Friday, August 19, 2011

समर शेष है... (रामधारी सिंह 'दिनकर')

विशेष नोट : बचपन में पाठ्यपुस्तकों में जिन कवियों को पढ़ाया गया, उनमें रामधारी सिंह 'दिनकर' का नाम प्रमुख है... कविताकोश.ओआरजी (http://www.KavitaKosh.org) पर इस कविता के साथ प्रकाशित कवि परिचय के अनुसार 23 सितम्बर, 1908 को बिहार में बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में जन्मे श्री दिनकर ने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की, तथा साहित्य के रूप में इन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया... 'राष्ट्रकवि' की उपाधि से सुशोभित तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता दिनकर आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं... उनका निधन 24 अप्रैल, 1974 को हुआ... यह कविता उनकी कलम से निकली बहुत-सी बेजोड़ रचनाओं में से एक है, जो आज भी प्रासंगिक है...


ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो,
किसने कहा, युद्ध की वेला चली गई, शांति से बोलो...?
किसने कहा, और मत वेधो हृदय वह्रि के शर से,
भरो भुवन का अंग कुमकुम से, कुसुम से, केसर से...?

कुमकुम...? लेपूं किसे...? सुनाऊं किसको कोमल गान...?
तड़प रहा आंखों के आगे, भूखा हिन्दुस्तान...

फूलों के रंगीन लहर पर, ओ उतरने वाले...
ओ रेशमी नगर के वासी, ओ छवि के मतवाले...
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रोशनी, शेष भारत में अंधियाला है...

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार...

वह संसार, जहां तक पहुंची अब तक नहीं किरण है,
जहां क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है...
देख जहां का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है,
मां को लज्ज वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है...

पूज रहा है जहां चकित हो, जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में, अटका कहां स्वराज...?

अटका कहां स्वराज...? बोल दिल्ली, तू क्या कहती है...?
तू रानी बन गई, वेदना जनता क्यों सहती है...?
सबके भाग्य दबा रखे हैं, किसने अपने कर में...?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में...

समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनी, महावज्र टूटेगा...

समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा,
जिसका है ये न्यास, उसे सत्वर पहुंचाना होगा...
धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं,
गंगा का पथ रोक, इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं...

कह दो उनसे झुके अगर, तो जग मे यश पाएंगे,
अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाएंगे...

समर शेष है, जनगंगा को खुलकर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो...
पथरीली ऊंची जमीन है...? तो उसको तोड़ेंगे,
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे...

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खण्ड-खण्ड हो, गिरे विषमता की काली जंजीर...

समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं,
गांधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं...

समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है...

समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल,
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल...

तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना,
सावधान हो खड़ी, देश भर में गांधी की सेना...
बलि देकर भी बलि, स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे,
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बांधो रे...

समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध...

Thursday, August 18, 2011

मुसाफिर हूं यारों... (परिचय)

विशेष नोट : यह गीत हमेशा से मेरे पसंदीदा गीतों की सूची में रहा है, जिसके दो कारण हैं... एक, यह मेरे पसंदीदा पार्श्वगायक की आवाज़ में है, और दूसरी वजह इसके रचयिता गुलज़ार हैं, जिनका शायद ही कोई गीत होगा, जो मुझे पसंद न आया हो... सो, आज उनकी 75वीं वर्षगांठ पर उनका लिखा यह गीत आप सबके लिए...


फिल्म : परिचय (1972)
संगीतकार : राहुल देव बर्मन (आरडी बर्मन, पंचम)
गीतकार : गुलज़ार (सम्पूरण सिंह कालरा)
पार्श्वगायक : किशोर कुमार

मुसाफिर हूं यारों...
न घर है, न ठिकाना...
मुझे चलते जाना है... बस, चलते जाना...

एक राह रुक गई, तो और जुड़ गई...
मैं मुड़ा तो साथ-साथ, राह मुड़ गई...
हवा के परों पर, मेरा आशियाना...
मुसाफिर हूं यारों...
न घर है, न ठिकाना...
मुझे चलते जाना है... बस, चलते जाना...

दिन ने हाथ थामकर, इधर बिठा लिया...
रात ने इशारे से, उधर बुला लिया...
सुबह से, शाम से, मेरा दोस्ताना...
मुसाफिर हूं यारों...
न घर है, न ठिकाना...
मुझे चलते जाना है... बस, चलते जाना...

Wednesday, August 10, 2011

कौन क्या-क्या खाता है...? (काका हाथरसी)

विशेष नोट : काका हाथरसी बहुत छोटी-सी आयु (मेरी ही आयु की बात कर रहा हूं) से मेरे पसंदीदा हास्य कवि रहे हैं... आकाशवाणी के कार्यक्रमों को सुनने वाले जानते हैं कि उनकी कुण्डलियां बेहद प्रसिद्ध रही हैं... इन्हीं पर आधारित उनकी लिखी एक कविता आप सबके लिए kavitakosh.org से लेकर आया हूं...

खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल,
रोगी खाते औषधि, लड्डू खाएं किलोल,
लड्डू खाएं किलोल, जपें खाने की माला,
ऊंची रिश्वत खाते, ऊंचे अफसर आला,
दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सिर खाते,
लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते...

दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर,
हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर,
कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएं भ्रष्टाजी,
बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी,
दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं,
न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं...

सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय,
चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय,
नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएं,
पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएं,
उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते,
छेड़छाड़ में नकली मजनूं, चप्पल खाते...

सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं,
राजीव जी के सामने, मंत्री चक्कर खायं,
मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएं,
एलेक्शन में हार जायं तो मुंह की खाएं,
जीजाजी खाते देखे साली की गाली,
पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली...

