दुष्यंत कुमार (1933-1975)
विशेष नोट : ये पंक्तियां मुझे हमेशा बेहद प्रभावित करती हैं, और अंदर के आंदोलन को अभिव्यक्ति और सहारा देती महसूस होती हैं...
हो गई है पीर पर्वत सी, पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए...
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी, कि यह बुनियाद हिलनी चाहिए...
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में,
हाथ लहराते हुए, हर लाश चलनी चाहिए...
सिर्फ हंगामा खड़ा करना, मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है, कि यह सूरत बदलनी चाहिए...
मेरे सीने में नहीं, तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए...
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