संस्कृत श्लोकों के अतिरिक्त जो मुझे बेहद पसंद है, वह देशभक्ति गीत हैं... और मुझे खुशी होती है कि मैं उन लोगों में से हूं, जो इन गीतों को सिर्फ 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) पर ही नहीं, सारे साल लगभग रोज़ ही सुनता हूं... सो, कवि प्रदीप द्वारा लिखा एक ऐसा ही गीत आपके लिए भी...

फिल्म - गंगा जमुना
पार्श्वगायक - हेमंत कुमार
संगीतकार - नौशाद
गीतकार - कवि प्रदीप (वास्तविक नाम - रामचंद्र द्विवेदी)

इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के,
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के...

दुनिया के रंज सहना, और कुछ न मुंह से कहना,
सच्चाइयों के बल पे, आगे को बढ़ते रहना...

रख दोगे एक दिन तुम, संसार को बदल के...
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के,
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के...

अपने हों या पराए, सबके लिए हो न्याय,
देखो कदम तुम्हारा, हरगिज़ न डगमगाए...

रस्ते बड़े कठिन हैं, चलना सम्भल-सम्भल के...
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के,
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के...

इन्सानियत के सिर पे, इज़्ज़त का ताज रखना,
तन-मन की भेंट देकर, भारत की लाज रखना...

जीवन नया मिलेगा, अंतिम चिता में जल के...
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के,
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के...

आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं, झांकी हिन्दुस्तान की...

विशेष नोट : भजनों और संस्कृत श्लोकों के अतिरिक्त जो मुझे बेहद पसंद है, वह देशभक्ति गीत हैं... और मुझे खुशी होती है कि मैं उन लोगों में से हूं, जो इन गीतों को सिर्फ 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) पर ही नहीं, सारे साल लगभग रोज़ ही सुनता हूं... सो, कवि प्रदीप द्वारा लिखा एक ऐसा ही गीत आपके लिए भी...

फिल्म - जागृति
पार्श्वगायक - मोहम्मद रफी
संगीतकार - हेमंत कुमार
गीतकार - कवि प्रदीप (वास्तविक नाम - रामचंद्र द्विवेदी)

आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं, झांकी हिन्दुस्तान की,
इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की...
वन्दे मातरम्... वन्दे मातरम्...

उत्तर में रखवाली करता, पर्वतराज विराट है,
दक्षिण में चरणों को धोता, सागर का सम्राट है,
जमुना जी के तट को देखो, गंगा का ये घाट है,
बाट-बाट पे, हाट-हाट में, यहां निराला ठाठ है...

देखो ये तस्वीरें, अपने गौरव की, अभिमान की...
इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की...
वन्दे मातरम्... वन्दे मातरम्...

ये है अपना राजपूताना, नाज़ इसे तलवारों पे,
इसने सारा जीवन काटा, बरछी, तीर, कटारों पे,
ये प्रताप का वतन पला है, आज़ादी के नारों पे,
कूद पड़ी थीं यहां हज़ारों, पद्‍मिनियां अंगारों पे...

बोल रही है कण-कण में, कुरबानी राजस्थान की...
इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की...
वन्दे मातरम्... वन्दे मातरम्...

देखो मुल्क मराठों का ये, यहां शिवाजी डोला था,
मुग़लों की ताकत को जिसने, तलवारों पे तोला था,
हर पर्वत पे आग लगी थी, हर पत्थर एक शोला था,
बोली हर-हर महादेव की, बच्चा-बच्चा बोला था...

वीर शिवाजी ने रखी थी, लाज हमारी शान की...
इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की...
वन्दे मातरम्... वन्दे मातरम्...

जलियां वाला बाग ये देखो, यहीं चली थीं गोलियां,
ये मत पूछो किसने खेली, यहां खून की होलियां,
एक तरफ़ बंदूकें दन-दन, एक तरफ थी टोलियां,
मरने वाले बोल रहे थे, इन्क़लाब की बोलियां...

यहां लगा दी बहनों ने भी, बाज़ी अपनी जान की...
इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की...
वन्दे मातरम्... वन्दे मातरम्...

ये देखो बंगाल, यहां का हर चप्पा हरियाला है,
यहां का बच्चा-बच्चा, अपने देश पे मरने वाला है,
ढाला है इसको बिजली ने, भूचालों ने पाला है,
मुट्ठी में तूफ़ान बंधा है, और प्राणों में ज्वाला है...

जन्मभूमि है यही हमारे, वीर सुभाष महान की...
इस मिट्टी से तिलक करो, ये धरती है बलिदान की...
वन्दे मातरम्... वन्दे मातरम्...

हम लाए हैं तूफ़ान से, किश्ती निकाल के...

विशेष नोट : भजनों और संस्कृत श्लोकों के अतिरिक्त जो मुझे बेहद पसंद है, वह देशभक्ति गीत हैं... और मुझे खुशी होती है कि मैं उन लोगों में से हूं, जो इन गीतों को सिर्फ 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) पर ही नहीं, सारे साल लगभग रोज़ ही सुनता हूं... सो, कवि प्रदीप द्वारा लिखा एक ऐसा ही गीत आपके लिए भी...

फिल्म - जागृति
पार्श्वगायक - मोहम्मद रफी
संगीतकार - हेमंत कुमार
गीतकार - कवि प्रदीप (वास्तविक नाम - रामचंद्र द्विवेदी)

पासे सभी उलट गए, दुश्मन की चाल के,
अक्षर सभी पलट गए, भारत के भाल के,
मंज़िल पे आया मुल्क, हर बला को टाल के,
सदियों के बाद फिर उड़े, बादल गुलाल के...

