Tuesday, April 20, 2010

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला... (सत्यम् शिवम् सुन्दरम्)

विशेष नोट : यह गीत वर्ष 1978 में रिलीज़ हुई दिवंगत राज कपूर द्वारा निर्मित-निर्देशित फिल्म 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' में फिल्माया गया था, लेकिन तभी से बेहद लोकप्रिय भजन के रूप में हमेशा गाया जाता है... मुझे भी यह पसंद है, सो, आप लोगों तक पहुंचना ही था...

फिल्म : सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (1978)
संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
फिल्म निर्माता-निर्देशक : राज कपूर
गीतकार : पंडित नरेन्द्र शर्मा
पार्श्वगायक : मन्ना डे तथा लता मंगेशकर

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला...
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...

बोली मुस्काती मैया, ललन को बताया...
काली अंधियारी, आधी रात में तू आया...
लाड़ला कन्हैया मेरा, काली कमली वाला...
इसीलिए काला...

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला...
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...

बोली मुस्काती मैया, सुन मेरे प्यारे...
गोरी-गोरी राधिका के, नैन कजरारे...
काली नैनों वाली ने, ऐसा जादू डाला...
इसीलिए काला...

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला...
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...

इतने में राधा प्यारी, आई इठलाती...
मैंने न जादू डाला, बोली बल खाती...
मैया कन्हैया तेरा, जग से निराला...
इसीलिए काला...

यशोमती मैया से, बोले नंदलाला...
राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...

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Tuesday, April 13, 2010

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा... (मोहम्मद इक़बाल)

विशेष नोट : 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...' गीत लिखने के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे मोहम्मद इक़बाल का जन्म 9 नवंबर, 1877 को पंजाब के सियालकोट में हुआ, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, और उनका निधन 21 अप्रैल, 1938 को हुआ... कम से कम हमारी पीढ़ी के हिन्दुस्तानियों के लिए यही गीत इक़बाल की पहचान है, सो, आप लोग भी इसे पूरा पढ़ें, क्योंकि स्कूलों आदि में सिर्फ तीन अन्तरे ही गाए जाते हैं...

सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा...
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा...

ग़ुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में...
समझो वहीं हमें भी, दिल हो जहां हमारा...

परबत वो सबसे ऊंचा, हमसाया आसमां का...
वो संतरी हमारा, वो पासबां हमारा...

गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियां...
गुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा...

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझको...
उतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा...

मज़हब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखना...
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा...

यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमा, सब मिट गए जहां से...
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा...

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहां हमारा...

'इक़बाल' कोई महरम, अपना नहीं जहां में...
मालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा...

सारे जहां से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा...
हम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिस्तां हमारा...

राम... (मोहम्मद इक़बाल)

विशेष नोट : 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...' गीत लिखने के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे मोहम्मद इक़बाल का जन्म 9 नवंबर, 1877 को पंजाब के सियालकोट में हुआ, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, और उनका निधन 21 अप्रैल, 1938 को हुआ... उनकी यह रचना भी मुझे काफी पसंद है, सो, आप लोगों के लिए भी पेश है...

लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द [1]...
सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द [2]...
ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक [3], उसका है असर...
रिफ़अत [4] में आस्मां से भी ऊंचा है बामे-हिन्द [5]...
इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक [6] सरिश्त [7]...
मशहूर जिसके दम से है, दुनिया में नामे-हिन्द...
है राम के वजूद [8] पे हिन्दोस्तां को नाज़...
अहले-नज़र समझते हैं, उसको इमामे-हिन्द...
एजाज़ [9] इस चिराग़े-हिदायत [10] का है यही...
रोशन तिराज़ सहर [11] ज़माने में शामे-हिन्द...
तलवार का धनी था, शुजाअत [12] में फ़र्द [13] था...
पाकीज़गी [14] में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था...

मुश्किल अल्फ़ाज़ के माने... (कठिन शब्दों के अर्थ)
1. हिन्द का प्याला सत्य की मदिरा से छलक रहा है...
2. पूरब के महान चिंतक हिन्द के राम हैं...
3. महान चिंतन...
4. ऊंचाई...
5. हिन्दी का गौरव या ज्ञान...
6. देवता...
7. ऊंचे आसन पर...
8. अस्तित्व...
9. चमत्कार...
10. ज्ञान का दीपक...
11. भरपूर रोशनी वाला सवेरा...
12. वीरता...
13. एकमात्र...
14. पवित्रता...

