Tuesday, August 20, 2013

रक्षाबंधन पर विशेष प्रस्तुति - भाई-बहन (गोपाल सिंह नेपाली)

विशेष नोट : कविताकोश.ओआरजी पर गोपाल सिंह नेपाली द्वारा रचित यह कविता 'भाई-बहन' मिली, सो, रक्षाबंधन के पर्व पर सभी भाई-बहनों के लिए ले आया हूं...

 

तू चिंगारी बनकर उड़ री, जाग-जाग मैं ज्वाल बनूं,
तू बन जा हहराती गंगा, मैं झेलम बेहाल बनूं,
आज बसन्ती चोला तेरा, मैं भी सज लूं, लाल बनूं,
तू भगिनी बन क्रान्ति कराली, मैं भाई विकराल बनूं,
यहां न कोई राधारानी, वृन्दावन, बंशीवाला,
तू आंगन की ज्योति बहन री, मैं घर का पहरे वाला...

बहन प्रेम का पुतला हूं मैं, तू ममता की गोद बनी,
मेरा जीवन क्रीड़ा-कौतुक, तू प्रत्यक्ष प्रमोद भरी,
मैं भाई फूलों में भूला, मेरी बहन विनोद बनी,
भाई की गति, मति भगिनी की, दोनों मंगल-मोद बनी,
यह अपराध कलंक सुशीले, सारे फूल जला देना,
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना...

भाई एक लहर बन आया, बहन नदी की धारा है,
संगम है, गंगा उमड़ी है, डूबा कूल-किनारा है,
यह उन्माद, बहन को अपना भाई एक सहारा है,
यह अलमस्ती, एक बहन ही भाई का ध्रुवतारा है,
पागल घड़ी, बहन-भाई है, वह आज़ाद तराना है,
मुसीबतों से, बलिदानों से, पत्थर को समझाना है...

Wednesday, May 15, 2013

हे दयालु नेता... (अल्हड़ बीकानेरी)

विशेष नोट : बचपन में जिन हास्य कवियों को सुना और पसंद किया, उनमें से एक बड़ा नाम है अल्हड़ बीकानेरी जी का... आज अचानक मेरे साथी सुनील कुमार सिरीज ने इनका ज़िक्र किया, और काव्यांचल.कॉम से ढूंढकर उनकी यह कविता फेसबुक पर डाली... मुझे भी अच्छी लगी, सो, आप लोगों के लिए भी ले आया हूं... आनन्द लें... विकीपीडिया के मुताबिक श्री अल्हड़ बीकानेरी का जन्म श्यामलाल शर्मा के रूप में हरियाणा के जिला रेवाड़ी स्थित गांव बीकानेर में 17 मई, 1937 को हुआ था, तथा उनका देहावसान 17 जून, 2009 को हुआ... उनका विस्तृत परिचय पढ़ने के लिए काव्यांचल, विकीपीडिया अथवा WikiPedia पर क्लिक करें...


 तुम्हीं हो भाषण,
तुम्हीं हो ताली...
दया करो, हे दयालु नेता...

तुम्हीं हो बैंगन,
तुम्हीं हो थाली...
दया करो, हे दयालु नेता...

तुम्हीं पुलिस हो,
तुम्हीं हो डाकू...
तुम्हीं हो ख़ंजर,
तुम्हीं हो चाकू...
तुम्हीं हो गोली, तुम्हीं दुनाली...
दया करो, हे दयालु नेता...

तुम्हीं हो इंजन,
तुम्हीं हो गाड़ी...
तुम्हीं अगाड़ी,
तुम्हीं पिछाड़ी...
तुम्हीं हो 'बोगी' की 'बर्थ' खाली...
दया करो, हे दयालु नेता...

तुम्हीं हो चम्मच,
तुम्हीं हो चीनी...
तुम्हीं ने होठों से,
चाय छीनी...
पिला दो हमको, ज़हर की प्याली...
दया करो, हे दयालु नेता...

तुम्हीं ललितपुर,
तुम्हीं हो झांसी...
तुम्हीं हो पलवल,
तुम्हीं हो हांसी...
तुम्हीं हो कुल्लू, तुम्हीं मनाली...
दया करो, हे दयालु नेता...

तुम्हीं बाढ़ हो,
तुम्हीं हो सूखा...
तुम्हीं हो हलधर,
तुम्हीं बिजूका...
तुम्हीं हो ट्रैक्टर, तुम्हीं हो ट्राली...
दया करो, हे दयालु नेता...

तुम्हीं दल-बदलुओं
के हो बप्पा...
तुम्हीं भजन हो,
तुम्हीं हो टप्पा...
सकल भजन-मण्डली बुला ली...
दया करो, हे दयालु नेता...

पिटे तो तुम हो,
उदास हम हैं...
तुम्हारी दाढ़ी के,
दास हम हैं...
कभी रखा ली, कभी मुंडा ली...
दया करो, हे दयालु नेता...

Wednesday, May 01, 2013

इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं... (ओम प्रकाश 'आदित्य')

विशेष नोट : बचपन में दूरदर्शन पर हास्य कवि सम्मेलनों को बहुत मनोयोग से देखता था, और तभी परिचय हुआ था, ओम प्रकाश 'आदित्य' जी के नाम से... हाल ही में उनकी यह कविता मुझे कविताकोश.ओआरजी पर मिली, सो, आप लोगों के लिए ले आया हूं... 


इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं...
जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं...

गधे हंस रहे, आदमी रो रहा है...
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है...

जवानी का आलम गधों के लिए है...
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है...

ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिए है...
ये संसार सालम गधों के लिए है...

पिलाए जा साकी, पिलाए जा डट के...
तू विहस्की के मटके पै मटके पै मटके...

मैं दुनिया को अब भूलना चाहता हूं...
गधों की तरह झूमना चाहता हूं...

घोड़ों को मिलती नहीं घास देखो...
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो...

यहां आदमी की कहां कब बनी है...
ये दुनिया गधों के लिए ही बनी है...

जो गलियों में डोले, वो कच्चा गधा है...
जो कोठे पे बोले, वो सच्चा गधा है...

जो खेतों में दीखे, वो फसली गधा है...
जो माइक पे चीखे, वो असली गधा है...

मैं क्या बक गया हूं, ये क्या कह गया हूं...
नशे की पिनक में, कहां बह गया हूं...

मुझे माफ करना, मैं भटका हुआ था...
वो ठर्रा था, भीतर जो अटका हुआ था...

Wednesday, March 13, 2013

गांव गया था, गांव से भागा... (कैलाश गौतम)

विशेष नोट : आज मेरे एक मित्र ने अपने फेसबुक प्रोफाइल पर यह कविता लगाई, और मुझे इतनी अच्छी लगी कि तुरन्त ही गूगल किया, और पाया कि यह स्वर्गीय श्री कैलाश गौतम द्वारा रचित है... वेबसाइट अनुभूति पर प्रकाशित इसी कविता के साथ मौजूद कवि परिचय के अनुसार श्री गौतम का जन्म 8 जनवरी, 1944 को उत्तर प्रदेश के जनपद वाराणसी (अब चंदौली) में हुआ था... एमए, बीएड तक शिक्षा प्रप्त करने वाले श्री गौतम का देहावसान वर्ष 2006 में 9 दिसम्बर को हुआ था... उनकी प्रकाशित रचनाओं में 'सीली माचिस की तीलियां' (कविता संग्रह), 'जोड़ा ताल' (कविता संग्रह), 'तीन चौथाई आंश' (भोजपुरी कविता संग्रह) तथा 'सिर पर आग' (गीत संग्रह) शामिल हैं, जबकि उनकी शीघ्र प्रकाश्य रचनाओं के रूप में 'बिना कान का आदमी' (दोहा संकलन), 'चिन्ता नए जूते की' (निबंध-संग्रह), 'आदिम राग' (गीत-संग्रह) तथा 'तंबुओं का शहर' (उपन्यास) की प्रतीक्षा है...


गांव गया था, गांव से भागा...
रामराज का हाल देखकर,
पंचायत की चाल देखकर...
आंगन में दीवाल देखकर,
सिर पर आती डाल देखकर...
नदी का पानी लाल देखकर,
और आंख में बाल देखकर...
गांव गया था, गांव से भागा...

गांव गया था, गांव से भागा...
सरकारी स्कीम देखकर,
बालू में से क्रीम देखकर...
देह बनाती टीम देखकर,
हवा में उड़ता भीम देखकर...
सौ-सौ नीम हकीम देखकर,
गिरवी राम-रहीम देखकर...
गांव गया था, गांव से भागा...

गांव गया था, गांव से भागा...
जला हुआ खलिहान देखकर,
नेता का दालान देखकर...
मुस्काता शैतान देखकर,
घिघियाता इंसान देखकर...
कहीं नहीं ईमान देखकर,
बोझ हुआ मेहमान देखकर...
गांव गया था, गांव से भागा...

गांव गया था, गांव से भागा...
नए धनी का रंग देखकर,
रंग हुआ बदरंग देखकर...
बातचीत का ढंग देखकर,
कुएं-कुएं में भंग देखकर...
झूठी शान उमंग देखकर,
पुलिस चोर के संग देखकर...
गांव गया था, गांव से भागा...

गांव गया था, गांव से भागा...
बिना टिकट बारात देखकर,
टाट देखकर, भात देखकर...
वही ढाक के पात देखकर,
पोखर में नवजात देखकर...
पड़ी पेट पर लात देखकर,
मैं अपनी औकात देखकर...
गांव गया था, गांव से भागा...

गांव गया था, गांव से भागा...
नए-नए हथियार देखकर,
लहू-लहू त्योहार देखकर...
झूठ की जै-जैकार देखकर,
सच पर पड़ती मार देखकर...
भगतिन का शृंगार देखकर,
गिरी व्यास की लार देखकर...
गांव गया था, गांव से भागा...

गांव गया था, गांव से भागा...
मुठ्ठी में कानून देखकर,
किचकिच दोनों जून देखकर...
सिर पर चढ़ा जुनून देखकर,
गंजे को नाखून देखकर...
उजबक अफ़लातून देखकर,
पंडित का सैलून देखकर...
गांव गया था, गांव से भागा...
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