हम लाए हैं तूफ़ान से, किश्ती निकाल के,
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

तुम ही भविष्य हो, मेरे भारत विशाल के,
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

देखो कहीं बरबाद न होवे, ये बगीचा,
इसको हृदय के खून से, बापू ने है सींचा,
रक्खा है ये चिराग, शहीदों ने बाल के...
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

हम लाए हैं तूफ़ान से, किश्ती निकाल के,
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

दुनिया के दांव-पेंच से, रखना न वास्ता,
मंज़िल तुम्हारी दूर है, लंबा है रास्ता,
भटका न दे कोई तुम्हें, धोखे में डाल के...
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

हम लाए हैं तूफ़ान से, किश्ती निकाल के,
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

एटमबमों के ज़ोर पे, ऐंठी है ये दुनिया,
बारूद के इक ढेर पे, बैठी है ये दुनिया,
तुम हर कदम उठाना, जरा देखभाल के...
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

हम लाए हैं तूफ़ान से, किश्ती निकाल के,
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

आराम की तुम, भूलभूलैया में न भूलो,
सपनों के हिन्डोलों में, मगन हो के न झूलो,
अब वक़्त आ गया, मेरे हंसते हुए फूलों,
उठो, छलांग मार के, आकाश को छू लो...
आकाश को छू लो...
तुम गाड़ दो गगन में, तिरंगा उछाल के...
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

हम लाए हैं तूफ़ान से, किश्ती निकाल के,
इस देश को रखना, मेरे बच्चों संभाल के...

दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग, बिना ढाल...

विशेष नोट : भजनों और संस्कृत श्लोकों के अतिरिक्त जो मुझे बेहद पसंद है, वह देशभक्ति गीत हैं... और मुझे खुशी होती है कि मैं उन लोगों में से हूं, जो इन गीतों को सिर्फ 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) पर ही नहीं, सारे साल लगभग रोज़ ही सुनता हूं... सो, कवि प्रदीप द्वारा लिखा एक ऐसा ही गीत आपके लिए भी...


फिल्म - जागृति
पार्श्वगायिका - लता मंगेशकर
संगीतकार - हेमंत कुमार
गीतकार - कवि प्रदीप (वास्तविक नाम - रामचंद्र द्विवेदी)

दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग, बिना ढाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...

आंधी में भी जलती रही, गांधी तेरी मशाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...

धरती पे लड़ी, तूने अजब ढब की लड़ाई,
दागी न कहीं तोप, न बंदूक चलाई,
दुश्मन के किले पर भी, न की तूने चढ़ाई,
वाह रे फकीर, खूब करामात दिखाई...

चुटकी में दुश्मनों को दिया, देश से निकाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...

दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग, बिना ढाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...
रघुपति राघव राजा राम...

शतरंज बिछाकर यहां, बैठा था ज़माना,
लगता था कि मुश्किल है, फिरंगी को हराना,
टक्कर थी बड़े ज़ोर की, दुश्मन भी था दाना,
पर तू भी था बापू, बड़ा उस्ताद पुराना...

मारा वो कसके दांव कि उलटी सभी की चाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...

दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग, बिना ढाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...
रघुपति राघव राजा राम...

जब-जब तेरा बिगुल बजा, जवान चल पड़े,
मज़दूर चल पड़े थे, और किसान चल पड़े,
हिन्दू औ' मुसलमान, सिख-पठान चल पड़े,
कदमों पे तेरे, कोटि-कोटि प्राण चल पड़े...

फूलों की सेज छोड़के, दौड़े जवाहर लाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...

दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग, बिना ढाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...
रघुपति राघव राजा राम...

मन में थी अहिंसा की लगन, तन पे लंगोटी,
लाखों में घूमता था, लिए सत्य की सोटी,
वैसे तो देखने में थी, हस्ती तेरी छोटी,
लेकिन तुझे झुकती थी, हिमालय की भी चोटी...

दुनिया में तू बेजोड़ था, इन्सान बेमिसाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...

दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग, बिना ढाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...
रघुपति राघव राजा राम...

जग में कोई जिया है तो बापू, तू ही जिया,
तूने वतन की राह पे, सब कुछ लुटा दिया,
मांगा न कोई तख्त, न तो ताज ही लिया,
अमृत दिया सभी को, मगर खुद ज़हर पिया...

जिस दिन तेरी चिता जली, रोया था महाकाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...

दे दी हमें आज़ादी, बिना खड्ग, बिना ढाल,
साबरमती के सन्त, तूने कर दिया कमाल...
रघुपति राघव राजा राम...
रघुपति राघव राजा राम...

Saturday, August 15, 2009

शिव आए यशोदा के द्वार... (भजन)

विशेष नोट : नानीजी की डायरी से...

 शिव आए यशोदा के द्वार, मात मोहे दर्शन करा...
मेरा सोया पड़ा है कुमार, बाबा तू भीख ले के जा...

कैलाश पर्वत से आया हूं माता, घर तेरे जन्मा है जग का विधाता,
आंगन में छा रही बहार, मात मोहे दर्शन करा...

मुश्किल से बाबा ये दिन आज आया, बीती उमरिया में बेटा है पाया,
मेरे प्राणों का है ये आधार, बाबा तू भीख ले के जा...

गल तेरे बाबा है मुण्डों की माला, डर जाएगा देख ये मेरो लाला,
ज़िद नाहीं कर तू बेकार, बाबा तू भीख ले के जा...

जिसको समझती है बेटा तू अपना, वो तो है सारे जगत का विधाता,
मेरा है जीवन आधार, मात मोहे दर्शन करा...

जिससे तो डरता है संसार सारा, उसको डराऊंगा क्या मैं बिचारा,
मेरे प्राणों का है वो आधार, मात मोहे दर्शन करा...

डरती हुई माता भीतर से आई, गोदी में अपने कन्हाई को लाई,
देवों ने जय-जय कहा, मात मोहे दर्शन करा...

शिवजी को देखत कृष्णा मुस्काए, मन ही मन में शीश नवाए,
जीवन को सफल बना, मात मोहे दर्शन करा...