सितारों से आगे जहां और भी हैं... (मोहम्मद इक़बाल)

विशेष नोट : 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा...' गीत लिखने के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध रहे मोहम्मद इक़बाल का जन्म 9 नवंबर, 1877 को पंजाब के सियालकोट में हुआ, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, और उनका निधन 21 अप्रैल, 1938 को हुआ... उनकी यह रचना भी काफी मशहूर है, सो, आप लोगों के लिए भी पेश है...

सितारों के आगे जहां और भी हैं...
अभी इश्क़ [1] के इम्तिहां [2] और भी हैं...

तही ज़िन्दगी से नहीं ये फ़ज़ाएं...
यहां सैकड़ों कारवां और भी हैं...

क़ना'अत [3] न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू [4] पर...
चमन और भी, आशियां [5] और भी हैं...

अगर खो गया एक नशेमन तो क्या ग़म...
मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ां [6] और भी हैं...

तू शाहीं [7] है, परवाज़ [8] है काम तेरा...
तेरे सामने आसमां और भी हैं...

इसी रोज़-ओ-शब [9] में उलझकर न रह जा...
के तेरे ज़मीन-ओ-मकां [10] और भी हैं...

गए दिन, के तन्हा था मैं अंजुमन [11] में...
यहां अब मेरे राज़दां [12] और भी हैं...

मुश्किल अल्फ़ाज़ के माने... (कठिन शब्दों के अर्थ)
1. प्रेम
2. परीक्षाएं
3. संतोष
4. इन्द्रीय संसार
5. घरौंदे
6. रोने-धोने की जगहें
7. गरुड़, उक़ाब
8. उड़ान भरना
9. सुबह-शाम के चक्कर
10. धरती और मकान
11. महफ़िल
12. रहस्य जानने वाले

Monday, April 12, 2010

बाल पहेलियां (पशु-पक्षी)... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : अपने एक स्कूली दोस्त संदीप गोयल (चार्टर्ड एकाउंटेंट) की फरमाइश पर उसके बच्चों के लिए कभी कुछ पहेलियां मैंने भी लिखी थीं... आज अचानक पुराने मेल देख रहा था, सो, याद आ गईं, और आप लोगों के सामने ले आया हूं... इस पोस्ट की पहेलियों के उत्तर इसी पोस्ट के अंत में देखें...

1.
चार पांव हैं, एक पूंछ है, अक्सर रहती मौन...
सुबह-शाम मैं दूध पिलाती, बतलाओ मैं कौन...

2.
जंगल का राजा कहलाता, सब हैं डरते मुझसे...
बोलो तुम मैं कौन हूं, वरना, खा जाऊंगा झट से...

3.
सुबह-शाम मैं बोझ उठाता, ढेंचूं-ढेंचूं करता हूं...
पीछे मत तुम आना मेरे, मार दुलत्ती भगता हूं...

4.
सबसे वजनी होता हूं मैं, इस धरती पर औरों से...
सूंड से पानी हूं पीता, चिंघाड़ मारता ज़ोरों से...

5.
मिर्ची खाता, सब दोहराता, प्यार सभी का पाता हूं...
हरे बदन पर लाल चोंच है, सबका मन हर्षाता हूं...

उत्तर :
1. गाय
2. शेर
3. गधा
4. हाथी
5. तोता

Wednesday, April 07, 2010

बाल पहेलियां (पशु-पक्षी)... (दीनदयाल शर्मा)

विशेष नोट : बच्चों को सिखाने के लिए सदा कुछ नया ढूंढता रहता हूं, सो, अचानक श्री दीनदयाल शर्मा द्वारा लिखित ये पहेलियां मिलीं... डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.कविताकोश.ओआरजी (www.kavitakosh.org) के अनुसार श्री शर्मा का जन्म 15 जुलाई, 1956 को राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित नोहर तहसील के जसाना गांव में हुआ था... श्री शर्मा 'लंकेश्वर', 'महाप्रयाग', 'दिनेश्वर' आदि उपनामों से लेखन करते रहे हैं, तथा हिन्दी और राजस्थानी भाषाओं में शिशु-कविता और बाल-काव्य के क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम हैं... इस पोस्ट की पहेलियों के उत्तर इसी पोस्ट के अंत में देखें...

