Tuesday, December 23, 2008

शिव का धनुष (काका हाथरसी)

रचनाकार : काका हाथरसी

विशेष नोट : काका हाथरसी बहुत छोटी-सी आयु (मेरी ही आयु की बात कर रहा हूं) से ही मेरे पसंदीदा हास्य कवि रहे हैं... उनकी एक बढ़िया कविता प्रस्तुत है...

विद्यालय में आ गए इंस्पेक्टर स्कूल,
छठी क्लास में पढ़ रहा विद्यार्थी हरफूल,
विद्यार्थी हरफूल, प्रश्न उससे कर बैठे,
किसने तोड़ा शिव का धनुष बताओ बेटे,
छात्र सिटपिटा गया बिचारा, धीरज छोड़ा,
हाथ जोड़कर बोला, सर, मैंने ना तोड़ा...

यह उत्तर सुन आ गया, सर के सर को ताव,
फौरन बुलवाए गए हेड्डमास्टर साब,
हेड्डमास्टर साब, पढ़ाते हो क्या इनको,
किसने तोड़ा धनुष नहीं मालूम है जिनको,
हेडमास्टर भन्नाया, फिर तोड़ा किसने,
झूठ बोलता है, जरूर तोड़ा है इसने...

इंस्पेक्टर अब क्या कहे, मन ही मन मुसकात,
ऑफिस में आकर हुई, मैनेजर से बात,
मैनेजर से बात, छात्र में जितनी भी है,
उसमें दुगुनी बुद्धि हेडमास्टर जी की है,
मैनेजर बोला, जी, हम चन्दा कर लेंगे,
नया धनुष उससे भी अच्छा बनवा देंगे...

शिक्षा-मंत्री तक गए जब उनके जज़बात,
माननीय गदगद हुए, बहुत खुशी की बात,
बहुत खुशी की बात, धन्य हैं ऐसे बच्चे,
अध्यापक, मैनेजर भी हैं कितने सच्चे,
कह दो उनसे, चन्दा कुछ ज्यादा कर लेना,
जो बैलेन्स बचे वह हमको भिजवा देना...

साभार: काका की विशिष्ट रचनाएं, डायमंड पॉकेट बुक्स

Tuesday, December 16, 2008

जपुजी साहिब (मूल गुरुमुखी तथा हिन्दी, अंग्रेज़ी व गुरुमुखी में अनुवाद सहित)

विशेष नोट : पश्चिमी दिल्ली के जिस क्षेत्र में हमारा निवास है, वहां सिख परिवार काफी अच्छी तादाद में हैं, सो, बचपन से स्कूल और पड़ोस के साथियों में अनेक सिख दोस्त भी रहे हैं, सो, यह भी याद है... वैसे आपकी जानकारी के लिए मुझे गुरुमुखी (पंजाबी भाषा की लिपि) का भी ज्ञान है...

गुरुमुखी


ਸਤਿਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ
ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ
ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ
ਅਜੂਨੀ
ਸੈਭੰ
ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ

उच्चारण

Ik▫oaʼnkār
saṯ nām karṯā purakẖ
nirbẖa▫o nirvair
akāl mūraṯ
ajūnī
saibẖaʼn
gur parsāḏ

हिन्दी

एक ओंकार
सतिनामु करता पुरखु
निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति
अजूनी
सैभं
गुर प्रसादि

अनुवाद हिन्दी में

एक ओंकार : परमात्मा मात्र एक ही है...
सतिनामु करता पुरखु : उसका नाम सत्य है, वह रचने वाला है...
निरभउ निरवैरु : वह डर और वैर से रहित है...
अकाल मूरति : उसके स्वरूप पर समय का कोई प्रभाव नहीं...
अजूनी : वह योनियों में नहीं आता...
सैभं : वह स्वयं प्रकाशमय है...
गुर प्रसादि : वह गुरु की कृपा से मिलता है...

English and Gurumukhi translation by Bhai Manmohan Singh ji (Courtesy: http://www.srigranth.org)

English: There is but one God. True is His Name, creative His personality and immortal His form. He is without fear sans enmity, unborn and self-illumined. By the Guru's grace He is obtained.

Gurumukhi: ਵਾਹਿਗੁਰੂ ਕੇਵਲ ਇਕ ਹੈ। ਸੱਚਾ ਹੈ ਉਸ ਦਾ ਨਾਮ, ਰਚਨਹਾਰ ਉਸ ਦੀ ਵਿਅਕਤੀ ਅਤੇ ਅਮਰ ਉਸ ਦਾ ਸਰੂਪ। ਉਹ ਨਿਡਰ, ਕੀਨਾ-ਰਹਿਤ, ਅਜਨਮਾ ਤੇ ਸਵੈ-ਪ੍ਰਕਾਸ਼ਵਾਨ ਹੈ। ਗੁਰਾਂ ਦੀ ਦਯਾ ਦੁਆਰਾ ਉਹ ਪਰਾਪਤ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।

महामृत्युंजय मंत्र (मूल संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : हाल ही में मेरे जीवन में हुई एक घटना के बाद इस मंत्र में मेरी अगाध श्रद्धा हो गई है... कहा जाता है कि यह मंत्र भगवान शिव को प्रसन्न कर उनकी असीम कृपा प्राप्त करने का माध्यम है... इस मंत्र का सवा लाख बार निरंतर जप करने से मौजूदा अथवा आने वाली बीमारियां तथा अनिष्टकारी ग्रहों का दुष्प्रभाव तो समाप्त होता ही है, इस मंत्र के माध्यम से अटल मृत्यु तक को टाला जा सकता है...

हमारे चार वेदों में से एक ऋग्वेद में महामृत्युंजय मंत्र इस प्रकार दिया गया है...
 
ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।



इस मंत्र को संपुटयुक्त बनाने के लिए इसका उच्चारण इस प्रकार किया जाता है...

ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुवः स्वः
ॐ त्र्यम्बकम् यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनात् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ

इस मंत्र का अर्थ है : हम भगवान शंकर की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं... उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर दें, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो जाए... जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं, तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाएं...

णमोक्कार महामंत्र (मूल एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : मेरे ननिहाल के पड़ोस में अधिकतर जैन परिवार बसे हुए हैं, और चूंकि बचपन की अधिकतर छुट्टियां वहीं उन्हीं के घरों में खेलते बीती हैं, अत: यह भी याद है...

णमो अरिहन्ताणम्
णमो सिद्धाणम्
णमो आयरियाणम्
णमो उवज्झायाणम्
णमो लोए सव्वसाहूणम्

अर्थ : अरिहंतों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, आचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, इस लोक के सभी साधुओं को नमस्कार हो...

णमोक्कार मंत्र का महत्व

एसो पंच णमोकारो, सव्वपावप्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं होइ मंगलं।।


अर्थ : यह पंच णमोक्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है... इसके पढ़ने से हर प्रकार का मंगल होता है...

गायत्री मंत्र (मूल संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : प्राथमिक स्तर से लेकर दसवीं तक की मेरी पढ़ाई-लिखाई समर्थ शिक्षा समिति द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर एवं सरस्वती बाल मंदिर की नई दिल्ली स्थित हरि नगर शाखा में हुई... शिशु मंदिर के नाम में किसी का नाम जुड़ा था या नहीं, याद नहीं, परंतु बाल मंदिर की हमारी शाखा का पूरा नाम महाशय चूनीलाल सरस्वती बाल मन्दिर था...

हमारे विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रात:कालीन मंत्र, दो सरस्वती वन्दना (एक हिन्दी में तथा एक संस्कृत में), श्रीमद्भगवद्गीता के 10 श्लोकों का पाठ किया जाता था, जिनमें से कुछ वर्ष के उपरांत दो श्लोक बदल दिए गए थे (मैंने सभी 12 श्लोक यहां दिए हैं, और इंटरनेट पर होने का लाभ उठाते हुए सभी के अर्थ भी लिख दिए हैं)...

हमें विद्यालय से ही प्रार्थना की एक पुस्तिका (उसका नाम जहां तक याद है, 'अमृतवाणी' था) मिलती थी, जिसमें सभा के दौरान पढ़ी जाने वाली सभी प्रार्थनाएं प्रकाशित जाती थीं... 'अमृतवाणी' तो मुझे नहीं मिल पाई, परंतु गर्वान्वित हूं कि सिर्फ स्मृति के सहारे आज 21 वर्ष बाद भी लगभग सभी प्रार्थनाएं तलाश कर सका, या न मिलने की स्थिति में टाइप कर सका...

वैसे, विद्यालय की प्रार्थना सभा में कुछ वर्षों तक 'ऐक्य मंत्र' तथा 'गायत्री मंत्र' का भी पाठ हुआ... 'ऐक्य मंत्र' कतई याद नहीं है, परंतु 'गायत्री मंत्र' यहां इस ब्लॉग पर भावार्थ सहित आपको मिल जाएगा...

और हां, प्रार्थना सभा के अंत में सोमवार से शुक्रवार तक राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्...' तथा शनिवार को राष्ट्रीय गान 'जन गण मन...' का पाठ भी होता था, परंतु उन्हें यहां टाइप नहीं कर रहा हूं, क्योंकि वे बहुत-सी वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं...

विद्यालय में प्रात:कालीन प्रार्थना सभा के अतिरिक्त भोजनावकाश होने पर भोजन मंत्र, तथा विद्यालय की छुट्टी हो जाने से तुरंत पहले सायंकालीन प्रार्थना का पाठ भी अनिवार्य था, सो, वे भी आपके सामने हैं...


ॐ भूर्भुव स्वः 
तत् सवितुर्वरेण्यं 
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात

  
गायत्री मंत्र हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण मंत्र है, जिसकी महत्ता ॐ के लगभग बराबर मानी जाती है... यह यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः और ऋग्वेद के छंद 3.62.10 के मेल से बना है... इस मंत्र में सवित्र देव की उपासना है, इसलिए इसे सावित्री भी कहा जाता है... ऐसा माना जाता है कि इसके उच्चारण और इसे समझने से ईश्वर की प्राप्ति होती है...