Sunday, August 02, 2009

आह्वान गीत (राम अवतार रस्तोगी 'शैल')

विशेष नोट : अधिकतर बच्चों की तरह मेरे आदर्श भी मेरे पिता ही रहे हैं... सरकारी नौकरी छोड़कर मेरे पत्रकार बन जाने की एकमात्र वजह भी यही थी कि वह पत्रकार थे... अपने कॉलेज के समय में वह कविता भी किया करते थे, सो, आज उनकी डायरी से एक कविता आप सबके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं... यह कविता दरअसल वर्ष 1962 में चीन द्वारा हमला किए जाने पर लिखा एक गीत है... बाद में हिन्दी भाषा विभाग, पटियाला द्वारा जिलास्तरीय कविता उच्चारण प्रतियोगिता में इसे द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया...

आज तक तो मैं प्रणय के गीत ही गाता रहा हूं...
कौन क्यों कितना मुझे प्रिय बस सुनाता भर रहा हूं...

पर न जाने आज क्योंकर मैं नहीं गा पा रहा हूं...
गीत बदले साथ स्वर के, स्वयं बदला जा रहा हूं...

आज मेरे दीन स्वर का दैन्य मुझको खल रहा है...
वीरता के गान में अब मैं उसे बदला रहा हूं...
आज मेरी हर दिशा से स्वर यही उठ पा रहा है...
तोड़ वीणा लो उठा कवि, भैरवी मैं गा रहा हूं...

पर न जाने आज क्योंकर मैं नहीं गा पा रहा हूं...
गीत बदले साथ स्वर के, स्वयं बदला जा रहा हूं...

आज मेरे देश का हर नागरिक यह कह रहा है...
मैं धरा पर स्वर्ग लख कर, मौन ही रहता रहा हूं...
पर शान्ति का आह्वान मुझको व्यर्थ अब लगने लगा है...
युद्ध का उपहार अभिनव, जग को दिलाने आ रहा हूं...

पर न जाने आज क्योंकर मैं नहीं गा पा रहा हूं...
गीत बदले साथ स्वर के, स्वयं बदला जा रहा हूं...

जा रहा छूने गगन को वह हिमालय कह रहा है...
बर्फ से दबता हुआ भी, आग में जलता रहा हूं...
पिट गया हूं दोस्ती में, अब मगर ऐसा नहीं है...
दोस्त-दुश्मन की मैं अब पहचान करता जा रहा हूं...

पर न जाने आज क्योंकर मैं नहीं गा पा रहा हूं...
गीत बदले साथ स्वर के, स्वयं बदला जा रहा हूं...

न्याय के साथी सदा के, अन्याय हमको खल रहा है...
इंच भर भूमि किसी की, दाब लें, इच्छा नहीं है...
पर तनिक भी आ गई अपनी अगर दुश्मन तले तो...
स्वत्व के हित लड़ मरेंगे, मैं तुम्हें जतला रहा हूं...

पर न जाने आज क्योंकर मैं नहीं गा पा रहा हूं...
गीत बदले साथ स्वर के, स्वयं बदला जा रहा हूं...

जा चुका विश्वास वह तो, लौटकर आना नहीं है...
पर क्षम्य तुम, बस! लौट जाओ, मैं तुम्हें चेता रहा हूं...
सिंह सोतों को जगाया, चीन तुमने गलतियों से...
भूल गए वे रक्त-प्रिय हैं, मैं तुम्हें बतला रहा हूं...

पर न जाने आज क्योंकर मैं नहीं गा पा रहा हूं...
गीत बदले साथ स्वर के, स्वयं बदला जा रहा हूं...

याद होगा यदि नहीं, इतिहास कब से कह रहा है...
आक्रमण कर चीन का सम्राट अब तक रो रहा है...
साम्यवादी चीनियों लेकर सबक तुम उस सबक से...
लौट जाओ चीन को अब, मैं तुम्हें समझा रहा हूं...

पर न जाने आज क्योंकर मैं नहीं गा पा रहा हूं...
गीत बदले साथ स्वर के, स्वयं बदला जा रहा हूं...

Saturday, July 18, 2009

कभी मेरे अंदर भी एक शायर था... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : एक वक्त था, जब मैं भी अपने दादाजी, ताऊजी और पिता की तरह अपने अंदर के कवि (और शायद शायर भी) से परिचय बना रहा था... बहुत समय से सोच रहा था कि आप सबको भी बताऊं कि मैं कितना 'बेकार' शायर हुआ करता था... लेकिन फिर सोचा, अशार (शेर) कैसे भी हों, भाव तो आप लोगों के साथ बांट ही सकता हूं, सो, पेश हैं मेरे लिखे कुछ अशार...

न मिल पाई दवा कोई, उन हिकमत की किताबों में...
ये अलामत है तग़ाफ़ुल, औ' नज़र दरकार है...
(दिसम्बर 9, 2009)

तेरे दिल में हैं बैठे जो, ग़मों को दूर कर दूंगा...
फ़कत इक बार मुझको दिल से अपना मान लेना तू...
(27 अगस्त, 2009)

तेरे चेहरे का खिलना देखना काफी नहीं रहा...
सुनाई दे जो कुछ दिल की हंसी, तो बात बने...
(27 अगस्त, 2009)

होंठों पे हंसी हो तो मेरे काम की नहीं...
मैं तेरी आंखों में खुशी देखना चाहूं...
(27 अगस्त, 2009)

होंठों पे हंसी हो तो मेरे काम की नहीं...
मुस्कुराहट वो, जो आंखों से झलके है...
(27 अगस्त, 2009)

रस्मे-दुनिया से तो मैं काफ़िर ही कहा जाऊंगा,
बुतपरस्ती न सही, तेरे सामने सजदा किया...
(1 फरवरी, 1996)

