रचनाकार : काका हाथरसी
विशेष नोट : काका हाथरसी बहुत छोटी-सी आयु (मेरी ही आयु की बात कर रहा हूं) से ही मेरे पसंदीदा हास्य कवि रहे हैं... उनकी एक पुस्तक 'काका काकी के लव लेटर्स' वर्ष 1980 में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्होंने अविवाहित जीवन के संस्मरणों का उल्लेख करते हुए अपनी 'होने वाली पत्नी' की सुन्दरता का बखान किया था, जिसे उन्होंने सपने में देखा था... यह मुझे आज तक याद है, और मुझे बेहद पसंद भी है...
सीस मध्य जो मांग है, लागे अति रमणीक,
काहु पार्क की घास में, जैसे लम्बी लीक...
ललि को ललित ललाट ज्यों, कलाकंद-कौ थाल,
खुरमा, खस्ता, कचौड़ी, रसगुल्ला-से गाल...
नज़र रोकने के लिए, बिंदिया दीनी भाल,
जैसे चलती रेल को, रोके सिगनल लाल...
भिन्डी जैसी भृकुटि हैं, तुरई जैसी नाक,
जामुन जैसी पुतलियां, आंख आम की फांक...
कच्चे पापड़-से पलक, ढंके-उघारें नैन,
मन में कुदकें मेंढका, मटकाओ जब सैन...
झिलमिल झुमका कान में, झूलन को मजबूर,
जैसे मगही पान में, टांक दिए अंगूर...
हंसत गाल गड्ढा परें, चित्र बनत तत्काल,
जैसे गहरी झील सों, सोभित नैनीताल...
दंत-पंक्ति मक्का जडी, लाल मिर्च-से होंठ,
जीभ लपाके लेय तौ, कहा हमारौ खोट...
ठोड़ी पर गुदना गुदयो, ऐसौ लाग्यौ मोय,
ज्यों होंठन की ओट में, भंवरा बैठो होय...
ग्रीवा बोतल सुरा की, जिय में भरती जोश,
लड़खड़ाएं गिर-गिर पड़ें, बिना पिए मदहोश...
लट लहराएं वक्ष पर, जैसे करियल सांप,
मन ललचाए छुअन को, हाथ रहे हैं कांप...
कुच, कुछ-कुछ ऐसे लगें, जैसे पंख पसार,
दो पक्षी हों वृक्ष पर, उड़ने को तैयार...
भुज भुजबंदों से सजी, अंगिया देत बहार,
लटकें लौकी लता में, जैसे छप्पर फार...
पतरी-पतरी अंगुलियां, मन को रहीं लुभाय,
ज्यों लखनऊ की ककड़ियां, रक्खी झाल सजाय...
कटि काका की छड़ी-सी, जंघा मुगदर लम्ब,
दो तरबूजे फिट किए, ऐसे सुघड़ नितम्ब...
लाल महावर सों सजी, एड़ी सेब समान,
तलुआ हलुआ-से लगें, चाटें सजन सुजान...
नवल-नुकीले नख दिए, नहिं विधना को खोट,
कोऊ छेड़खानी करे, लीजै नोंच-खसोट...
खांसे तो खम्माज है, हांसे तो हिंडोल,
मिमियाए तो मारवा, बीन सरीखे बोल...
रूप-सूप पीवत रहें, झिय में उठत उमंग,
पिय के हिय सब धंसि गए, तिय के अंग-प्रत्यंग...
कबहुं न बासी है सके, कबहुं न बूढ़ी होय,
बनी रहे चिर-यौवना, कबहुं न छोड़े मोय...
बचपन से ही कविताओं का शौकीन रहा हूं, व नानी, मां, मौसियों के संस्कृत श्लोक व भजन भी सुनता था... कुछ का अनुवाद भी किया है... वैसे यहां अनेक रचनाएं मौजूद हैं, जिनमें कुछ के बोल मार्मिक हैं, कुछ हमें गुदगुदाते हैं... और हां, यहां प्रकाशित प्रत्येक रचना के कॉपीराइट उसके रचयिता या प्रकाशक के पास ही हैं... उन्हें श्रेय देकर ही इन रचनाओं को प्रकाशित कर रहा हूं, परंतु यदि किसी को आपत्ति हो तो कृपया vivek.rastogi.2004@gmail.com पर सूचना दें, रचना को तुरंत हटा लिया जाएगा...
Saturday, December 13, 2008
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आपका चिटठा जगत में स्वागत है निरंतरता की चाहत है अत्यन्त भावभीनी कविता
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर भी पधारें
प्रिय प्रदीप जी... स्वागत के शब्दों के लिए हार्दिक धन्यवाद...
ReplyDeleteशब्दों का माया जाल !!!!
ReplyDeleteबहुत ही सरल सुंदर ओर सटीक कविता !!!
आभार !!!