1.
जंगल में हो या पिंजरे में,
रौब सदा दिखलाता,
मांसाहारी भोजन जिसका,
वनराजा कहलाता...

2.
गोल-गोल हैं जिसकी आंखें,
भाता नहीं उजाला,
दिन में सोता रहता हरदम,
रात विचरने वाला...

3.
हमने देखा अजब अचम्भा,
पैर हैं जैसे कोई खम्भा,
थुलथुल काया, बड़े हैं कान,
सूंड इसकी होती पहचान...

4.
सरस्वती की सफ़ेद सवारी,
मोती जिनको भाते,,
करते अलग दूध से पानी,
बोलो कौन कहाते...

5.
कान बड़े हैं, काया छोटी,
कोमल-कोमल बाल,
चौकस इतना पकड़ सके न,
बड़ी तेज़ है चाल...

6.
राग सुरीली रंग से काली,
सबके मन को भाती,
बैठ पेड़ की डाली पर जो,
मीठे गीत सुनाती...

7.
सुबह-सवेरे घर की छत पर,
करता कांव-कांव,
काले रंग में रंगा है पंछी,
मिलता गांव-गांव...

8.
कुकडूं-कूं जो बोला करता,
सबको सुबह जगाता,
सर पर लाल कलंगी वाला,
गांव घड़ी कहलाता...

9.
नर पंछी नारी से सुन्दर,
वर्षा में नाच दिखाता,
मनमोहक कृष्ण को प्यारा,
राष्ट्र पक्षी कहलाता...

10.
हरी ड्रेस और लाल चोंच है,
रटना जिसका काम,
कुतर-कुतरकर फल खाता है,
लेता हरि का नाम...

11.
गले में कम्बल, पीठ पर थुथनी,
रखती है थन चार,
दूध, घी और देती बछड़ा,
करते हम सब प्यार...

12.
बोझा ढोता है जो दिन भर,
करता नहीं पुकार,
मालिक दो होते हैं जिसके,
धोबी और कुम्हार...

13.
चोरों पर जो झपटा करता,
घर का है रखवाला,
इसकी भौं-भौं से डर जाता,
चाहे हो दिलवाला...

14.
लम्बी गर्दन, पीठ पर कूबड़,
घड़ों पानी पी जाए,
टीलों पर जो सरपट दौड़े,
मरुथल जहाज़ कहाए...

15.
तांगा, बग्घी, रथ चलाते,
मन करे तो हिनहिनाते,
चने चाव से खाते हैं,
खड़े-खड़े सो जाते हैं...

16.
टर्र-टर्र जो टर्राते हैं,
जैसे गीत सुनाते,
जब ये जल में तैरा करते,
पग पतवार बनाते...

17.
चर-चर करती, शोर मचाती,
पेड़ों पर चढ़ जाती,
काली पत्तियां तीन पीठ पर,
कुतर-कुतर फल खाती...

18.
छोटे तन में गांठ लगी है,
करे जो दिन भर काम,
आपस में जो हिलमिल रहती,
नहीं करती आराम...

19.
पानी में ख़ुश रहता हरदम,
धीमी जिसकी चाल,
ख़तरा पाकर सिमट जाए झट,
बन जाता खुद ढाल...

20.
छत से लटकी मिल जाती है,
छह पग वाली नार,
बुने लार से मलमल जैसे,
कपड़े जालीदार...

उत्तर :
1. शेर
2. उल्लू
3. हाथी
4. हंस
5. खरगोश
6. कोयल
7. कौवा
8. मुर्गा
9. मोर
10. तोता
11. गाय
12. गधा
13. कुत्ता
14. ऊंट
15. घोड़ा
16. मेंढक
17. गिलहरी
18. चींटी
19. कछुआ
20. मकड़ी

बाल पहेलियां (वस्तु-व्यक्ति)... (दीनदयाल शर्मा)