शाब्दिक अर्थ
: सर्वरक्षक परमात्मा
भू: : प्राणों से प्यारा
भुव: : दुख विनाशक
स्व: : सुखस्वरूप है
तत् : उस
सवितु: : उत्पादक, प्रकाशक, प्रेरक
वरेण्य : वरने योग्य
भुर्ग: : शुद्ध विज्ञान स्वरूप का
देवस्य : देव के
धीमहि : हम ध्यान करें
धियो : बुद्धियों को
य: : जो
न: : हमारी
प्रचोदयात : शुभ कार्यों में प्रेरित करें

भावार्थ : उस सर्वरक्षक प्राणों से प्यारे, दु:खनाशक, सुखस्वरूप श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अंतरात्मा में धारण करें... तथा वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें...

अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं... (भजन)

विशेष नोट : मेरी नानीजी का भजन, जो अब तक मां और मौसी से सुनता रहता हूं... इस भजन की विशेषता मुझे यह लगती है कि इसमें भक्त जो प्रश्न उठा रहा है, वे बिल्कुल जायज़ हैं, परंतु उन पर सचमुच शायद कोई ध्यान नहीं देता...

अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं...
कोई वस्तु नहीं ऐसी, जिसे सेवा में लाऊं मैं...

करूं किस तौर आवाहन, कि तुम मौजूद हो हर जां,
निरादर है बुलाने को, अगर घंटी बजाऊं मैं...
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं...

तुम्हीं हो मूर्ति में भी, तुम्हीं व्यापक हो फूलों में,
भला भगवान पर भगवान को कैसे चढाऊं मैं...
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं...

लगाना भोग कुछ तुमको, एक अपमान करना है,
खिलाता है जो सब जग को, उसे कैसे खिलाऊं मैं...
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं...

तुम्हारी ज्योति से रोशन हैं, सूरज, चांद और तारे,
महा अंधेर है कैसे, तुम्हें दीपक दिखाऊं मैं...
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं...

भुजाएं हैं, न सीना है, न गर्दन, है न पेशानी,
कि हैं निर्लेप नारायण, कहां चंदन चढ़ाउं मैं...
अजब हैरान हूं भगवन, तुम्हें कैसे रिझाऊं मैं...

अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में... (भजन)

विशेष नोट : मेरी नानीजी का भजन, जो अब तक मां और मौसी से सुनता रहता हूं...

अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में...
है जीत तुम्हारे हाथों में, और हार तुम्हारे हाथों में...

मेरा निश्चय बस एक यही, इक बार तुम्हें पा जाऊं मैं,
अर्पण कर दूं दुनिया-भर का, सब भार तुम्हारे हाथों में...
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में...

जो जग में रहूं, तो ऐसे रहूं, ज्यों जल में फूल कमल का रहे,
मेरे सब गुण-दोष समर्पित हों, गोपाल तुम्हारे हाथों में...
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में...

यदि मानुष का मुझे जन्म मिले, तेरे चरणों का पुजारी बनूं,
इस पूजक की इक-इक रग का रहे तार तुम्हारे हाथों में...
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में...

जब-जब संसार का कैदी बनूं, निष्काम भाव से कर्म करूं,
फिर अंत समय में प्राण तजूं, निराकार तुम्हारे हाथों में...
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में...

मुझमें तुझमें बस भेद यही, मैं नर हूं तुम नारायण हो,
मैं हूं संसार के हाथों में, संसार तुम्हारे हाथों में...
अब सौंप दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथों में...

हनुमान चालीसा (मूल पाठ एवं अंग्रेज़ी अनुवाद सहित)


दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊं रघुवर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहुं कलेस विकार॥


Doha
After cleansing the mirror of my mind with the pollen dust of holy Guru's Lotus feet, I profess the pure, untainted glory of Shri Raghuvar (Lord Rama), which bestows the four-fold fruits of life - Dharma, Artha, Kama and Moksha...

Fully aware of the deficiency of my intelligence, I concentrate my attention on Pavan Kumar (Hanuman) and humbly ask for strength, intelligence and true knowledge to relieve me of all blemishes, causing pain...

चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुं लोक उजागर॥
राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥


Chaupaai:
Victory to thee, O' Hanuman! Ocean of wisdom - All hail to you O' Kapisa! (fountain-head of power, wisdom and Shiva-Shakti) You illuminate all the three worlds (Entire cosmos) with your glory...

You are the divine messenger of Shri Ram... The repository of immeasurable strength, though known only as son of Pavan (Wind), born of Anjani...

महावीर विक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा॥


With Limbs as sturdy as Vajra (The mace of God Indra), you are valiant and brave... On you attends good sense and wisdom... You dispel the darkness of evil thoughts...

Your physique is beautiful golden-coloured and your dress is pretty... You wear ear-rings and have long curly hair...

हाथ वज्र औ ध्वजा बिराजै। कांधे मूंज जनेऊ साजै॥
संकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग वंदन॥


You carry in your hand a lightening bolt along with a victory (Kesari) flag and wear the sacred thread on your shoulder...

As a descendant of Lord Shankar, you are a comfort and pride of Shri Kesari... With the lustre of your vast sway, you are propitiated all over the universe...

विद्यावान गुणी अति चातुर। राम काज करिवे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनिवे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया॥


You are the repository of learning, virtuous and fully accomplished, always keen to carry out the behest's of Shri Ram...

You are an ardent listener, always so keen to listen to the narration of Shri Ram's life stories... Your heart is filled with what Shri Ram stood for... You therefore always dwell in the hearts of Shri Ram, Lakshman and Sita...

सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। विकट रूप धरि लंक जरावा॥
भीम रूप धरि असुर संहारे। रामचन्द्र के काज संवारे॥


You appeared before Sita in a diminutive form and spoke to her in humility... You assumed an awesome form and struck terror by setting Lanka on fire...

With overwhelming might, you destroyed the Asuras (demons) and performed all tasks assigned to you by Shri Ram with great skill...

लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहिं सम भाई॥


You brought Sanjivani (a herb that revives life) and restored Lakshman back to life, Shri Raghuvir (Shri Ram) cheerfully embraced you with his heart full of joy...

Shri Raghupati (Shri Ram) lustily extolled your excellence and said: "You are as dear to me as my own brother Bharat..."

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा॥


Shri Ram warmly embraced Hanumanji saying, "Let the thousands of living beings chant hymns of your glories..."

Sanak and the sages, saints, Lord Brahma, the great hermits Narad and Goddess Saraswati along with Sheshnag, the cosmic serpent, fail to sing the glories of Hanumanji exactly...

जम कुबेर दिगपाल जहां ते। कबि कोबिद कहि सके कहां ते॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा॥


What to talk of denizens of the earth like poets and scholars etc... How can a mere poet give adequate expression of your super excellence, when Gods like Yamraj (God of Death), Kuber (God of Wealth), and Digpals (deputies guarding the four corners of the Universe) fail to narrate Hanuman's greatness in toto...

You rendered a great service for Sugreeva... It were you who united him with Shri Ram and installed him on the royal throne...

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥


By heeding your advice, Vibhishan became Lord of Lanka... This is known all over the Universe...

On your own, you dashed upon the Sun, which is at a fabulous distance of thousands of miles, thinking it to be a sweet luscious fruit...

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही। जलधि लांघि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥


Carrying the Lord's signet ring in your mouth, there is hardly any wonder that you easily leapt across the ocean...

The burden of all difficult tasks of the world become light with your kind grace...

राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
सब सुख लहैं तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहू को डर ना॥


You are the sentry at the door of Shri Ram's divine abode... No one can enter it without your permission...

All comforts of the world lie at your feet... The devotees enjoy all divine pleasures and feel fearless under your benign protection...

आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हांक ते कांपै॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै॥


You alone are befitted to carry your own splendid valour... All the three worlds (entire universe) tremor at your thunderous call...

All the ghosts, demons and evil forces keep away, with the sheer mention of your great name, O'Mahaveer...

नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा॥
संकट ते हनुमान छुडावैं। मन क्रम बचन ध्यान जो लावैं॥


All diseases, pain and sufferings disappear on reciting regularly Shri Hanuman's holy name...

Those who remember Shri Hanuman in thought, words and deeds with sincerity and faith, are rescued from all crises in life...

सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा॥
और मनोरथ जो कोई लावै। सोई अमित जीवन फल पावै॥


All who hail, worship and have faith in Shri Ram as the Supreme Lord and the king of penance, you make all their difficult tasks very easy...

Whosoever comes to you for fulfillment of any desire with faith and sincerity, will he alone secure the imperishable fruit of human life...

चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे॥


All through the four ages, your magnificent glory is acclaimed far and wide... Your fame is radiantly acclaimed all over the cosmos...

You are the saviour and the guardian angel of saints and sages and destroy all demons... You are the angelic darling of Shri Ram...

अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता॥
राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा॥


You can grant to any one, any yogic power of eight siddhis (power to become light and heavy at will) and nine nidhis (riches, comfort, power, prestige, fame, sweet relationship etc...) This boon has been conferred upon you by Mother Janki...

You possess the power of devotion to Shri Ram... In all rebirths you will always remain Shri Raghupati's most dedicated disciple...

तुम्हरे भजन राम को पावैं। जनम जनम के दुख बिसरावैं॥
अंत काल रघुबर पुर जाई। जहां जन्म हरि-भक्त कहाई॥


Through hymns sung in devotion to you, one can find Shri Ram and become free from sufferings of several births...

If at the time of death one enters the divine abode of Shri Ram, thereafter in all future births he is born as the Lord's devotee...

और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥
संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥


One need not entertain any other deity for propitiation, as devotion of Shri Hanuman alone can give all happiness...

One is freed from all the sufferings and ill-fated contingencies of rebirths in the world... The one who adores and remembers Shri Hanuman...

जै जै जै हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरु देव की नाईं॥
जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महा सुख होई॥


Hail, Hail, Hail, Shri Hanuman, Lord of senses... Let your victory over the evil be firm and final... Bless me in the capacity as my supreme guru (teacher)...