ताहयात याद तेरी साथ रही, शाद था,
आज मैं डरता हूं, जो, आई क़ज़ा, तो होगा क्या...
(2 फरवरी, 1996)

ग़ुरबत में तेरी, ग़िज़ा मेरी, हो गई सबसे जुदा,
मुट्ठी ग़म है खाने को, औ' प्याला आंसू पीने को...
(2 फरवरी, 1996)

तिरे रूठे से, मिरी जान चली जाएगी, सोचा किए,
प्यार से मुझे तूने देखा, जान तो फिर भी गई...
(3 फरवरी, 1996)

जब तक न मुझको छोड़ दे तू, मैं करूं कैसे गिला,
दिल के भीतर ही सही, मेरे साथ तो रहती है तू...
(5 फरवरी, 1996)

तेरी क़ुरबत और ग़ुरबत, हो गई हैं एक सी,
लगे है ख़्वाब तू आए, जो आए ख़्वाब तू आए...
(6 फरवरी, 1996)

रहके तुझसे दूर मुझसे, ज़िंदगी कटती न थी,
मिल गए हो तुम, ये अब और भी मुश्किल लगे...
(20 फरवरी, 1996)

आपकी नज़रें ही हैं ये खूबसूरत, जान लो,
वरना मेरी शक्लो-सूरत में तो कुछ भी है नहीं...
(17 जून, 1996)

Friday, July 17, 2009

हे भगवन, मुझे गधा बना दे... (राम अवतार रस्तोगी 'शैल')

विशेष नोट : अधिकतर बच्चों की तरह मेरे आदर्श भी मेरे पिता ही रहे हैं... सरकारी नौकरी छोड़कर मेरे पत्रकार बन जाने की एकमात्र वजह भी यही थी कि वह पत्रकार थे... अपने कॉलेज के समय में वह 'शैल' उपनाम से कविता भी किया करते थे, सो, आज उनकी डायरी से एक हास्य कविता आप सबके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं... यह कविता उनकी डायरी के मुताबिक 28 दिसम्बर, 1964 को लिखी गई थी...

बहुत सोचता हूं, मगर कैसे हो यह,
मुझे मेरा स्वामी गधा इक बना दे...
जानता हूं, हंसोगे, हंसो खूब खुलकर,
मगर मुझको भगवन, गधा अब बना दे...

है बर्दाश्त कितनी, यह सब कुछ है सहता,
कोई दे ले गाली, या फिर पीट डाले,
नहीं चूं करेगा, कभी यह बेचारा,
मुझे मेरे भगवन, गधा अब बना दे...

मार कब तक सहूं, अपनी बीवी की हरदम,
औ' बच्चे मेरे, मुझको आंखें दिखाते,
इसी से तमन्ना यह भारी मेरी है,
मुझे मेरे भगवन, गधा अब बना दे...

जो विद्वान होगा, वह गंभीर होगा,
इसे हम यहां पर सदा सत्य पाते,
गधे-सा नहीं और गंभीर होता,
मुझे मेरे भगवन, गधा अब बना दे...

दफ्तर में गाली सहूं बॉस की मैं,
घर में बच्चों की अपने सवारी बनूं मैं,
बीवी का प्यारा रहूं मैं हमेशा,
अगर मुझको भगवन, गधा अब बना दे...

श्रद्धांजलि लालबहादुर शास्त्री को... (राम अवतार रस्तोगी 'शैल')

विशेष नोट : अधिकतर बच्चों की तरह मेरे आदर्श भी मेरे पिता ही रहे हैं... सरकारी नौकरी छोड़कर मेरे पत्रकार बन जाने की एकमात्र वजह भी यही थी कि वह पत्रकार थे... अपने कॉलेज के समय में वह 'शैल' उपनाम से कविता भी किया करते थे, सो, आज उनकी डायरी से एक कविता आप सबके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं... यह कविता उनकी डायरी के मुताबिक 11 जनवरी, 1966 को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु का समाचार प्राप्त होने के कुछ मिनट पश्चात लिखी गई थी...

जननी के गौरव के रक्षक,
ओ शांतिवीर, ओ कर्मवीर,
भारत-भर के सुन्दर प्रतीक,
ओ लालबहादुर, शूरवीर...

जन-मन के ओ प्रियतम नेता,
मेरे भारत के हृदय-सम्राट,
अर्पित मेरे श्रद्धाप्रसून,
स्वीकार करो वामन-विराट...

साधारण-जन के कुलदीपक,
मानवता के अभिनव प्रहरी,
है नमस्कार तुमको जन का,
स्वीकार करो मानव-केहरी...

प्रियतमे विषाद का स्वर है यह... (राम अवतार रस्तोगी 'शैल')

विशेष नोट : अधिकतर बच्चों की तरह मेरे आदर्श भी मेरे पिता ही रहे हैं... सरकारी नौकरी छोड़कर मेरे पत्रकार बन जाने की एकमात्र वजह भी यही थी कि वह पत्रकार थे... अपने कॉलेज के समय में वह कविता भी किया करते थे, सो, आज उनकी डायरी से एक कविता आप सबके लिए प्रस्तुत कर रहा हूं... यह कविता उनकी डायरी के मुताबिक 28 जनवरी, 1964 को लिखी गई, जब वे एमए में पढ़ते थे...

प्रियतमे विषाद का स्वर है यह,
इसमें तुम खोज सकोगी क्या...?
निःश्वास भरा इसमें साथिन,
तब पा तुम प्यार सकोगी क्या...?

दुःखमय नीरव तानें इसकी,
उनको तुम खैंच सकोगी क्या...?
जो फिर स्वर से अभिप्रेतनीय,
उसको तुम भांप सकोगी क्या...?

मेरे स्वर में जो कातरता,
उसको दे धीर सकोगी क्या...?
नैराश्य भरा जो इस स्वर में,
उसकी हर पीर सकोगी क्या...?