विशेष नोट : बच्चों को सिखाने के लिए सदा कुछ नया ढूंढता रहता हूं, सो, अचानक श्री दीनदयाल शर्मा द्वारा लिखित ये पहेलियां मिलीं... डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू.कविताकोश.ओआरजी (www.kavitakosh.org) के अनुसार श्री शर्मा का जन्म 15 जुलाई, 1956 को राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में स्थित नोहर तहसील के जसाना गांव में हुआ था... श्री शर्मा 'लंकेश्वर', 'महाप्रयाग', 'दिनेश्वर' आदि उपनामों से लेखन करते रहे हैं, तथा हिन्दी और राजस्थानी भाषाओं में शिशु-कविता और बाल-काव्य के क्षेत्र में जाना-पहचाना नाम हैं... इस पोस्ट की पहेलियों के उत्तर इसी पोस्ट के अंत में देखें...

1.
मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा,
सभी जगह सम्मान यह पाए,
पतली सी है काया जिसकी,
जलती हुई महक फैलाए...

2.
अलग-अलग रहती हैं दोनों,
नाम एक-सा प्यारा,
एक महक फैलाए जग में,
दूजी करे उजियारा...

3.
दिन-रात मैं चलती रहती,
न लेती थकने का नाम,
जब भी पूछो समय बताती,
देती बढ़ने का पैगाम...

4.
जैसे हो तुम दिखोगे वैसे,
मेरे भीतर झांको,
झट से दे दो उत्तर इसका,
खुद को कम न आंको...

5.
तमिलनाडु, दक्षिण भारत के,
वैज्ञानिक ने किया कमाल,
अग्नि और पृथ्वी मिसाइल,
जिनकी देखो ठोस मिसाल...

उत्तर:
1. अगरबत्ती
2. धूप
3. घड़ी
4. दर्पण
5. डॉ एपीजे अब्दुल क़लाम

जलियांवाला बाग में बसंत... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : बचपन में सभी बच्चों की तरह मैंने भी सुभद्राकुमारी चौहान रचित 'झांसी की रानी' पढ़ी थी... बेहद पसंद आई, सो, इनकी अन्य कविताएं पढ़ने को भी मन ललचाता रहा... ढूंढता रहा हूं, और पढ़ता रहा हूं... एक कविता यह भी है, जो मुझे अच्छी लगती है, सो, आप सबके साथ भी बांट रहा हूं...

यहां कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते...

कलियां भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से,
वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे...

परिमल-हीन पराग दाग-सा बना पड़ा है,
हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है...

ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना,
यह है शोक-स्थान, यहां मत शोर मचाना...

वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना,
दुःख की आहें संग उड़ाकर मत ले जाना...

कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें,
भ्रमर करें गुंजार, कष्ट की कथा सुनावें...

लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले,
तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले...

किन्तु न तुम उपहार भाव आकर दिखलाना,
स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना...

कोमल बालक मरे यहां गोली खाकर,
कलियां उनके लिए गिराना थोड़ी लाकर...

आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं,
अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं...

कुछ कलियां अधखिली यहां इसलिए चढ़ाना,
करके उनकी याद अश्रु के ओस बहाना...

तड़प-तड़पकर वृद्ध मरे हैं, गोली खाकर,
शुष्क पुष्प कुछ वहां गिरा देना तुम जाकर...

यह सब करना, किन्तु यहां मत शोर मचाना,
यह है शोक-स्थान, बहुत धीरे से आना...

ठुकरा दो या प्यार करो... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : बचपन में सभी बच्चों की तरह मैंने भी सुभद्राकुमारी चौहान रचित 'झांसी की रानी' पढ़ी थी... बेहद पसंद आई, सो, इनकी अन्य कविताएं पढ़ने को भी मन ललचाता रहा... ढूंढता रहा हूं, और पढ़ता रहा हूं... एक कविता यह भी है, जो मुझे अच्छी लगती है, सो, आप सबके साथ भी बांट रहा हूं...

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं,
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं...

धूमधाम से साज-बाज से, वे मंदिर में आते हैं,
मुक्तामणि बहुमूल्य वस्तुएं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं...

मैं ही हूं गरीबिनी ऐसी, जो कुछ साथ नहीं लाई,
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आई...

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है, झांकी का शृंगार नहीं,
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं...

कैसे करूं कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं,
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं...

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा, खाली हाथ चली आई,
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आई...