One who recites Chalisa one hundred times, becomes free from the bondage of life and death and enjoys the highest bliss at last...

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महं डेरा॥


All those who recite Hanuman Chalisa (The forty Chaupais) regularly are sure to be benedicted... Such is the evidence of no less a witness as Bhagwan Shankar...

Tulsidas as a bonded slave of the Divine Master, stays perpetually at his feet, he prays "Oh Lord! You enshrine within my heart & soul..."

दोहा
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥


Doha
Oh! son of the wind, destroyer of all miseries, you are a symbol of auspiciousness... Along with Shri Ram, Lakshman and Sita, reside in my heart... Oh! King of Gods...

विशेष जानकारी : इसी ब्लॉग में आप हनुमान चालीसा (बिना अनुवाद) पढ़ना चाहें तो यहां क्लिक करें...

रामजी, रामजी, यही थारो काम जी... (भजन)

विशेष नोट: अब इसे भजन कहिए या प्रार्थना, हमारे परिवार में यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई जाती रही है... मेरे दादाजी भी इसे गाते थे, और हम भाई हमारे पिता के मुख से भी इसे बचपन से सुनते आ रहे हैं... अब मेरे बेटे को भी यह काफ़ी अच्छी लगती है... दरअसल, इसे आमतौर पर हम सुबह स्नान करते हुए गाते हैं, और इसकी बेहद तेज़ गति ही इसे बेहद रोचक और कर्णप्रिय बना देती है...

राम भजो, राम भजो, राम भजो, राम...
गोविन्द, माधव, श्याम भजो श्याम...

राम जी का नाम सदा मिश्री...
जब चाखे, तब गोंद-गिरी...
राम नाम लडुआ, गोपाल नाम घी...
हर को नाम मिश्री, तू घोल-घोल पी...

रामजी, रामजी, यही थारो काम जी...
खाने को दो दाल-रोटी, चाबने को पान जी...
चढ़ने को घोड़ा देओ, खर्चने को दाम जी...
रामजी, रामजी, यही थारो काम जी...

Monday, December 15, 2008

कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो... (भजन)

विशेष नोट: यह भजन मेरी नानीजी गाया करती थीं, और मेरी मां भी... बचपन से ही सुनते आए होने की वजह से इसे भूल जाने का प्रश्न ही नहीं था, लेकिन फिर भी मां की डायरी में से देखकर टाइप कर दिया है...

कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...
ध्यान में नित्य तन मन लगाते रहो...

वही मीरा का गिरधर, परम धाम है,
वही यादव है, रघुकुल कुमुद राम है,
वही है जानकीवर, वही श्याम है,
किसी भी रूप में उसको ध्याते रहो...
कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...

वही ब्रह्मा, वही विष्णु का भेष है,
वही शंकर सदाशिव, वही शेष है,
वही श्री शारदा शक्ति राकेश है,
किसी में ध्यान अपना जमाते रहो...
कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...

बिना उसकी कृपा के न निस्तार है,
वही आधार, कर्तार, भर्तार है,
जन्म लेने का जग में यही सार है,
कृष्ण का नाम सुनते-सुनाते रहो...
कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...

जब तलक मन का मनका हिलेगा नहीं,
ज्ञान का पुष्प तब तक खिलेगा नहीं,
नंदनंदन कन्हैया मिलेगा नहीं,
उसे ध्याते रहो, सिर झुकाते रहो...
कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...

कोई कहता निराकार साकार है,
सारे संसार का एक आधार है,
सभी हारे, न पाता कोई पार है,
उसी का नाम रटते-रटाते रहो...
कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...

देर है उसके घर में, न अंधेर है,
सुनी जाती सभी की, वहां टेर है,
नहीं उसके नियम में उलट-फेर है,
पूज उसको अभयदान पाते रहो...
कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...

चाह-चिंता हृदय से हटेगी नहीं,
मोह-माया की फांसी कटेगी नहीं,
कृष्ण या राम रसना रटेगी नहीं,
राग-द्वेषों से मन को हटाते रहो...
कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...

पूछते हो, कहां पर है परमात्मा,
जानते हैं 'दिनेश' उसको शुद्धात्मा,
देखने से मिलेगा, तुम्ही में रमा,
आप आपे में मन को लगाते रहो...
कृष्ण गोविन्द के गीत गाते रहो...

Sunday, December 14, 2008

श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक (मूल संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : प्राथमिक स्तर से लेकर दसवीं तक की मेरी पढ़ाई-लिखाई समर्थ शिक्षा समिति द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर एवं सरस्वती बाल मंदिर की नई दिल्ली स्थित हरि नगर शाखा में हुई... शिशु मंदिर के नाम में किसी का नाम जुड़ा था या नहीं, याद नहीं, परंतु बाल मंदिर की हमारी शाखा का पूरा नाम महाशय चूनीलाल सरस्वती बाल मन्दिर था...

हमारे विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रात:कालीन मंत्र, दो सरस्वती वन्दना (एक हिन्दी में तथा एक संस्कृत में), श्रीमद्भगवद्गीता के 10 श्लोकों का पाठ किया जाता था, जिनमें से कुछ वर्ष के उपरांत दो श्लोक बदल दिए गए थे (मैंने सभी 12 श्लोक यहां दिए हैं, और इंटरनेट पर होने का लाभ उठाते हुए सभी के अर्थ भी लिख दिए हैं)...

हमें विद्यालय से ही प्रार्थना की एक पुस्तिका (उसका नाम जहां तक याद है, 'अमृतवाणी' था) मिलती थी, जिसमें सभा के दौरान पढ़ी जाने वाली सभी प्रार्थनाएं प्रकाशित जाती थीं... 'अमृतवाणी' तो मुझे नहीं मिल पाई, परंतु गर्वान्वित हूं कि सिर्फ स्मृति के सहारे आज 21 वर्ष बाद भी लगभग सभी प्रार्थनाएं तलाश कर सका, या न मिलने की स्थिति में टाइप कर सका...

वैसे, विद्यालय की प्रार्थना सभा में कुछ वर्षों तक 'ऐक्य मंत्र' तथा 'गायत्री मंत्र' का भी पाठ हुआ... 'ऐक्य मंत्र' कतई याद नहीं है, परंतु 'गायत्री मंत्र' यहां इस ब्लॉग पर भावार्थ सहित आपको मिल जाएगा...

और हां, प्रार्थना सभा के अंत में सोमवार से शुक्रवार तक राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्...' तथा शनिवार को राष्ट्रीय गान 'जन गण मन...' का पाठ भी होता था, परंतु उन्हें यहां टाइप नहीं कर रहा हूं, क्योंकि वे बहुत-सी वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं...

विद्यालय में प्रात:कालीन प्रार्थना सभा के अतिरिक्त भोजनावकाश होने पर भोजन मंत्र, तथा विद्यालय की छुट्टी हो जाने से तुरंत पहले सायंकालीन प्रार्थना का पाठ भी अनिवार्य था, सो, वे भी आपके सामने हैं...


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥2-23॥

अर्थ : न शस्त्र इसे काट सकते हैं, न आग इसे जला सकती है... न पानी इसे भिगो सकता है, न हवा इसे सुखा सकती है... (यहां भगवान कृष्ण शरीर में मौजूद आत्मा की बात कर रहे हैं...)

हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥2-37॥

अर्थ : यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो तो तुम्हें स्वर्ग मिलेगा और यदि जीतते हो तो इस धरती को भोगोगे... इसलिए उठो, हे कौन्तेय (अर्जुन का नाम), और निश्चय करके युद्ध करो...

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥4-7॥

अर्थ : हे भारत, जब-जब धर्म का लोप होता है, और अधर्म बढ़ता है... तब-तब मैं स्वयम् स्वयम् की रचना करता हूं...

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥4-8॥

अर्थ : साधु पुरुषों के कल्याण के लिए, और दुष्कर्मियों के विनाश के लिए... तथा धर्म की स्थापना के लिए मैं युगों-युगों से प्रत्येक युग में जन्म लेता हूं...

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥2-47॥

अर्थ : कर्म करना तो तुम्हारा अधिकार है, लेकिन फल की इच्छा से कभी नहीं... कर्म को फल के लिए मत करो और न ही काम न करने से जुड़ो...

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥2-62॥

अर्थ : विषयों (वस्तुओं) के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे लगाव हो जाता है... इससे उनमें इच्छा पैदा होती है और इच्छाओं से गुस्सा पैदा होता है...

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥2-63॥

अर्थ : गुस्से से दिमाग खराब होता है और उससे याददाश्त पर पर्दा पड़ जाता है... याददाश्त पर पर्दा पड़ जाने से आदमी की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि नष्ट हो जाने पर आदमी खुद ही का नाश कर बैठता है...

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥3-35॥

अर्थ : अपना काम ही अच्छा है, चाहे उसमें कमियां भी हों, किसी और के अच्छी तरह किए काम से...
अपने काम में मृत्यु भी होना अच्छा है, किसी और के काम से चाहे उसमें डर न हो...

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥3-21॥

अर्थ : क्योंकि जो एक श्रेष्ठ पुरुष करता है, दूसरे लोग भी वही करते हैं... वह जो करता है, उसी को प्रमाण मानकर अन्य लोग भी पीछे वही करते हैं...

श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥4-39॥

अर्थ : श्रद्धा रखने वाले, अपनी इन्द्रियों पर संयम कर ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं... और ज्ञान मिल जाने पर, जल्द ही परम शान्ति को प्राप्त होते हैं...

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः॥18-48॥

अर्थ : हे कौन्तेय, अपने जन्म से उत्पन्न (स्वाभाविक) कर्म को उसमें दोष होने पर भी नहीं त्यागना चाहिए... क्योंकि सभी आरम्भों में (कर्मों में) ही कोई न कोई दोष होता है, जैसे अग्नि धुएं से ढकी होती है...