मेरे श्वासों में क्रन्दन है,
उसको दे धैर्य सकोगी क्या...?
मेरे यौवन में सूनापन,
उसका दे साथ सकोगी क्या...?

कम्पन जो स्वर के अन्तस में,
उसको तुम बांध सकोगी क्या...?
अन्तर जो अन्तर्द्वद्वों में,
उसको तुम पाट सकोगी क्या...?

प्रियतमे विषाद का स्वर है यह,
इसमें तुम खोज सकोगी क्या...?

Monday, July 13, 2009

फूल और कांटा... (अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध')

विशेष नोट : हाल ही में एक सहयोगी ने अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कविता 'एक बूंद' का ज़िक्र अपने फेसबुक एकाउंट पर किया, सो, मुझे यह दूसरी कविता भी याद आ गई... यह कविता भी मैंने बचपन में पढ़ी थी, और दार्शनिकता का समावेश है इसमें...

हैं जनम लेते जगह में एक ही,
एक ही पौधा उन्हें है पालता,
रात में उन पर चमकता चांद भी,
एक ही सी चांदनी है डालता...

मेह उन पर है बरसता एक-सा,
एक-सी उन पर हवाएं हैं बहीं,
पर सदा ही यह दिखाता है हमें,
ढंग उनके एक-से होते नहीं...

छेद कर कांटा किसी की उंगलियां,
फाड़ देता है किसी का वर वसन,
प्यार-डूबी तितलियों का पर कतर,
भौंरें का है बेध देता श्याम तन...

फूल लेकर तितलियों को गोद में,
भौंरें को अपना अनूठा रस पिला,
निज सुगंधों औ निराले रंग से,
है सदा देता कली जी की खिला...

है खटकता एक सबकी आंख में,
दूसरा है सोहता सुर-सीस पर,
किस तरह कुल की बड़ाई काम दे,
जो किसी में हो बड़प्पन की कसर...

एक बूंद... (अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध')

विशेष नोट : हाल ही में एक सहयोगी ने अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की इस कविता का ज़िक्र अपने फेसबुक एकाउंट पर किया... यह कविता मैंने बचपन में पढ़ी थी, और बेहद खूबसूरत रचना है...

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से,
थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी...?

देव! मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूंगी या मिलूंगी धूल में?
या जलूंगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूंगी या कमल के फूल में...?

बह गई उस काल एक ऐसी हवा,
वह समुन्दर ओर आई अनमनी,
एक सुन्दर सीप का मुंह था खुला,
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी...

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते,
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
बूंद लौं कुछ और ही देता है कर...

Wednesday, May 13, 2009

मेरी मां - तारे ज़मीन पर

विशेष नोट : हाल ही में फेसबुक पर 'मुझे प्यार है अपनी मां से...' शीर्षक से एक पेज बनाया था, जिसमें मां, मातृत्व और ममता से जुड़ी कुछ कविताएं, चित्र और वीडियो आदि संजोए हैं... उसी कड़ी में यह गीत भी शामिल था, सो, अपने ब्लॉग के पाठकों के लिए भी पेश है...

फिल्म : तारे ज़मीन पर
गायक : शंकर महादेवन
गीतकार : प्रसून जोशी
संगीतकार : शंकर महादेवन, एहसान नूरानी, लॉय मेन्डोन्का

मैं कभी बतलाता नहीं,
पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां...
यूं तो मैं, दिखलाता नहीं,
तेरी परवाह करता हूं मैं मां...
तुझे सब है पता, है न मां,
तुझे सब है पता, मेरी मां...

भीड़ में यूं न छोड़ो मुझे,
घर लौट के भी आ न पाऊं मां...
भेज न इतना दूर मुझको तू,
याद भी तुझको आ न पाऊं मां...
क्या इतना बुरा, हूं मैं मां...
क्या इतना बुरा, मेरी मां...

जब भी कभी पापा मुझे,
जो ज़ोर से झूला झुलाते हैं मां...
मेरी नज़र ढूंढे तुझे,
सोचूं यही तू आके थामेगी मां...
उनसे मैं यह कहता नहीं,
पर मैं सहम जाता हूं मां...
चेहरे पे आने देता नहीं,
दिल ही दिल में घबराता हूं मां...
तुझे सब है पता, है न मां,
तुझे सब है पता, मेरी मां...

मैं कभी बतलाता नहीं,
पर अंधेरे से डरता हूं मैं मां...
यूं तो मैं, दिखलाता नहीं,
तेरी परवाह करता हूं मैं मां...
तुझे सब है पता, है न मां,
तुझे सब है पता, मेरी मां...

Wednesday, April 01, 2009

मां - डॉ सुनील जोगी

विशेष नोट : आज अचानक पापा के पास गया तो वह 'आस्था' चैनल देख रहे थे, जिस पर एक संत एवं कवि सम्मलेन आ रहा था... सम्मलेन के दौरान स्वामी रामदेव ने खासतौर पर एक युवा कवि से फरमाइश की कि वह अपनी 'मां' वाली कविता सुनाएं... उत्सुकता जगी तो सुनने बैठ गया... बेहद खूबसूरत कविता और उससे भी ज्यादा खूबसूरत विचार... दिल को छू गई, और आंखें नम हो गईं... तुरंत आप लोगो के सामने प्रस्तुत कर रहा हूं...

किसी की खातिर अल्‍ला होगा, किसी की खातिर राम...
लेकिन अपनी खातिर तो है, मां ही चारों धाम...


जब आंख खुली तो अम्‍मा की गोदी का एक सहारा था...
उसका नन्‍हा-सा आंचल मुझको भूमण्‍डल से प्‍यारा था...

उसके चेहरे की झलक देख, चेहरा फूलों-सा खिलता था...
उसके स्‍तन की एक बूंद से मुझको जीवन मिलता था...