पूजा और पुजापा प्रभुवर, इसी पुजारिन को समझो,
दान-दक्षिणा और निछावर, इसी भिखारिन को समझो...

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी, हृदय दिखाने आई हूं,
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूं...

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो,
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो...

मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी... (बालकृष्ण गर्ग)

विशेष नोट : इंटरनेट पर एक बेहद पसंदीदा कविता ढूंढने की कोशिश में श्री बालकृष्ण गर्ग द्वारा रचित यह कविता मिल गई... कुछ साथियों की फरमाइश थी एक हास्य कविता की, सो, लीजिए, पढिए...

मैं पीला-पीला-सा प्रकाश, तू भकाभक्क दिन-सा उजास...
मैं आम पीलिया का मरीज़, तू गोरी-चिट्टी मेम खास...
मैं खर-पतवार अवांछित-सा, तू पूजा की है दूब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

तेरी-मेरी न समता कुछ, तेरे आगे न जमता कुछ...
मैं तो साधारण-सा लट्टू, मुझमें ज़्यादा न क्षमता कुछ...
तेरी तो दीवानी दुनिया, मुझसे सब जाते ऊब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

कम वोल्टेज में तू न जले, तब ही मेरी कुछ दाल गले...
वरना मेरी है पूछ कहां, हर जगह तुझे ही मान मिले...
हूं साइज़ में भी मैं हेठा, तेरी हाइट क्या खूब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

बिजली का तेरा खर्चा कम, लेकिन लाइट में कितना दम...
सोणिये, इलेक्शन बिना लड़े ही, जीत जाए तू खुदा कसम...
नैया मेरी मंझधार पड़ी, लगता जाएगी डूब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

तू महंगी है, मैं सस्ता हूं, तू चांदी तो मैं जस्ता हूं...
इठलाती है तू अपने पर, लेकिन मैं खुद पर हंसता हूं...
मैं कभी नहीं बन पाऊंगा, तेरे दिल का महबूब सखी, मैं बल्ब और तू ट्यूब, सखी...

Monday, April 05, 2010

मेरा नया बचपन... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : यह कविता काफी पहले पढ़ी थी, लेकिन अपनी बेटी निष्ठा के होने के बाद जब इसे ढूंढना चाहा तो मिल नहीं पाई... आज अचानक ही एक पुराने साथी (शुक्रिया, आलोक भटनागर...) ने यह मुझे भेजी, सो, अब आप सब लोगों के लिए भी अपने ब्लॉग पर ले आया हूं...


बार-बार आती है मुझको, मधुर याद बचपन तेरी...
गया, ले गया, तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी...

चिंता-रहित खेलना-खाना, वह फिरना निर्भय स्वच्छंद...
कैसे भूला जा सकता है, बचपन का अतुलित आनंद...

ऊंच-नीच का ज्ञान नहीं था, छुआछूत किसने जानी...
बनी हुई थी वहां झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी...

किए दूध के कुल्ले मैंने, चूस अंगूठा सुधा पिया...
किलकारी-किल्लोल मचाकर, सूना घर आबाद किया...

रोना और मचल जाना भी, क्या आनंद दिखाते थे...
बड़े-बड़े मोती-से आंसू, जयमाला पहनाते थे...

मैं रोई, मां काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया...
झाड़-पोंछकर चूम-चूम, गीले गालों को सुखा दिया...

दादा ने चंदा दिखलाया, नेत्र नीर-युत दमक उठे...
धुली हुई मुस्कान देखकर, सबके चेहरे चमक उठे...

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर, मैं मतवाली बड़ी हुई...
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी, दौड़ द्वार पर खड़ी हुई...

लाजभरी आंखें थीं मेरी, मन में उमंग रंगीली थी...
तान रसीली थी, कानों में, चंचल छैल-छबीली थी...

दिल में एक चुभन-सी थी, यह दुनिया अलबेली थी...
मन में एक पहेली थी, मैं सबके बीच अकेली थी...

मिला, खोजती थी जिसको, हे बचपन! ठगा दिया तूने...
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फंसा दिया तूने...

सब गलियां उसकी भी देखीं, उसकी खुशियां न्यारी हैं...
प्यारी, प्रीतम की रंगरलियों की स्मृतियां भी प्यारी हैं...

