रचनाकार : मैथिली शरण गुप्त
विशेष नोट : कर्म करने की प्रेरणा देती यह कविता भी मैंने शायद छठी या सातवीं कक्षा में ही पढ़ी थी...
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग में रह के निज नाम करो...
यह जन्म हुआ, किस अर्थ, अहो!
समझो, जिसमें यह व्यर्थ न हो...
कुछ तो उपयुक्त करो तन को,
नर हो, न निराश करो मन को...
संभलो कि सुयोग न जाए चला,
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला...
समझो जग को न निरा सपना,
पथ आप प्रशस्त करो अपना...
अखिलेश्वर है अवलम्बन को,
नर हो, न निराश करो मन को...
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहां,
फिर जा सकता वह सत्त्व कहां!
तुम स्वत्त्व सुधा रसपान करो,
उठ के अमरत्व विधान करो...
दवरूप रहो भव कानन को,
नर हो, न निराश करो मन को...
निज गौरव का नित ज्ञान रहे,
हम भी कुछ हैं, यह ध्यान रहे...
सब जाय अभी, पर मान रहे,
मरणोत्तर गुंजित गान रहे...
कुछ हो, न तजो निज साधन को,
नर हो, न निराश करो मन को...
बचपन से ही कविताओं का शौकीन रहा हूं, व नानी, मां, मौसियों के संस्कृत श्लोक व भजन भी सुनता था... कुछ का अनुवाद भी किया है... वैसे यहां अनेक रचनाएं मौजूद हैं, जिनमें कुछ के बोल मार्मिक हैं, कुछ हमें गुदगुदाते हैं... और हां, यहां प्रकाशित प्रत्येक रचना के कॉपीराइट उसके रचयिता या प्रकाशक के पास ही हैं... उन्हें श्रेय देकर ही इन रचनाओं को प्रकाशित कर रहा हूं, परंतु यदि किसी को आपत्ति हो तो कृपया vivek.rastogi.2004@gmail.com पर सूचना दें, रचना को तुरंत हटा लिया जाएगा...
Friday, December 12, 2008
नर हो, न निराश करो मन को... (मैथिली शरण गुप्त)
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This poem inspire me when I was in down fall in my life. And really this poem changed my life. I always tell this poem to other.
ReplyDeleteThis poem inspire me when I was in down fall in my life. And really this poem changed my life. I always tell this poem to other .
ReplyDeleteYeah, Manish bhai... This really is inspiring... :-)
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