विशेष नोट : बचपन में ही सुनता था, क्योंकि मां इसे ज़्यादा नहीं गातीं... नानीजी हमेशा गाती थीं, और उनके घर पर सुबह-सुबह हमेशा सुनाई देता था यह गीत...
जागिये रघुनाथ कुंवर, पंछी बन बोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर, पंछी बन बोले...
चंद्र किरण शीतल भई, चकवी पिय मिलन गई,
त्रिविधमंद चलत पवन, पल्लव द्रुम डोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर...
प्रातः भानु प्रकट भयो, रजनी को तिमिर गयो,
भृंग करत गुंजगान, कमलन दल खोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर...
ब्रह्मादिक धरत ध्यान, सुर नर मुनि करत गान,
जागन की बेर भई, नैन पलक खोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर...
तुलसीदास अति अनन्द, निरख के मुखारबिन्द,
दीनन को देत दान, भूषण बहु मोले...
जागिये रघुनाथ कुंवर...

बचपन से ही कविताओं का शौकीन रहा हूं, व नानी, मां, मौसियों के संस्कृत श्लोक व भजन भी सुनता था... कुछ का अनुवाद भी किया है... वैसे यहां अनेक रचनाएं मौजूद हैं, जिनमें कुछ के बोल मार्मिक हैं, कुछ हमें गुदगुदाते हैं... और हां, यहां प्रकाशित प्रत्येक रचना के कॉपीराइट उसके रचयिता या प्रकाशक के पास ही हैं... उन्हें श्रेय देकर ही इन रचनाओं को प्रकाशित कर रहा हूं, परंतु यदि किसी को आपत्ति हो तो कृपया vivek.rastogi.2004@gmail.com पर सूचना दें, रचना को तुरंत हटा लिया जाएगा...
Wednesday, January 14, 2009
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