हाथों से बालों को नोंचा, पैरों से खूब प्रहार किया...
फिर भी उस मां ने पुचकारा, हमको जी भर के प्‍यार किया...

मैं उसका राजा बेटा था, वो आंख का तारा कहती थी...
मैं बनूं बुढापे में उसका, बस, एक सहारा कहती थी...

उंगली को पकड़ चलाया था, पढ़ने विद्यालय भेजा था...
मेरी नादानी को भी निज अन्‍तर में सदा सहेजा था...

मेरे सारे प्रश्‍नों का वो फौरन जवाब बन जाती थी...
मेरी राहों के कांटे चुन, वो खुद गुलाब बन जाती थी...

मैं बड़ा हुआ तो कॉलेज से इक रोग प्‍यार का ले आया...
जिस दिल में मां की मूरत थी, वो रामकली को दे आया...

शादी की, पति से बाप बना, अपने रिश्‍तों में झूल गया...
अब करवाचौथ मनाता हूं, मां की ममता को भूल गया...

हम भूल गए उसकी ममता, मेरे जीवन की थाती थी...
हम भूल गए अपना जीवन, वो अमृत वाली छाती थी...

हम भूल गए, वो खुद भूखी रह करके हमें खिलाती थी...
हमको सूखा बिस्‍तर देकर, खुद गीले में सो जाती थी...

हम भूल गए, उसने ही होठों को भाषा सिखलाई थी...
मेरी नींदों के लिए रात भर उसने लोरी गाई थी...

हम भूल गए हर गलती पर, उसने डांटा-समझाया था...
बच जाऊं बुरी नजर से, काला टीका सदा लगाया था...

हम बड़े हुए तो ममता वाले सारे बन्‍धन तोड़ आए...
बंगले में कुत्ते पाल लिए, मां को वृद्धाश्रम छोड़ आए...

उसके सपनों का महल गिराकर, कंकर-कंकर बीन लिए...
खुदग़र्जी में उसके सुहाग के आभूषण तक छीन लिए...

हम मां को घर के बंटवारे की अभिलाषा तक ले आए...
उसको पावन मंदिर से गाली की भाषा तक ले आए...

मां की ममता को देख मौत भी आगे से हट जाती है...
गर मां अपमानित होती, धरती की छाती फट जाती है...

घर को पूरा जीवन देकर बेचारी मां क्‍या पाती है...
रूखा-सूखा खा लेती है, पानी पीकर सो जाती है...

जो मां जैसी देवी घर के मंदिर में नहीं रख सकते हैं...
वो लाखों पुण्‍य भले कर लें, इंसान नहीं बन सकते हैं...

मां जिसको भी जल दे दे, वो पौधा संदल बन जाता है...
मां के चरणों को छूकर पानी, गंगाजल बन जाता है...

मां के आंचल ने युगों-युगों से भगवानों को पाला है...
मां के चरणों में जन्‍नत है, गिरजाघर और शिवाला है...

हिमगिरि जैसी ऊंचाई है, सागर जैसी गहराई है...
दुनिया में जितनी खुशबू है, मां के आंचल से आई है...

मां कबिरा की साखी जैसी, मां तुलसी की चौपाई है...
मीराबाई की पदावली, खुसरो की अमर रूबाई है...

मां आंगन की तुलसी जैसी, पावन बरगद की छाया है...
मां वेद ऋचाओं की गरिमा, मां महाकाव्‍य की काया है...

मां मानसरोवर ममता का, मां गोमुख की ऊंचाई है...
मां परिवारों का संगम है, मां रिश्‍तों की गहराई है...

मां हरी दूब है धरती की, मां केसर वाली क्‍यारी है...
मां की उपमा केवल मां है, मां हर घर की फुलवारी है...

सातों सुर नर्तन करते, जब कोई मां लोरी गाती है...
मां जिस रोटी को छू लेती है, वो प्रसाद बन जाती है...

मां हंसती है तो धरती का ज़र्रा-ज़र्रा मुस्‍काता है...
देखो तो दूर क्षितिज, अम्बर धरती को शीश झुकाता है...

माना मेरे घर की दीवारों में चन्‍दा-सी मूरत है...
पर मेरे मन के मंदिर में, बस केवल मां की मूरत है...

मां सरस्‍वती लक्ष्‍मी दुर्गा अनुसूया मरियम सीता है...
मां पावनता में रामचरित मानस है, भगवत गीता है...

अम्‍मा तेरी हर बात मुझे वरदान से बढ़कर लगती है...
हे मां, तेरी सूरत मुझको भगवान से बढ़कर लगती है...

सारे तीरथ के पुण्‍य जहां, मैं उन चरणों में लेटा हूं...
जिनके कोई सन्‍तान नहीं, मैं उन मांओं का बेटा हूं...

हर घर में मां की पूजा हो, ऐसा संकल्‍प उठाता हूं...
मैं दुनिया की हर मां के चरणों में यह शीश झुकाता हूं...

Tuesday, March 17, 2009

मनुष्यता (मैथिली शरण गुप्त)

विशेष नोट : बचपन में शौकिया पढ़ी थी यह कविता, लेकिन याद नहीं थी... अचानक मेरे भतीजे ने कल ज़िक्र किया तो इंटरनेट पर तलाश की... बेहद सुंदर विचार हैं, पढ़कर देखें...

विचार लो कि मर्त्य हो न मृत्यु से डरो कभी,
मरो परन्तु यों मरो कि याद जो करे सभी...
हुई न यों सु-मृत्यु तो वृथा मरे, वृथा जिए,
मरा नहीं वही कि जो जिया न आपके लिए...

यही पशु-प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे...

उसी उदार की कथा सरस्वती बखानती,
उसी उदार से धरा कृतार्थ भाव मानती...
उसी उदार की सदा सजीव कीर्ति कूजती,
तथा उसी उदार को समस्त सृष्टि पूजती...