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥18-66॥

अर्थ : सभी धर्मों को त्याग कर (हर आश्रय त्याग कर), केवल मेरी शरण में बैठ जाओ...मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्ति दिला दूंगा, इसलिए शोक मत करो...

सायंकालीन प्रार्थना (मूल संस्कृत एवं अंग्रेज़ी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : प्राथमिक स्तर से लेकर दसवीं तक की मेरी पढ़ाई-लिखाई समर्थ शिक्षा समिति द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर एवं सरस्वती बाल मंदिर की नई दिल्ली स्थित हरि नगर शाखा में हुई... शिशु मंदिर के नाम में किसी का नाम जुड़ा था या नहीं, याद नहीं, परंतु बाल मंदिर की हमारी शाखा का पूरा नाम महाशय चूनीलाल सरस्वती बाल मन्दिर था...

हमारे विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रात:कालीन मंत्र, दो सरस्वती वन्दना (एक हिन्दी में तथा एक संस्कृत में), श्रीमद्भगवद्गीता के 10 श्लोकों का पाठ किया जाता था, जिनमें से कुछ वर्ष के उपरांत दो श्लोक बदल दिए गए थे (मैंने सभी 12 श्लोक यहां दिए हैं, और इंटरनेट पर होने का लाभ उठाते हुए सभी के अर्थ भी लिख दिए हैं)...

हमें विद्यालय से ही प्रार्थना की एक पुस्तिका (उसका नाम जहां तक याद है, 'अमृतवाणी' था) मिलती थी, जिसमें सभा के दौरान पढ़ी जाने वाली सभी प्रार्थनाएं प्रकाशित जाती थीं... 'अमृतवाणी' तो मुझे नहीं मिल पाई, परंतु गर्वान्वित हूं कि सिर्फ स्मृति के सहारे आज 21 वर्ष बाद भी लगभग सभी प्रार्थनाएं तलाश कर सका, या न मिलने की स्थिति में टाइप कर सका...

वैसे, विद्यालय की प्रार्थना सभा में कुछ वर्षों तक 'ऐक्य मंत्र' तथा 'गायत्री मंत्र' का भी पाठ हुआ... 'ऐक्य मंत्र' कतई याद नहीं है, परंतु 'गायत्री मंत्र' यहां इस ब्लॉग पर भावार्थ सहित आपको मिल जाएगा...

और हां, प्रार्थना सभा के अंत में सोमवार से शुक्रवार तक राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्...' तथा शनिवार को राष्ट्रीय गान 'जन गण मन...' का पाठ भी होता था, परंतु उन्हें यहां टाइप नहीं कर रहा हूं, क्योंकि वे बहुत-सी वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं...

विद्यालय में प्रात:कालीन प्रार्थना सभा के अतिरिक्त भोजनावकाश होने पर भोजन मंत्र, तथा विद्यालय की छुट्टी हो जाने से तुरंत पहले सायंकालीन प्रार्थना का पाठ भी अनिवार्य था, सो, वे भी आपके सामने हैं...

सायंकालीन प्रार्थना 

शान्ताकारम् भुजगशयनम् पद्मनाभम् सुरेशम्।
विश्वाधारम् गगनसदृशम् मेघवर्णम् शुभाङ्गम्॥
लक्ष्मीकान्तम् कमलनयनम् योगिभिर्ध्यानिगम्यम्।
वन्दे विष्णुम् भवभयहरम् सर्वलोकैकनाथम्॥

शुभम् करोति कल्याणम्। आरोग्यम् धन सम्पदा॥
शत्रु बुद्धि विनाशाय। दीप ज्योति नमस्तुते॥

The meaning of the verse...

शान्ताकारम् = the one having a peaceful or serene form...
भुजगशयनम् = the one who is sleeping on a snake as the bed...
पद्मनाभम् = the one having a lotus at the navel, Vishnu...
सुरेशम् = the master of the Gods...
विश्वाधारम् = the one who is the support or basis of the Universe...
गगनसदृशम् = the one who is like the sky...
मेघवर्णम् = the one who has the colour of the cloud...
शुभाङ्गम् = the one with the auspicious body...
लक्ष्मीकान्तम् = the husband of Goddess Laxmi...
कमलनयनम् = the lotus-eyed person...
योगिभिः = yogis...
ध्यानि = meditation...
गम्यम् = reaching...
वन्दे = I worship or bow...
विष्णुम् = to Vishnu...
भवभयहरम् = the one who removes or takes away the fears caused by the `bhava' of births and deaths...
सर्वलोकैकनाथम् = the lord of the all of the world...

And the last two lines mean,

शुभम् करोति कल्याणम्। आरोग्यम् धन सम्पदा॥
शत्रु बुद्धि विनाशाय। दीप ज्योति नमस्तुते॥

May you bestow upon me,
Auspiciousness and victory,
Health, wealth and prosperity,
May you destroy that enemy within,
Residing in my mind,
That holds me from progressing,
I worship that light of the lamp,
That dispels the darkness,
In my mind...

भोजन मंत्र (मूल संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : प्राथमिक स्तर से लेकर दसवीं तक की मेरी पढ़ाई-लिखाई समर्थ शिक्षा समिति द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर एवं सरस्वती बाल मंदिर की नई दिल्ली स्थित हरि नगर शाखा में हुई... शिशु मंदिर के नाम में किसी का नाम जुड़ा था या नहीं, याद नहीं, परंतु बाल मंदिर की हमारी शाखा का पूरा नाम महाशय चूनीलाल सरस्वती बाल मन्दिर था...

हमारे विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रात:कालीन मंत्र, दो सरस्वती वन्दना (एक हिन्दी में तथा एक संस्कृत में), श्रीमद्भगवद्गीता के 10 श्लोकों का पाठ किया जाता था, जिनमें से कुछ वर्ष के उपरांत दो श्लोक बदल दिए गए थे (मैंने सभी 12 श्लोक यहां दिए हैं, और इंटरनेट पर होने का लाभ उठाते हुए सभी के अर्थ भी लिख दिए हैं)...

हमें विद्यालय से ही प्रार्थना की एक पुस्तिका (उसका नाम जहां तक याद है, 'अमृतवाणी' था) मिलती थी, जिसमें सभा के दौरान पढ़ी जाने वाली सभी प्रार्थनाएं प्रकाशित जाती थीं... 'अमृतवाणी' तो मुझे नहीं मिल पाई, परंतु गर्वान्वित हूं कि सिर्फ स्मृति के सहारे आज 21 वर्ष बाद भी लगभग सभी प्रार्थनाएं तलाश कर सका, या न मिलने की स्थिति में टाइप कर सका...

वैसे, विद्यालय की प्रार्थना सभा में कुछ वर्षों तक 'ऐक्य मंत्र' तथा 'गायत्री मंत्र' का भी पाठ हुआ... 'ऐक्य मंत्र' कतई याद नहीं है, परंतु 'गायत्री मंत्र' यहां इस ब्लॉग पर भावार्थ सहित आपको मिल जाएगा...

और हां, प्रार्थना सभा के अंत में सोमवार से शुक्रवार तक राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्...' तथा शनिवार को राष्ट्रीय गान 'जन गण मन...' का पाठ भी होता था, परंतु उन्हें यहां टाइप नहीं कर रहा हूं, क्योंकि वे बहुत-सी वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं...

विद्यालय में प्रात:कालीन प्रार्थना सभा के अतिरिक्त भोजनावकाश होने पर भोजन मंत्र, तथा विद्यालय की छुट्टी हो जाने से तुरंत पहले सायंकालीन प्रार्थना का पाठ भी अनिवार्य था, सो, वे भी आपके सामने हैं...


भोजन मंत्र... 

ओऽम् सह नाववतु,
सह नौ भुनक्तु
सह वीर्यम् करवावहै,
तेजस्विनावधीतमस्तु,
मा विद्विषावहै...
ओऽम् शान्तिः शान्तिः शान्तिः
 

अर्थ : इस प्रार्थना में गुरु और शिष्य कामना करते थे - हे प्रभु, हम दोनों को एक-दूसरे की रक्षा करने की सामर्थ्य दे... हम परस्पर मिलकर अपनी जाति, भाषा व संस्कृति की रक्षा करें... किसी भी शत्रु से भयभीत न हों... हमारी शिक्षा हमें एकता के सूत्र में बांधे, बुराइयों से मुक्त करे... हम एक-दूसरे पर विश्वास रखें...

सरस्वती वन्दना (मूल संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : प्राथमिक स्तर से लेकर दसवीं तक की मेरी पढ़ाई-लिखाई समर्थ शिक्षा समिति द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर एवं सरस्वती बाल मंदिर की नई दिल्ली स्थित हरि नगर शाखा में हुई... शिशु मंदिर के नाम में किसी का नाम जुड़ा था या नहीं, याद नहीं, परंतु बाल मंदिर की हमारी शाखा का पूरा नाम महाशय चूनीलाल सरस्वती बाल मन्दिर था...

हमारे विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रात:कालीन मंत्र, दो सरस्वती वन्दना (एक हिन्दी में तथा एक संस्कृत में), श्रीमद्भगवद्गीता के 10 श्लोकों का पाठ किया जाता था, जिनमें से कुछ वर्ष के उपरांत दो श्लोक बदल दिए गए थे (मैंने सभी 12 श्लोक यहां दिए हैं, और इंटरनेट पर होने का लाभ उठाते हुए सभी के अर्थ भी लिख दिए हैं)...

हमें विद्यालय से ही प्रार्थना की एक पुस्तिका (उसका नाम जहां तक याद है, 'अमृतवाणी' था) मिलती थी, जिसमें सभा के दौरान पढ़ी जाने वाली सभी प्रार्थनाएं प्रकाशित जाती थीं... 'अमृतवाणी' तो मुझे नहीं मिल पाई, परंतु गर्वान्वित हूं कि सिर्फ स्मृति के सहारे आज 21 वर्ष बाद भी लगभग सभी प्रार्थनाएं तलाश कर सका, या न मिलने की स्थिति में टाइप कर सका...

