Friday, December 12, 2008

झांसी की रानी... (सुभद्रा कुमारी चौहान)

रचनाकार: सुभद्रा कुमारी चौहान


विशेष नोट : बचपन में अपने स्कूल की किताब में इस कविता को पढ़ा था... तब से अब तक इसके प्रति लगाव कम नहीं हुआ है, और जब भी पढ़ता हूं, रोंगटे खड़े हो जाते हैं...


सिंहासन हिल उठे, राजवंशों ने भृकुटि तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की, कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की, सबने मन में ठानी थी,

चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुंहबोली बहन छबीली थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के संग पढ़ती थी वह, नाना के संग खेली थी,
बरछी-ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी,

वीर शिवाजी की गाथाएं, उसको याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

लक्ष्मी थी या दुर्गा थी, वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते, उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना, ये थे उसके प्रिय खिलवार,

महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

हुई वीरता की, वैभव के साथ सगाई झांसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई, लक्ष्मीबाई झांसी में,
राजमहल में बजी बधाई, खुशियां छाईं झांसी में,
सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी, वह आई झांसी में,

चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके, काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में, उसे चूड़ियां कब भाईं,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई,

निसंतान मरे राजाजी, रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झांसी का, तब डलहौज़ी मन में हरषाया,
राज्य हड़प करने का उसने, यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर, अपना झंडा फहराया,
लावारिस का वारिस बनकर, ब्रिटिश राज्य झांसी आया,

अश्रुपूर्ण रानी ने देखा, झांसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था, जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं-नव्वाबों को भी, उसने पैरों ठुकराया।

रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महारानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदैपुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन बिसात,
जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर, अभी हुआ था वज्र-निपात,

बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

रानी रोईं रिनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,
उनके गहने-कपड़े बिकते थे, कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे, अंग्रेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो, लखनऊ के लो नौलख हार',

यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था, अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा, जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान,

हुआ यज्ञ प्रारम्भ, उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी, अंतरतम से आई थी,
झांसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थीं,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,

जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

इस स्वतंत्रता महायज्ञ में, कई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, तांतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुंवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में, अमर रहेंगे जिनके नाम,

लेकिन आज जुर्म कहलाती, उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चलें हम झांसी के मैदानों में,
जहां खड़ी है लक्ष्मीबाई, मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वॉकर आ पहुंचा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वन्द्व असमानों में,

ज़ख्मी होकर वॉकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोड़ा थककर गिरा भूमि पर, गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने, फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार,

अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुंह की खाई थी,
काना और मंदरा सखियां, रानी के संग आई थी,
युद्ध क्षेत्र में उन दोनों ने, भारी मार मचाई थी,

पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार-काटकर, चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गए सवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार,

घायल होकर गिरी सिंहनी, उसे वीरगति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

रानी गई सिधार, चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आई, बन स्वतंत्रता-नारी थी,

दिखा गई पथ, सिखा गई हमको, जो सीख सिखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी, याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फांसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झांसी,

तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुंह, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।।

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