अखंड आत्म भाव जो असीम विश्व में भरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे...

सहानुभूति चाहिए, महाविभूति है वही,
वशीकृता सदैव है बनी हुई स्वयं मही...
विरुद्धवाद बुद्ध का दया-प्रवाह में बहा,
विनीत लोक वर्ग क्या न सामने झुका रहे...?

अहा! वही उदार है परोपकार जो करे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे...

अनंत अंतरिक्ष में अनंत देव हैं खड़े,
समक्ष ही स्वबाहु जो बढ़ा रहे बड़े-बड़े...
परस्परावलम्ब से उठो तथा बढ़ो सभी,
अभी अमर्त्य-अंक में अपंक हो चढ़ो सभी...

रहो न यों कि एक से न काम और का सरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे...

'मनुष्य मात्र बन्धु है' यही बड़ा विवेक है,
पुराण पुरुष स्वयंभू पिता प्रसिद्ध एक है...
फलानुसार कर्म के अवश्य बाह्य भेद हैं,
परंतु अंतरैक्य में प्रमाणभूत वेद हैं...

अनर्थ है कि बंधु हो न बंधु की व्यथा हरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे...

चलो अभीष्ट मार्ग में सहर्ष खेलते हुए,
विपत्ति विप्र जो पड़ें उन्हें ढकेलते हुए...
घटे न हेलमेल हां, बढ़े न भिन्नता कभी,
अतर्क एक पंथ के सतर्क पंथ हों सभी...

तभी समर्थ भाव है कि तारता हुआ तरे,
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे...

Wednesday, January 14, 2009

श्री राम स्तुति (मूल पाठ एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : बचपन से ही मुझे यह स्तुति बेहद पसंद है... इसमें अनुप्रास अलंकार का प्रयोग बेहद खूबसूरती के साथ किया गया है, और मेरे विचार में इसका पाठ करने से उच्चारण दोष सुधारने में सहायता मिल सकती है... सो, इस पोस्ट में भावार्थ सहित प्रस्तुत है, क्योंकि मेरा मानना है कि अर्थ समझने के बाद किसी भी भजन को ज़्यादा इच्छा से पढ़ा या गाया जा सकता है...



श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणम्।
नवकंज लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद-कंजारुणम्॥

भावार्थ : हे मन! कृपालु श्री रामचंद्र जी का भजन कर... वह संसार के जन्म-मरण रूपी दारुण भय को दूर करने वाले हैं... उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान हैं, तथा मुख, हाथ और चरण भी लाल कमल के सदृश हैं...

कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनील-नीरद सुन्दरम्।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरम्॥

भावार्थ : उनके सौंदर्य की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर है, उनके शरीर का नवीन-नील-सजल मेघ समान सुंदर वर्ण (रंग) है, उनका पीताम्बर शरीर में मानो बिजली के समान चमक रहा है, तथा ऐसे पावन रूप जानकीपति श्री राम जी को मैं नमस्कार करता हूं...

भजु दीनबंधु दिनेश दानव, दैत्य-वंश-निकन्दनम्।
रघुनंद आनंदकंद कौशलचंद दशरथ-नंदनम्॥

भावार्थ : हे मन! दीनों के बंधु, सूर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यों के वंश का समूल नाश करने वाले, आनन्द-कन्द, कोशल-देशरूपी आकाश में निर्मल चन्द्रमा के समान, दशरथ-नन्दन श्री राम जी का भजन कर...

सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणम्।
आजानुभुज शर चाप धर, संग्रामजित खरदूषणम्॥

भावार्थ : जिनके मस्तक पर रत्नजटित मुकुट, कानों में कुण्डल, भाल पर सुंदर तिलक और प्रत्येक अंग में सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं, जिनकी भुजाएं घुटनों तक लम्बी हैं, जो धनुष-बाण लिए हुए हैं, जिन्होंने संग्राम में खर और दूषण को भी जीत लिया है...

इति वदति तुलसीदास शंकर, शेष-मुनि-मन-रंजनम्।
मम हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल दल गंजनम्॥

भावार्थ : जो शिव, शेष और मुनियों के मन को प्रसन्न करने वाले और काम, क्रोध, लोभ आदि शत्रुओं का नाश करने वाले हैं... तुलसीदास प्रार्थना करते हैं कि वह श्री रघुनाथ जी मेरे हृदय-कमल में सदा निवास करें...

मनु जाहिं राचेहु मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सांवरो।
करुणा निधान सुजान सील सनेह जानत रावरो॥

भावार्थ : गौरी-पूजन में लीन जानकी (सीता जी) पर गौरी जी प्रसन्न हो जाती हैं और वर देते हुए कहती हैं - हे सीता! जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वह स्वभाव से ही सुंदर और सांवला वर (श्री रामचन्द्र) तुम्हें मिलेगा... वह दया के सागर और सुजान (सर्वज्ञ) हैं, तुम्हारे शील और स्नेह को जानते हैं...

एहि भांति गौरि असीस सुनि सिय सहित हिय हरषी अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

भावार्थ : इस प्रकार गौरी जी का आशीर्वाद सुनकर जानकी जी सहित समस्त सखियां अत्यन्त हर्षित हो उठती हैं... तुलसीदास जी कहते हैं कि तब सीता जी माता भवानी को बार-बार पूजकर प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं...

सोरठा: जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥

भावार्थ : गौरी जी को अपने अनुकूल जानकर सीता जी को जो हर्ष हुआ, वह अवर्णनीय है... सुंदर मंगलों के मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे...

जागिये रघुनाथ कुंवर, पंछी बन बोले... (भजन)

विशेष नोट : बचपन में ही सुनता था, क्योंकि मां इसे ज़्यादा नहीं गातीं... नानीजी हमेशा गाती थीं, और उनके घर पर सुबह-सुबह हमेशा सुनाई देता था यह गीत...