वैसे, विद्यालय की प्रार्थना सभा में कुछ वर्षों तक 'ऐक्य मंत्र' तथा 'गायत्री मंत्र' का भी पाठ हुआ... 'ऐक्य मंत्र' कतई याद नहीं है, परंतु 'गायत्री मंत्र' यहां इस ब्लॉग पर भावार्थ सहित आपको मिल जाएगा...

और हां, प्रार्थना सभा के अंत में सोमवार से शुक्रवार तक राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्...' तथा शनिवार को राष्ट्रीय गान 'जन गण मन...' का पाठ भी होता था, परंतु उन्हें यहां टाइप नहीं कर रहा हूं, क्योंकि वे बहुत-सी वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं...

विद्यालय में प्रात:कालीन प्रार्थना सभा के अतिरिक्त भोजनावकाश होने पर भोजन मंत्र, तथा विद्यालय की छुट्टी हो जाने से तुरंत पहले सायंकालीन प्रार्थना का पाठ भी अनिवार्य था, सो, वे भी आपके सामने हैं...


या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना॥
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता।
सा माम् पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा॥1॥

अर्थ : जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली मां सरस्वती हमारी रक्षा करें...

शुक्लाम् ब्रह्मविचार सार परमाम् आद्यां जगद्व्यापिनीम्।
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌॥
हस्ते स्फटिकमालिकाम् विदधतीम् पद्मासने संस्थिताम्‌।
वन्दे ताम् परमेश्वरीम् भगवतीम् बुद्धिप्रदाम् शारदाम्‌॥2॥

अर्थ : शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अंधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूं...

सरस्वती वन्दना (हिन्दी)

विशेष नोट : प्राथमिक स्तर से लेकर दसवीं तक की मेरी पढ़ाई-लिखाई समर्थ शिक्षा समिति द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर एवं सरस्वती बाल मंदिर की नई दिल्ली स्थित हरि नगर शाखा में हुई... शिशु मंदिर के नाम में किसी का नाम जुड़ा था या नहीं, याद नहीं, परंतु बाल मंदिर की हमारी शाखा का पूरा नाम महाशय चूनीलाल सरस्वती बाल मन्दिर था...

हमारे विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रात:कालीन मंत्र, दो सरस्वती वन्दना (एक हिन्दी में तथा एक संस्कृत में), श्रीमद्भगवद्गीता के 10 श्लोकों का पाठ किया जाता था, जिनमें से कुछ वर्ष के उपरांत दो श्लोक बदल दिए गए थे (मैंने सभी 12 श्लोक यहां दिए हैं, और इंटरनेट पर होने का लाभ उठाते हुए सभी के अर्थ भी लिख दिए हैं)...

हमें विद्यालय से ही प्रार्थना की एक पुस्तिका (उसका नाम जहां तक याद है, 'अमृतवाणी' था) मिलती थी, जिसमें सभा के दौरान पढ़ी जाने वाली सभी प्रार्थनाएं प्रकाशित जाती थीं... 'अमृतवाणी' तो मुझे नहीं मिल पाई, परंतु गर्वान्वित हूं कि सिर्फ स्मृति के सहारे आज 21 वर्ष बाद भी लगभग सभी प्रार्थनाएं तलाश कर सका, या न मिलने की स्थिति में टाइप कर सका...

वैसे, विद्यालय की प्रार्थना सभा में कुछ वर्षों तक 'ऐक्य मंत्र' तथा 'गायत्री मंत्र' का भी पाठ हुआ... 'ऐक्य मंत्र' कतई याद नहीं है, परंतु 'गायत्री मंत्र' यहां इस ब्लॉग पर भावार्थ सहित आपको मिल जाएगा...

और हां, प्रार्थना सभा के अंत में सोमवार से शुक्रवार तक राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्...' तथा शनिवार को राष्ट्रीय गान 'जन गण मन...' का पाठ भी होता था, परंतु उन्हें यहां टाइप नहीं कर रहा हूं, क्योंकि वे बहुत-सी वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं...

विद्यालय में प्रात:कालीन प्रार्थना सभा के अतिरिक्त भोजनावकाश होने पर भोजन मंत्र, तथा विद्यालय की छुट्टी हो जाने से तुरंत पहले सायंकालीन प्रार्थना का पाठ भी अनिवार्य था, सो, वे भी आपके सामने हैं...


सरस्वती वन्दना (हिन्दी)

हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी,
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे॥

जग सिरमौर बनाएं भारत,
वह बल विक्रम दे।
वह बल विक्रम दे॥

हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी,
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे॥

साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे।
स्वाभिमान भर दे॥1॥

हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी,
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे॥

लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम,
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा मां,
फिर घर-घर भर दे।
फिर घर-घर भर दे॥2॥

हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी,
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे॥

प्रात:कालीन मंत्र (मूल संस्कृत एवं हिन्दी अनुवाद सहित)

विशेष नोट : प्राथमिक स्तर से लेकर दसवीं तक की मेरी पढ़ाई-लिखाई समर्थ शिक्षा समिति द्वारा संचालित सरस्वती शिशु मंदिर एवं सरस्वती बाल मंदिर की नई दिल्ली स्थित हरि नगर शाखा में हुई... शिशु मंदिर के नाम में किसी का नाम जुड़ा था या नहीं, याद नहीं, परंतु बाल मंदिर की हमारी शाखा का पूरा नाम महाशय चूनीलाल सरस्वती बाल मन्दिर था...

हमारे विद्यालय की प्रार्थना सभा में प्रात:कालीन मंत्र, दो सरस्वती वन्दना (एक हिन्दी में तथा एक संस्कृत में), श्रीमद्भगवद्गीता के 10 श्लोकों का पाठ किया जाता था, जिनमें से कुछ वर्ष के उपरांत दो श्लोक बदल दिए गए थे (मैंने सभी 12 श्लोक यहां दिए हैं, और इंटरनेट पर होने का लाभ उठाते हुए सभी के अर्थ भी लिख दिए हैं)...

हमें विद्यालय से ही प्रार्थना की एक पुस्तिका (उसका नाम जहां तक याद है, 'अमृतवाणी' था) मिलती थी, जिसमें सभा के दौरान पढ़ी जाने वाली सभी प्रार्थनाएं प्रकाशित जाती थीं... 'अमृतवाणी' तो मुझे नहीं मिल पाई, परंतु गर्वान्वित हूं कि सिर्फ स्मृति के सहारे आज 21 वर्ष बाद भी लगभग सभी प्रार्थनाएं तलाश कर सका, या न मिलने की स्थिति में टाइप कर सका...

वैसे, विद्यालय की प्रार्थना सभा में कुछ वर्षों तक 'ऐक्य मंत्र' तथा 'गायत्री मंत्र' का भी पाठ हुआ... 'ऐक्य मंत्र' कतई याद नहीं है, परंतु 'गायत्री मंत्र' यहां इस ब्लॉग पर भावार्थ सहित आपको मिल जाएगा...

और हां, प्रार्थना सभा के अंत में सोमवार से शुक्रवार तक राष्ट्रीय गीत 'वन्दे मातरम्...' तथा शनिवार को राष्ट्रीय गान 'जन गण मन...' का पाठ भी होता था, परंतु उन्हें यहां टाइप नहीं कर रहा हूं, क्योंकि वे बहुत-सी वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं...

विद्यालय में प्रात:कालीन प्रार्थना सभा के अतिरिक्त भोजनावकाश होने पर भोजन मंत्र, तथा विद्यालय की छुट्टी हो जाने से तुरंत पहले सायंकालीन प्रार्थना का पाठ भी अनिवार्य था, सो, वे भी आपके सामने हैं...


प्रात:कालीन मंत्र 

कराग्रे वसते लक्ष्मी: करमध्ये सरस्वती।
करमूले तु गोविन्द: प्रभाते कर दर्शनम्॥ 

अर्थ : हाथ के अग्रभाग में लक्ष्मी, हाथ के मध्य में सरस्वती और हाथ के मूल (निचले भाग) में गोविन्द (विष्णु) वास करते हैं, अतः प्रातःकाल दोनों हाथों का अवलोकन करना चाहिए...

Saturday, December 13, 2008

मधुशाला... (डॉ हरिवंशराय 'बच्चन')

रचनाकार : डॉ हरिवंशराय 'बच्चन'

विशेष नोट : यह रचना मैंने एक-दो बार पढ़ी है, लेकिन याद नहीं कर सका... शायद इसलिए, क्योंकि बचपन में नहीं पढ़ी थी... हां, इसका बेहद चर्चित होना एक वजह है, मेरे ब्लॉग में इसके शामिल होने की...