माना मैंने, युवा-काल का जीवन खूब निराला है...
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहने वाला है...

किंतु यहां झंझट है भारी, युद्ध-क्षेत्र संसार बना...
चिंता के चक्कर में पड़कर, जीवन भी है भार बना...

आ जा बचपन! एक बार फिर, दे दे अपनी निर्मल शांति...
व्याकुल व्यथा मिटाने वाली, वह अपनी प्राकृत विश्रांति...

वह भोली-सी मधुर सरलता, वह प्यारा जीवन निष्पाप...
क्या आकर फिर मिटा सकेगा, तू मेरे मन का संताप...

मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी...
नंदनवन-सी फूल उठी, यह छोटी-सी कुटिया मेरी...

'मां ओ' कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी...
कुछ मुंह में, कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने लाई थी...

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा...
मुंह पर थी आह्लाद-लालिमा, विजय-गर्व था झलक रहा...

मैंने पूछा 'यह क्या लाई', बोल उठी वह 'मां, काओ'...
हुआ प्रफुल्लित हृदय, खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'...

पाया मैंने बचपन फिर से, बचपन बेटी बन आया...
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर, मुझमें नवजीवन आया...

मैं भी उसके साथ, खेलती-खाती हूं, तुतलाती हूं...
मिलकर उसके साथ, स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूं...

जिसे खोजती थी बरसों से, अब जाकर उसको पाया...
भाग गया था मुझे छोड़कर, वह बचपन फिर से आया...

Thursday, April 01, 2010

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा... (धूल का फूल)

विशेष नोट : यह गीत बचपन से सुनता आ रहा हूं, सो, कंठस्थ है... सोचता हूं, बेहद खूबसूरती से लिखा हुआ (और जोश में गाया हुआ भी) यह गीत अगर हर हिन्दुस्तानी सुनें (और गुने भी), तो हिन्दुस्तान में अमन सपने की बात नहीं रह जाएगा... लेकिन अफसोस, जो मैं सोचता हूं, वही सपना है...

एक बात और, इंटरनेट पर कहीं भी यह गीत हिन्दी में पूरा उपलब्ध नहीं हुआ, सो, कल रात को पूरा टाइप कर दिया था... आशा है, सभी को पसंद आएगा...


फिल्म : धूल का फूल
गीतकार : साहिर लुधियानवी
संगीतकार : एन दत्ता
पार्श्वगायक : मोहम्मद रफी
फिल्म निर्देशक : यश चोपड़ा (यह इनकी निर्देशक के रूप में पहली फिल्म थी)
फिल्म निर्माता : बीआर चोपड़ा

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

अच्छा है अभी तक तेरा कुछ नाम नहीं है,
तुझको किसी मज़हब से कोई काम नहीं है...
जिस इल्म ने इंसान को तक़सीम किया है,
उस इल्म का तुझ पर कोई इल्ज़ाम नहीं है...

तू बदले हुए वक्त की पहचान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया,
हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया...
कुदरत ने तो बख्शी थी हमें, एक ही धरती,
हमने कहीं भारत, कहीं ईरान बनाया...

जो तोड़ दे हर बंध, वो तूफान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

नफरत जो सिखाए, वो धरम तेरा नहीं है,
इंसां को जो रौंदे, वो कदम तेरा नहीं है...
कुरआन न हो जिसमें, वो मंदिर नहीं तेरा,
गीता न हो जिसमें, वो हरम तेरा नहीं है...

तू अम्न का और सुलह का अरमान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

ये दीन के ताजिर, ये वतन बेचने वाले,
इंसानों की लाशों के कफन बेचने वाले...
ये महल में बैठे हुए कातिल ये लुटेरे,
कांटों के इवज रूह-ए-चमन बेचने वाले...

तू इनके लिए मौत का ऐलान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा,
इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा...

मुश्किल अल्फाज़ के माने... (कठिन शब्दों के अर्थ)
मज़हब : धर्म
इल्म : शिक्षा
बंध : बांध
धरम : धर्म
इंसां : इंसान
अम्न : अमन, शांति
दीन : धर्म
ताजिर : व्यापारी
इवज : एवज, बदले में
रूह-ए-चमन : शाब्दिक अर्थ है - बाग की रूह, लेकिन यहां इसका अर्थ है - देश की आत्मा

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