जागिये रघुनाथ कुंवर, पंछी बन बोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर, पंछी बन बोले...

चंद्र किरण शीतल भई, चकवी पिय मिलन गई,
त्रिविधमंद चलत पवन, पल्लव द्रुम डोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर...

प्रातः भानु प्रकट भयो, रजनी को तिमिर गयो,
भृंग करत गुंजगान, कमलन दल खोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर...

ब्रह्मादिक धरत ध्यान, सुर नर मुनि करत गान,
जागन की बेर भई, नैन पलक खोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर...

तुलसीदास अति अनन्द, निरख के मुखारबिन्द,
दीनन को देत दान, भूषण बहु मोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर...

Monday, January 12, 2009

जगद् गुरु श्री शञ्कराचार्यविरचितम् चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् (मूल संस्कृत तथा हिन्दी में पद्यानुवाद)

विशेष नोट : मेरी नानीजी भी गाती थीं, मां भी और मौसियां भी... मुझे भी सारा याद है... हाल ही में ननिहाल से मौसी की भजन वाली डायरी उठा लाया था, सो, यह भी टाइप कर दिया... इस भजन की विशेषता यही है कि यह अनुवाद होकर भी पद्य में होने के कारण स्वयं में संपूर्ण आनंद देती है...

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


रे मूढ़ मन... गोविन्द की खोज कर, गोविन्द का भजन कर और गोविन्द का ही ध्यान कर... अन्तिम समय आने पर व्याकरण के नियम तेरी रक्षा न कर सकेंगे...

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥1॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


निशिदिन शाम सवेरा आता, फेरा शिशिर वसंत लगाता।
काल खेल में जाता जीवन, कटता किंतु न आशा बंधन॥1॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥2॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


अग्नि-सूर्य से तप दिन जाते, घुटने मोड़े रात बिताते।
बसे वृक्ष तल, लिए भीख धन, किंतु न छूटा आशा बंधन॥2॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


यावद्वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे॥3॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


जब तक कमा-कमा धन धरता, प्रेम कुटुंब तभी तक करता।
जब होगा तन बूढ़ा जर्जर, कोई बात न पूछेगा घर॥3॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोकः उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः॥4॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


जटा बढ़ाई, मूंड मुंडाए, नोचे बाल, वस्त्र रंगवाये।
सब कुछ देख, न देख सका जन, करता शोक पेट के कारण॥4॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


भगवद् गीता किञ्चितधीता गङ्गाजल लवकणिका पीता।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चा॥5॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


पढ़ी तनिक भी भगवद् गीता, एक बूंद गंगाजल पीता।
प्रेम सहित हरि पूजन करता, यम उसकी चर्चा से डरता॥5॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥6॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


सारे अंग शिथिल, सिर मुंडा, टूटे दांत, हुआ मुख तुंडा।
वृद्ध हुए तब दंड उठाया, किंतु न छूटी आशा-माया॥6॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः।
वृध्दस्तावच्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः॥7॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


बालकपन हंस-खेल गंवाया, यौवन तरुणी संग बिताया।
वृद्ध हुआ चिंता ने घेरा, पार ब्रह्म में ध्यान न तेरा॥7॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे॥8॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


फिर-फिर जनम-मरण है होता, मातृ उदार में फिर-फिर सोता।
दुस्तर भारी संसृति सागर, करो मुरारे पार कृपा कर॥8॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षम् तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्॥9॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


फिर-फिर रैन-दिवस हैं आते, पक्ष-महीने आते-जाते।
अयन, वर्ष होते नित नूतन, किंतु न छूटा आशा बंधन॥9॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्वे कः संसारः॥10॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


काम वेग क्या आयु ढले पर, नीर सूखने पर क्या सरवर।
क्या परिवार द्रव्य खोने पर, क्या संसार ज्ञान होने पर॥10॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।
एतन्मांसवसादि विकारं मनसि विचारय बारम्बारम्॥11॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


नारि नाभि कुच में रम जाना, मिथ्या माया मोह जगाना।
मैला मांस विकार भरा घर, बारम्बार विचार अरे नर॥11॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।
इति परभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्ता स्वप्नविचारम्॥12॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


तू मैं कौन, कहां से आए, कौन पिता मां किसने जाये।
इनको नित्य विचार अरे नर, जग प्रपंच तज स्वप्न समझकर॥12॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

गेयं ग‍ीतानामसह्स्रम् ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम् देयं दीनजनाय च वित्तम्॥13॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


गीता ज्ञान विचार निरंतर, सहस नाम जप हरि में मन धर।
सत्संगति में बैठ ध्यान दे, दीनजनों को द्रव्य दान दे॥13॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या विभ्यति तस्मिन्काये॥14॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


जब तक रहते प्राण देह में, तब तक पूछें कुशल गेह में।
तन से सांस निकल जब जाते, पत्नी-पुत्र सभी भय खाते॥14॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणम् तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥15॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


भोग-विलास किए सब सुख से, फिर तन होता रोगी दुःख से।
मरना निश्चित जग में जन को, किंतु न तजता पाप चलन को॥15॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।
नाहं न त्वं नायं लोकः तदपि किमर्थं क्रियते शोकः॥16॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


चिथड़ों की गुदड़ी बनवा ली, पुण्य-पाप से राह निराली।
नित्य नहीं मैं, तू जग सारा, फिर क्यों करता शोक पसारा॥16॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीने सर्वमतेन मुक्तिर्भवति न जन्मशतेन॥17॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


क्या गंगासागर का जाना, धर्म-दान-व्रत-नियम निभाना।
ज्ञान बिना चाहे कुछ भी कर, सौ-सौ जन्म न मुक्ति मिले नर॥17॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


॥इति जगद् गुरु श्री शञ्कराचार्यविरचितम् चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् संपूर्णम्॥
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