Monday, January 12, 2009

जगद् गुरु श्री शञ्कराचार्यविरचितम् चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् (मूल संस्कृत तथा हिन्दी में पद्यानुवाद)

विशेष नोट : मेरी नानीजी भी गाती थीं, मां भी और मौसियां भी... मुझे भी सारा याद है... हाल ही में ननिहाल से मौसी की भजन वाली डायरी उठा लाया था, सो, यह भी टाइप कर दिया... इस भजन की विशेषता यही है कि यह अनुवाद होकर भी पद्य में होने के कारण स्वयं में संपूर्ण आनंद देती है...

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


रे मूढ़ मन... गोविन्द की खोज कर, गोविन्द का भजन कर और गोविन्द का ही ध्यान कर... अन्तिम समय आने पर व्याकरण के नियम तेरी रक्षा न कर सकेंगे...

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥1॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


निशिदिन शाम सवेरा आता, फेरा शिशिर वसंत लगाता।
काल खेल में जाता जीवन, कटता किंतु न आशा बंधन॥1॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥2॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


अग्नि-सूर्य से तप दिन जाते, घुटने मोड़े रात बिताते।
बसे वृक्ष तल, लिए भीख धन, किंतु न छूटा आशा बंधन॥2॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


यावद्वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे॥3॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


जब तक कमा-कमा धन धरता, प्रेम कुटुंब तभी तक करता।
जब होगा तन बूढ़ा जर्जर, कोई बात न पूछेगा घर॥3॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोकः उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः॥4॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


जटा बढ़ाई, मूंड मुंडाए, नोचे बाल, वस्त्र रंगवाये।
सब कुछ देख, न देख सका जन, करता शोक पेट के कारण॥4॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


भगवद् गीता किञ्चितधीता गङ्गाजल लवकणिका पीता।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चा॥5॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


पढ़ी तनिक भी भगवद् गीता, एक बूंद गंगाजल पीता।
प्रेम सहित हरि पूजन करता, यम उसकी चर्चा से डरता॥5॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥6॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


सारे अंग शिथिल, सिर मुंडा, टूटे दांत, हुआ मुख तुंडा।
वृद्ध हुए तब दंड उठाया, किंतु न छूटी आशा-माया॥6॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः।
वृध्दस्तावच्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः॥7॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


बालकपन हंस-खेल गंवाया, यौवन तरुणी संग बिताया।
वृद्ध हुआ चिंता ने घेरा, पार ब्रह्म में ध्यान न तेरा॥7॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे॥8॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


फिर-फिर जनम-मरण है होता, मातृ उदार में फिर-फिर सोता।
दुस्तर भारी संसृति सागर, करो मुरारे पार कृपा कर॥8॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षम् तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्॥9॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


फिर-फिर रैन-दिवस हैं आते, पक्ष-महीने आते-जाते।
अयन, वर्ष होते नित नूतन, किंतु न छूटा आशा बंधन॥9॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्वे कः संसारः॥10॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


काम वेग क्या आयु ढले पर, नीर सूखने पर क्या सरवर।
क्या परिवार द्रव्य खोने पर, क्या संसार ज्ञान होने पर॥10॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।
एतन्मांसवसादि विकारं मनसि विचारय बारम्बारम्॥11॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


नारि नाभि कुच में रम जाना, मिथ्या माया मोह जगाना।
मैला मांस विकार भरा घर, बारम्बार विचार अरे नर॥11॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।
इति परभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्ता स्वप्नविचारम्॥12॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


तू मैं कौन, कहां से आए, कौन पिता मां किसने जाये।
इनको नित्य विचार अरे नर, जग प्रपंच तज स्वप्न समझकर॥12॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

गेयं ग‍ीतानामसह्स्रम् ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम् देयं दीनजनाय च वित्तम्॥13॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


गीता ज्ञान विचार निरंतर, सहस नाम जप हरि में मन धर।
सत्संगति में बैठ ध्यान दे, दीनजनों को द्रव्य दान दे॥13॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या विभ्यति तस्मिन्काये॥14॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


जब तक रहते प्राण देह में, तब तक पूछें कुशल गेह में।
तन से सांस निकल जब जाते, पत्नी-पुत्र सभी भय खाते॥14॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणम् तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥15॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


भोग-विलास किए सब सुख से, फिर तन होता रोगी दुःख से।
मरना निश्चित जग में जन को, किंतु न तजता पाप चलन को॥15॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।
नाहं न त्वं नायं लोकः तदपि किमर्थं क्रियते शोकः॥16॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


चिथड़ों की गुदड़ी बनवा ली, पुण्य-पाप से राह निराली।
नित्य नहीं मैं, तू जग सारा, फिर क्यों करता शोक पसारा॥16॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीने सर्वमतेन मुक्तिर्भवति न जन्मशतेन॥17॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


क्या गंगासागर का जाना, धर्म-दान-व्रत-नियम निभाना।
ज्ञान बिना चाहे कुछ भी कर, सौ-सौ जन्म न मुक्ति मिले नर॥17॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...


॥इति जगद् गुरु श्री शञ्कराचार्यविरचितम् चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् संपूर्णम्॥

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...