मृदु भावों के अंगूरों की, आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से, आज पिलाऊंगा प्याला,
पहले भोग लगा लूं तेरा, फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।1।।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूंगा हाला,
एक पांव से साकी बनकर, नाचूंगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर, कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूंगा मैं, तुझ पर जग की मधुशाला।।2।।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर, तू बनता है पीने वाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक-दूसरे की हम दोनों, आज परस्पर मधुशाला।।3।।

भावुकता अंगूर लता से, खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है, भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा, लाख पिएं, दो लाख पिएं,
पाठकगण हैं पीने वाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।4।।

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूं हाला,
भरता हूं इस मधु से अपने, अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से, स्वयं उसे पी जाता हूं,
अपने ही में हूं मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।5।।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीने वाला,
'किस पथ से जाऊं?' असमंजस में है वह भोला-भाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब, पर मैं यह बतलाता हूं,
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।।6।।

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला,
'दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलाने वाला,
हिम्मत है न बढूं आगे को, साहस है न फिरूं पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर, दूर खड़ी है मधुशाला।।7।।

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा, एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर, सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।8।।

मदिरा पीने की अभिलाषा, ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही, जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते, जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।9।।

सुन, कलकल, छलछल मधुघट से, गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रुनझुन-रुनझुन चल वितरण, करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दूर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीने वाले, महक रही, ले, मधुशाला।।10।।

जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रुनझुन साकीबाला,
डांट-डपट मधुविक्रेता की, ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता, और बढ़ाती मधुशाला।।11।।

मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर, माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले, स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला, डाट डटे पीने वाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती, आज रंगीली मधुशाला।।12।।

हाथों में आने से पहले, नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले, अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा, साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।13।।

लाल सुरा की धार लपट-सी, कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको, कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है, इस मदिरा का, विगत स्मृतियां साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।14।।

जगती की शीतल हाला-सी, पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले-सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में, दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।15।।

बहती हाला देखी, देखो, लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला, अब छूते ही, होंठ जला देने वाला,
होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले,
ऐसे मधु के दीवानों को, आज बुलाती मधुशाला।।16।।

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरजे, सबको तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादरियों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का, स्वागत मेरी मधुशाला।।17।।

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को, पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की, उसने मधुमय मधुशाला।।18।।

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से, मधु के प्यालों की माला,
'और लिए जा, और पिए जा', इसी मंत्र का जाप करे,
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।19।।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन, देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपतियों के, गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीने वाले, खुली रहे यह मधुशाला।।20।।

बड़े-बड़े परिवार मिटें यों, एक न हो रोने वाला,
हो जाएं सुनसान महल वे, जहां थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएं, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीने वाले, जगा करेगी मधुशाला।।21।।

सब मिट जाएं, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के, स्थान सभी सुनसान बनें,
झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।22।।

भुरा सदा कहलाएगा जग में बांका, मदचंचल प्याला,
छैल-छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीने वाला,
पटे कहां से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदिन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।23।।

बिना पिए जो मधुशाला को, बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुंह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है, जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में, आई मेरी मधुशाला।।24।।

हरा-भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहां मुहर्रम का तम छाए, यहां होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी, वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।25।।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनिया वालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।26।।

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीने वाला,
कौन अपरिचित उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।27।।

बनी रहें अंगूर लताएं, जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी, जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा, तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।28।।

सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे, मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न मिलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।29।।

सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा, रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊं, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।30।।

तारक मणियों से सज्जित नभ, बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए, उसमें सागरजल हाला,
मत्त समीरण साकी बनकर, अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से, विश्व बने यह मधुशाला।।31।।

अधरों पर हो कोई भी रस, जिहवा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में, लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आंखों के आगे हो कुछ भी, आंखों में है मधुशाला।।32।।

पौधे आज बने हैं साकी, ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर, परिमल-मधु-सुरभित हाला,
मांग-मांगकर भ्रमरों के दल, रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला।।33।।

प्रति रसाल तरु साकी-सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर, मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल, कूक रही डाली-डाली,
हर मधुऋतु में अमराई में, जग उठती है मधुशाला।।34।।

मंद झकोरों के प्यालों में, मधुऋतु सौरभ की हाला,
भर-भरकर है अनिल पिलाता, बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे-हरे नवपल्लव, तरुगण, नूतन डालें, वल्लरियां,
छक-छक, झुक-झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।35।।

साकी बन आती है प्रातः, जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे, मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको, पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में, मुखरित होती मधुशाला।।36।।

उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली, नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब, इसको पीकर मिट जाते,
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी, जाग्रत रहती मधुशाला।।37।।

अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला,
किरण-किरण में जो छलकाती, जाम, जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो, लेने लगते हैं झपकी,
तारकदल से पीने वाले, रात नहीं है, मधुशाला।।38।।

किसी ओर मैं आंखें फेरूं, दिखलाई देती हाला,
किसी ओर मैं आंखें फेरूं, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी,
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।39।।

साकी बन मुरली आई, साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई, अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी, नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है, नाच नचाती मधुशाला।।40।।

वादक बन मधु का विक्रेता, लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियां बन साकी आईं, भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर, दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।41।।

चित्रकार बन साकी आता, लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता, वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर, रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है, एक मनोहर मधुशाला।।42।।

घन श्यामल अंगूर लता से, खिंच-खिंच यह आती हाला,
अरुण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन-बन, माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मत्त होते पी-पीकर, मानसरोवर मधुशाला।।43।।

हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियां साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने, छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।44।।

धीर सुतों के हृदय रक्त की, आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का, हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है, आज बनी भारत माता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका, बलिवेदी है मधुशाला।।45।।

दुतकारा मस्जिद ने मुझको, कहकर है पीने वाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने, देख हथेली पर प्याला,
कहां ठिकाना मिलता जग में, भला अभागे काफिर को,
शरणस्थल बनकर न मुझे, यदि अपना लेती मधुशाला।।46।।

पथिक बना मैं घूम रहा हूं, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।47।।

सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सज-धजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहां तुलना हो सकती, मस्जिद की मदिरालय से,
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।48।।

बजी नफ़ीरी और नमाज़ी, भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में, मग्न रहा पीने वाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूं तो मस्जिद को,
अभी युगों तक सिखलाएगी, ध्यान लगाना मधुशाला।।49।।

मुसलमान औ' हिन्दू हैं दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक, मस्जिद-मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद-मन्दिर, मेल कराती मधुशाला।।50।।

कोई भी हो, शेख, नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो, मदिरा से रखने वाला,
एक बार बस मधुशाला के, आगे से होकर निकले,
देखूं कैसे थाम न लेती, दामन उसका मधुशाला।।51।।

और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी, तब तक मस्जिद-मन्दिर में,
घूंघट का पट खोल न जब तक, झांक रही है मधुशाला।।52।।

आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर, कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद, जगत में कोई, फिर,
जहां अभी हैं मन्दिर-मस्जिद, वहां बनेगी मधुशाला।।53।।

यज्ञ अग्नि-सी धधक रही है, मधु की भट्ठी की ज्वाला,
ऋषि-सा ध्यान लगा बैठा है, हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं-सी मधुघट ले, फिरतीं साकीबालाएं,
किसी तपोवन से क्या कम है, मेरी पावन मधुशाला।।54।।

सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदविहित यह रस्म न छोड़ो, वेदों के ठेकेदारों,
युग-युग से है पुजती आई, नई नहीं है मधुशाला।।55।।

वही वारुणी, जो थी सागर मथकर, निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में, कहलाती 'साकीबाला',
देव-अदेव जिसे ले आए, संत-महंत मिटा देंगे,
किसमें कितना दम-खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।56।।

कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहां पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम, अकेले मधुशाला।।57।।

श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके, यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हरिजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हैं मंदिर वाले, पलक बिछाती मधुशाला।।58।।

एक तरह से सबका स्वागत, करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर, हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है, कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।59।।

बार-जबार मैंने आगे बढ़, आज नहीं मांगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको, साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी, दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूंज उठेगी मधुशाला।।60।।

कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीने वाला,
हो सकते कल कर जड़ जिनसे, फिर-फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला, काल कुटिल की मधुशाला।।61।।

आज मिला अवसर, तब फिर क्यों, मैं न छकूं जी-भर हाला,
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूं जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से, आज न क्यों जी-भर कर लूं,
एक बार ही तो मिलनी है, जीवन की यह मधुशाला।।62।।

आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से, भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनूं मैं पीने वाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।63।।

सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला,
छलक रही है जिसमें माणिक, रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही, पीने वाला बनता हूं,
जहां कहीं मिल-बैठें हम-तुम, वहीं गई हो मधुशाला।।64।।

दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर, ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है, वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाज़ों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल, फ़र्ज़-अदाई मधुशाला।।65।।

छोटे-से जीवन में कितना, प्यार करूं, पी लूं हाला,
आने के ही साथ जगत में, कहलाया 'जाने वाला',
स्वागत के ही साथ विदा की, होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही, मेरी जीवन-मधुशाला।।66।।

क्या पीना, निर्द्वन्द्व न जब तक, ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निश्चिन्त, न जब तक, साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है, पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती, मिलकर के भी मधुशाला।।67।।

मुझे पिलाने को लाए हो, इतनी थोड़ी-सी हाला,
मुझे दिखाने को लाए हो, एक यही छिछला प्याला,
इतनी पी जीने से अच्छा, सागर की ले प्यास मरूं,
सिंधु-तृषा दी किसने रचकर, बिंदु-बराबर मधुशाला।।68।।

क्या कहता है, रह न गई अब, तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी, मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो, शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर, प्यास बढ़ाती मधुशाला।।69।।

लिखी भाग्य में जितनी बस, उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस, वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथपांव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस, वही मिलेगी मधुशाला।।70।।

कर ले, कर ले, कंजूसी तू, मुझको देने में हाला,
दे ले, दे ले, तू मुझको बस, यह टूटा-फूटा प्याला,
मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहूंगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।71।।

ध्यान मान का, अपमानों का, छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में, जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में, क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर, पाई मैंने मधुशाला।।72।।

क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल, मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर, कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी, अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीने वाला, संसृति है यह मधुशाला।।73।।

प्याले-सा गढ़ हमें किसी ने, भर दी जीवन की हाला,
नशा न भाया, ढाला हमने, ले-लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का दर्द उभरता, उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।74।।

अपने अंगूरों से तन में, हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।75।।

यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूंगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के, क्या समझेगा मतवाला,
क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के,
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।76।।

यदि इन अधरों से दो बातें, प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी, पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस, एक खिलौना मधुशाला।।77।।

याद न आए दुखमय जीवन, इससे, पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के, और स्वाद के, हेतु पिया जग करता है,
पर मैं वह रोगी हूं, जिसकी, एक दवा है मधुशाला।।78।।

गिरती जाती है दिन-प्रतिदिन, प्रणयनी प्राणों की हाला,
भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदिन, सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे, रूपसी, दिन-दिन यौवन का साकी,
सूख रही है दिन-दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।79।।

यम आएगा साकी बनकर, साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा, सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंतिम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको, फिर न मिलेगी मधुशाला।।80।।

ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला,
पत्र गरल का, ले जब अंतिम, साकी है आने वाला,
हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले,
कानों में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।81।।

मेरे अधरों पर हो, अंतिम वस्तु, न तुलसीदल, प्याला,
मेरी जीव्हा पर हो, अंतिम वस्तु, न गंगाजल, हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों, याद इसे रखना,
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।82।।

मेरे शव पर वह रोए, हो जिसके आंसू में हाला,
आह भरे वो, जो हो सुरभित, मदिरा पीकर मतवाला,
दे मुझको वो कान्धा, जिनके, पग मद डगमग होते हों,
और जलूं उस ठौर, जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।83।।

और चिता पर जाए उंढेला, पत्र न घ्रित का, पर प्याला,
कंठ बंधे अंगूर लता में, मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राद्ध करो तुम, मेरा, तो ऐसे करना,
पीने वालों को बुलवाकर, खुलवा देना मधुशाला।।84।।

नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीने वाला,
काम ढालना, और ढालना सबको, मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई, कह देना दीवानों की,
धर्म बताना प्यालों की, ले माला जपना मधुशाला।।85।।

ज्ञात हुआ यम आने को है, ले अपनी काली हाला,
पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी, पीने वाला मधुशाला।।86।।

यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे, साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहां कहीं भी, तेरा जी हो, लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के, साथ रहे यदि मधुशाला।।87।।

पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलाने वाला प्याला, पी जाने वाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे, न्याय यही बतलाता है,
कैद जहां मैं हूं, की जाए, कैद वहीं पर मधुशाला।।88।।

शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता, हर पीने वाला,
कितनी इच्छाएं हर जाने वाला, छोड़ यहां जाता,
कितने अरमानों की बनकर, कब्र खड़ी है मधुशाला।।89।।

जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं मांग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा, न मिली वह मधुशाला।।90।।

देख रहा हूं अपने आगे, कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूं अपने आगे, कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया' - कह-कह कब से, दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी, मुझसे मेरी मधुशाला।।91।।

कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके, प्याला फिर चमका जाती,
आंखमिचौली खेल रही है, मुझसे मेरी मधुशाला।।92।।

'आ आगे' कहकर, कर पीछे, कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर, हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहां तक, यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा-बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।93।।

हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में, हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनिया वालों, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको, मिलते-मिलते मधुशाला।।94।।

प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारूं, पास न इतनी पा जाऊं,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में, मृगजल बनकर मधुशाला।।95।।

मिले न, पर, ललचा-ललचा क्यों, आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा-तरसाकर क्यों, तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी, मस्तक पर यह खोद गई,
'दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला'।।96।।

मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूं, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
'भाग्य प्रबल, मानव निर्बल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।97।।

किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूंढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में, मुझ-सा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूंढ़ रहा था मधुशाला।।98।।

उस प्याले से प्यार मुझे, जो, दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे, जो, दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में,
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।99।।

साकी के पास है तनिक-सी श्री, सुख, संपति की हाला,
सब जग है पीने को आतुर, ले ले, किस्मत का प्याला,
रेल-ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।100।।

साकी, जब है पास तुम्हारे, इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलाषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस-पिसकर मरते हैं, तुम छिप-छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है, क्रीड़ा करती मधुशाला।।101।।

साकी, मर-खपकर यदि कोई, आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, परिश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के, हेतु बनी है मधुशाला।।102।।

जिसने मुझको प्यासा रक्खा, बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया, बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिहवा से हैं, कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाया जिसने मुझको, सुखी रहे वह मधुशाला।।103।।

नहीं चाहता, आगे बढ़कर, छीनूं औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूं औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो, मुझको तनिक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम, आंखों से देख रहा हूं मधुशाला।।104।।

मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूं मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब, नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना, मैं पागल हो जाऊंगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।105।।

क्या मुझको आवश्यकता है, साकी से मांगूं हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है, साकी से चाहूं प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से,
मैं तो पागल हो उठता हूं, सुन लेता यदि मधुशाला।।106।।

देने को जो मुझे कहा था, दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था, दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं, कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब, शरमा जाती मधुशाला।।107।।

एक समय संतुष्ट बहुत था, पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे, स्वर्ग बलाएं लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला।।108।।

बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भांति-भांति का आया मेरे, हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जंची न आंखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।109।।

एक समय छलका करती थी, मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था, मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीने वाले, साकी, आलिंगन करते थे,
आज बनी हूं निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।110।।

जला हृदय की भट्टी खींची, मैंने आंसू की हाला,
छल-छल छलका करता इससे, पल-पल पलकों का प्याला,
आंखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूं चलती-फिरती मधुशाला।।111।।

कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना, चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता, हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का, आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी, रात लगी थी मधुशाला।।112।।

बूंद बूंद के हेतु कभी तुझको, तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा, तेरा यह मादक प्याला,
पीने वाले, साकी की मीठी बातों में, मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती, एक दिवस थी मधुशाला।।113।।

छोड़ा मैंने पथ मतों को, तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने, तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला, मेरे पीछे-पीछे फिरती है,
क्या कारण, अब छोड़ दिया है, मैंने जाना मधुशाला।।114।।

यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया, ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को,
अपनाया जब, इन चरणों में, लोट रही थी मधुशाला।।115।।

कितनी आई और गई पी, इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही, मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना-अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीने वाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।116।।

कितने होठों को रक्खेगी, याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा, याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा, याद भला भोला साकी,
कितने पीने वालों में है, एक अकेली मधुशाला।।117।।

दर-दर घूम रहा था जब मैं, चिल्लाता - हाला, हाला,
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर, नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हूं, घूम रही है मधुशाला।।118।।

मैं मदिरालय के अंदर हूं, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंबित, करने वाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा, सारा जीवन बीत गया,
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला।।119।।

किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में, तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।120।।

वह हाला, कर शांत सके जो, मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंबित-प्रतिबंबित प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं, जहां पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहां मस्ती की मिलती, मेरी तो वह मधुशाला।।121।।

मतवालापन हाला से ले, मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल, अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में, भूल गया मैं मधुशाला।।122।।

मदिरालय के द्वार ठोंकता, किस्मत का छंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर-भर, कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी-सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया,
बंद हो गई कितनी जल्दी, मेरी जीवन मधुशाला।।123।।

कहां गया वह स्वर्गिक साकी, कहां गई सुरभित हाला,
कहां गया स्वप्निल मदिरालय, कहां गया स्वर्णिम प्याला,
पीने वालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना,
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।124।।

अपने युग में सबको अनुपम, ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत, ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा, एक यही उत्तर पाया,
अब न रहे वे पीने वाले, अब न रही वह मधुशाला।।125।।

'मय' को करके शुद्ध दिया अब, नाम गया उसको, 'हाला'
'मीना' को 'मधुपात्र' दिया, 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंडित जी,
'मय-महफिल' अब अपना ली है, मैंने करके 'मधुशाला'।।126।।

कितने मर्म जता जाती है, बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है, बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीने वालों को है, एक पहेली मधुशाला।।127।।

जितनी दिल की गहराई हो, उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो, उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो, उतना सुन्दर साकी है,
जितना ही जो रसिक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।128।।

जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छू दे, कर दे विक्षिप्त, उसे मेरा प्याला,
आंख चार हों, जिसकी मेरे साकी से, दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह, जो आए मेरी मधुशाला।।129।।

हर जिहवा पर देखी जाएगी, मेरी मादक हाला,
हर कर में देखा जाएगा, मेरे साकी का प्याला,
हर घर में चर्चा अब होगी, मेरे मधुविक्रेता की,
हर आंगन में गमक उठेगी, मेरी सुरभित मधुशाला।।130।।

मेरी हाला में सबने पाई, अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया, अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने, अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुचि थी, उसने वैसी देखी मधुशाला।।131।।

यह मदिरालय के आंसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आंखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है, साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं कवि का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।132।।

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक, बना पाया प्याला,
पी पीने वाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे, तब खड़ी हुई यह मधुशाला।।133।।

विश्व, तुम्हारे विषमय जीवन में, ला पाएगी हाला,
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियां कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना, मेरी मधुशाला।।134।।

बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने, पाली है साकीबाला,
कलित कल्पना का ही इसने, सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना, इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब, सौंप रहा हूँ मधुशाला।।135।।

- परिशिष्ट से -

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।।

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढाला,
मेरे तन के लोहू में है, पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है, मदिरालय के आंगन पर,
मेरे दादों-परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।।

बहुतों के सिर, चार दिनों तक चढ़कर, उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन, छलक-झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की, साथ समय के, इससे ही,
और पुरानी होकर मेरी, और नशीली मधुशाला।।

पितृ पक्ष में, पुत्र, उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला,
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला,
किसी जगह की मिट्टी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी,
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़-पढ़कर के मधुशाला।।

हम पंछी उन्मुक्त गगन के... (शिवमंगल सिंह 'सुमन')

रचनाकार : शिवमंगल सिंह 'सुमन'


हम पंछी उन्मुक्त गगन के,
पिंजरबद्ध न गा पाएंगे,
कनक-तीलियों से टकराकर,
पुलकित पंख टूट जाएंगे...

हम बहता जल पीने वाले,
मर जाएंगे भूखे-प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबौरी,
कनक-कटोरी की मैदा से...

स्वर्ण-शृंखला के बंधन में,
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं,
तरु की फुनगी पर के झूले...

ऐसे थे अरमान कि उड़ते,
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण-सी चोंच खोल,
चुगते तारक-अनार के दाने...

होती सीमाहीन क्षितिज से,
इन पंखों की होड़ा-होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता,
या तनती सांसों की डोरी...

नीड़ न दो, चाहे टहनी का,
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो,
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो...

आराम करो... (गोपालप्रसाद व्यास)

रचनाकार : गोपालप्रसाद व्यास

एक मित्र मिले, बोले, लाला, तुम किस चक्की का खाते हो,
इस डेढ़ छंटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो...,
क्या रक्खा मांस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो,
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो...
हम बोले, रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो,
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो...

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है,
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है...
आराम शब्द में 'राम' छिपा, जो भव-बंधन को खोता है,
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है...
इसलिए तुम्हें समझाता हूं, मेरे अनुभव से काम करो,
यह जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो...

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो,
अपने घर में बैठे-बैठे, बस लंबी-लंबी बात करो...
करने-धरने में क्या रक्खा, जो रक्खा बात बनाने में,
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में...
तुम मुझसे पूछो, बतलाऊं, है मज़ा, मूर्ख कहलाने में,
जीवन-जागृति में क्या रक्खा, जो रक्खा है सो जाने में...

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूं,
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूं...
दीए जलने के पहले ही, घर में आ जाया करता हूं,
जो मिलता है, खा लेता हूं, चुपके सो जाया करता हूं...
मेरी गीता में लिखा हुआ, सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं...

अदवायन खिंची खाट में जो, पड़ते ही आनंद आता है,
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊंचा उठ जाता है...
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सिर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूं इस सिर में, इंजन जैसा लग जाता है...
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूं, बुद्धि भी फक-फक करती है,
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है...

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूं,
मैं पड़ा खाट पर बूटों को, ऊंटों की उपमा देता हूं...
मैं खटरागी हूं, मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं,
छत की कड़ियां गिनते-गिनते, छंदों के बंध टूटते हैं...
मैं इसीलिए तो कहता हूं, मेरे अनुभव से काम करो,
यह खाट बिछा लो आंगन में, लेटो, बैठो, आराम करो...

ऐ मालिक तेरे बन्दे हम... (फिल्मी प्रार्थना)

रचनाकार : भरत व्यास
फिल्म : दो आंखें बारह हाथ (1957)
पार्श्वगायन : लता मंगेशकर, वी शांताराम
संगीतकार : वसंत देसाई

विशेष नोट : वी शांताराम द्वारा बनाई हिन्दी फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' में फिल्माया गया यह गीत आज भी बहुत-से विद्यालयों में प्रार्थना के रूप में गाया जाता है...

ऐ मालिक तेरे बन्दे हम,
ऐसे हों हमारे करम,
नेकी पर चलें,
और बदी से टलें,
ताकि हंसते हुए निकले दम...
ऐ मालिक तेरे बन्दे हम...

जब ज़ुल्मों का हो सामना,
तब तू ही हमें थामना,
वो बुराई करें,
हम भलाई भरें,
नहीं बदले की हो कामना...
बढ़ उठे प्यार का हर कदम,
और मिटे बैर का ये भरम,
नेकी पर चलें,
और बदी से टलें,
ताकि हंसते हुए निकले दम...
ऐ मालिक तेरे बन्दे हम...

ये अंधेरा घना छा रहा,
तेरा इनसान घबरा रहा,
हो रहा बेखबर,
कुछ न आता नज़र,
सुख का सूरज छिपा जा रहा,
है तेरी रोशनी में वो दम,
जो अमावस को कर दे पूनम,
नेकी पर चलें,
और बदी से टलें,
ताकि हंसते हुए निकले दम...
ऐ मालिक तेरे बन्दे हम...

बड़ा कमज़ोर है आदमी,
अभी लाखों हैं इसमें कमी,
पर तू जो खड़ा,
है दयालू बड़ा,
तेरी किरपा से धरती थमी,
दिया तूने हमें जब जनम,
तू ही झेलेगा हम सबके ग़म,
नेकी पर चलें,
और बदी से टलें,
ताकि हंसते हुए निकले दम...
ऐ मालिक तेरे बन्दे हम...

नख-शिख वर्णन... (काका हाथरसी)

रचनाकार : काका हाथरसी

विशेष नोट : काका हाथरसी बहुत छोटी-सी आयु (मेरी ही आयु की बात कर रहा हूं) से ही मेरे पसंदीदा हास्य कवि रहे हैं... उनकी एक पुस्तक 'काका काकी के लव लेटर्स' वर्ष 1980 में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने अविवाहित जीवन के संस्मरणों का उल्लेख करते हुए अपनी 'होने वाली पत्नी' की सुन्दरता का बखान किया था, जिसे उन्होंने सपने में देखा था... यह मुझे आज तक याद है, और मुझे बेहद पसंद भी है...

सीस मध्य जो मांग है, लागे अति रमणीक,
काहु पार्क की घास में, जैसे लम्बी लीक...

ललि को ललित ललाट ज्यों, कलाकंद-कौ थाल,
खुरमा, खस्ता, कचौड़ी, रसगुल्ला-से गाल...

नज़र रोकने के लिए, बिंदिया दीनी भाल,
जैसे चलती रेल को, रोके सिगनल लाल...

भिन्डी जैसी भृकुटि हैं, तुरई जैसी नाक,
जामुन जैसी पुतलियां, आंख आम की फांक...

कच्चे पापड़-से पलक, ढंके-उघारें नैन,
मन में कुदकें मेंढका, मटकाओ जब सैन...

झिलमिल झुमका कान में, झूलन को मजबूर,
जैसे मगही पान में, टांक दिए अंगूर...

हंसत गाल गड्ढा परें, चित्र बनत तत्काल,
जैसे गहरी झील सों, सोभित नैनीताल...

दंत-पंक्ति मक्का जडी, लाल मिर्च-से होंठ,
जीभ लपाके लेय तौ, कहा हमारौ खोट...

ठोड़ी पर गुदना गुदयो, ऐसौ लाग्यौ मोय,
ज्यों होंठन की ओट में, भंवरा बैठो होय...

ग्रीवा बोतल सुरा की, जिय में भरती जोश,
लड़खड़ाएं गिर-गिर पड़ें, बिना पिए मदहोश...

लट लहराएं वक्ष पर, जैसे करियल सांप,
मन ललचाए छुअन को, हाथ रहे हैं कांप...

कुच, कुछ-कुछ ऐसे लगें, जैसे पंख पसार,
दो पक्षी हों वृक्ष पर, उड़ने को तैयार...

भुज भुजबंदों से सजी, अंगिया देत बहार,
लटकें लौकी लता में, जैसे छप्पर फार...

पतरी-पतरी अंगुलियां, मन को रहीं लुभाय,
ज्यों लखनऊ की ककड़ियां, रक्खी झाल सजाय...

कटि काका की छड़ी-सी, जंघा मुगदर लम्ब,
दो तरबूजे फिट किए, ऐसे सुघड़ नितम्ब...

लाल महावर सों सजी, एड़ी सेब समान,
तलुआ हलुआ-से लगें, चाटें सजन सुजान...

नवल-नुकीले नख दिए, नहिं विधना को खोट,
कोऊ छेड़खानी करे, लीजै नोंच-खसोट...

खांसे तो खम्माज है, हांसे तो हिंडोल,
मिमियाए तो मारवा, बीन सरीखे बोल...

रूप-सूप पीवत रहें, झिय में उठत उमंग,
पिय के हिय सब धंसि गए, तिय के अंग-प्रत्यंग...

कबहुं न बासी है सके, कबहुं न बूढ़ी होय,
बनी रहे चिर-यौवना, कबहुं न छोड़े मोय...

इतिहास की परीक्षा...

रचनाकार : अज्ञात

विशेष नोट : यह मेरे बचपन की सबसे मीठी यादों में से एक है... इसे और परीक्षा से ही जुड़ी एक अन्य कविता को मैंने सिर्फ एक-एक बार सुनकर याद किया था, और आज भी बिना रुके टाइप करता चला गया...

इतिहास परीक्षा थी उस दिन,
चिंता से हृदय धड़कता था,
जब से जागा था सुबह, तभी से,
बायां नयन फड़कता था...

जो उत्तर मैंने याद किए,
उनमें से आधे याद हुए,
वे भी स्कूल पहुंचने तक,
यादों में ही बरबाद हुए...

जो सीट दिखाई दी खाली,
उस पर ही डटकर जा बैठा,
था एक निरीक्षक कमरे में,
वह आया, झल्लाया, ऐंठा...

रे, रे, तेरा है ध्यान किधर,
क्यों करके आया देरी है,
तू यहां कहां पर आ बैठा,
उठ जा, यह कुर्सी मेरी है...

मैं उचका एक उचक्के-सा,
मुझमें सीटों में मैच हुआ,
चकरा-टकराकर कहीं एक,
कुर्सी के द्बारा कैच हुआ...

पर्चे पर मेरी नज़र पड़ी,
तो सारा बदन पसीना था,
फिर भी पर्चे से डरा नहीं जो,
यह मेरा ही सीना था...

कॉपी के बरगद पर मैंने,
बस, कलम-कुल्हाड़ा दे मारा,
घंटे-भर के भीतर कर डाला,
प्रश्नों का वारा-न्यारा...

गौतम जो बुद्ध हुए जाकर,
वह गांधी जी के चेले थे,
दोनों बचपन में नेहरू के संग,
आंख-मिचौनी खेले थे...

होटल का मालिक था अशोक,
जो ताज महल में रहता था,
ओ अंग्रेजों, भारत छोड़ो,
वह लाल किले से कहता था...

झांसा दे जाती थी सबको,
ऐसी थी झांसी की रानी,
अक्सर अशोक के होटल में,
खाया करती थी बिरयानी...

ऐसे ही चुन-चुनकर मैंने,
प्रश्नों के पापड़ बेल दिए,
उत्तर के ये ऊंचे पहाड़,
टीचर की ओर धकेल दिए...

टीचर जी इस ऊंचाई तक,
बेचारे कैसे चढ़ पाते,
लाचार पुराने चश्मे से,
इतिहास नया क्या पढ़ पाते...

उनके बस के बाहर,
मेरे इतिहासों का भूगोल हुआ,
ऐसे में फिर क्या होना था,
मेरा नम्बर गोल हुआ...
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