मंदिर जाकर भक्तगण, खाते प्रभू प्रसाद,
चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद,
चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन,
कंट्रैक्टर से इंजीनियर जी खायं कमीशन,
अनुभवहीन व्यक्ति दर-दर की ठोकर खाते,
बच्चों की फटकारें, बूढ़े होकर खाते...

दद्दा खाएं दहेज में, दो नंबर के नोट,
पाखंडी मेवा चरें, पंडित चाटें होंट,
पंडित चाटें होंट, वोट खाते हैं नेता,
खायं मुनाफा उच्च, निच्च राशन विक्रेता,
काकी मैके गई, रेल में खाकर धक्का,
कक्का स्वयं बनाकर खाते कच्चा-पक्का...

चालीसवां राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव (अशोक चक्रधर)

विशेष नोट : मेरे पसंदीदा हास्य कवियों की सूची में एक नाम बेहद अच्छे व्यंग्यकार अशोक चक्रधर का भी है... मज़ेदार बात यह है कि मेरी मां को भी उनकी रचनाएं, और उनसे भी ज़्यादा कवितापाठ करते वक्त उनके चेहरे पर आने वाली मुस्कुराहट पसंद है... वह मेरी पत्नी के अध्यापक भी रहे हैं... उनकी कई रचनाएं कभी दूरदर्शन पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में सुनी हैं... आज उन्हीं की एक और रचना आप सबके लिए लेकर आया हूं...

पिछले दिनों
चालीसवां राष्ट्रीय भ्रष्टाचार महोत्सव मनाया गया...
सभी सरकारी संस्थानों को बुलाया गया...

भेजी गई सभी को निमंत्रण-पत्रावली,
साथ में प्रतियोगिता की नियमावली...
लिखा था -
प्रिय भ्रष्टोदय,
आप तो जानते हैं,
भ्रष्टाचार हमारे देश की
पावन-पवित्र सांस्कृतिक विरासत है,
हमारी जीवन-पद्धति है,
हमारी मजबूरी है, हमारी आदत है...
आप अपने विभागीय भ्रष्टाचार का
सर्वोत्कृष्ट नमूना दिखाइए,
और उपाधियां तथा पदक-पुरस्कार पाइए...
व्यक्तिगत उपाधियां हैं -
भ्रष्टशिरोमणि, भ्रष्टविभूषण,
भ्रष्टभूषण और भ्रष्टरत्न,
और यदि सफल हुए आपके विभागीय प्रयत्न,
तो कोई भी पदक, जैसे -
स्वर्ण गिद्ध, रजत बगुला,
या कांस्य कउआ दिया जाएगा...
सांत्वना पुरस्कार में,
प्रमाण-पत्र और
भ्रष्टाचार प्रतीक पेय व्हिस्की का
एक-एक पउवा दिया जाएगा...
प्रविष्टियां भरिए...
और न्यूनतम योग्यताएं पूरी करते हों तो
प्रदर्शन अथवा प्रतियोगिता खंड में स्थान चुनिए...

कुछ तुले, कुछ अनतुले भ्रष्टाचारी,
कुछ कुख्यात निलंबित अधिकारी,
जूरी के सदस्य बनाए गए,
मोटी रकम देकर बुलाए गए...
मुर्ग तंदूरी, शराब अंगूरी,
और विलास की सारी चीज़ें जरूरी,
जुटाई गईं,
और निर्णायक मंडल,
यानि कि जूरी को दिलाई गईं...

एक हाथ से मुर्गे की टांग चबाते हुए,
और दूसरे से चाबी का छल्ला घुमाते हुए,
जूरी का एक सदस्य बोला -
मिस्टर भोला,
यू नो,
हम ऐसे करेंगे या वैसे करेंगे,
बट बाइ द वे,
भ्रष्टाचार नापने का पैमाना क्या है,
हम फैसला कैसे करेंगे...?

मिस्टर भोला ने सिर हिलाया,
और हाथों को घूरते हुए फरमाया -
चाबी के छल्ले को टेंट में रखिए,
और मुर्गे की टांग को प्लेट में रखिए,
फिर सुनिए मिस्टर मुरारका,
भ्रष्टाचार होता है चार प्रकार का...
पहला - नज़राना...
यानि नज़र करना, लुभाना...
यह काम होने से पहले दिया जाने वाला ऑफर है...
और पूरी तरह से
देनेवाले की श्रद्धा और इच्छा पर निर्भर है...
दूसरा - शुकराना...
इसके बारे में क्या बताना...
यह काम होने के बाद बतौर शुक्रिया दिया जाता है...
लेने वाले को
आकस्मिक प्राप्ति के कारण बड़ा मजा आता है...
तीसरा - हकराना, यानि हक जताना...
हक बनता है जनाब,
बंधा-बंधाया हिसाब...
आपसी सैटलमेंट,
कहीं दस परसेंट, कहीं पंद्रह परसेंट, कहीं बीस परसेंट...
पेमेंट से पहले पेमेंट...
चौथा - जबराना...
यानी जबर्दस्ती पाना...
यह देने वाले की नहीं,
लेने वाले की
इच्छा, क्षमता और शक्ति पर डिपेंड करता है...
मना करने वाला मरता है...
इसमें लेने वाले के पास पूरा अधिकार है,
दुत्कार है, फुंकार है, फटकार है...
दूसरी ओर न चीत्कार, न हाहाकार,
केवल मौन स्वीकार होता है...
देने वाला अकेले में रोता है...

तो यही भ्रष्टाचार का सर्वोत्कृष्ट प्रकार है...
जो भ्रष्टाचारी इसे न कर पाए, उसे धिक्कार है...
नजराना का एक प्वाइंट,
शुकराना के दो, हकराना के तीन,
और जबराना के चार...
हम भ्रष्टाचार को अंक देंगे इस प्रकार...

रात्रि का समय...
जब बारह पर आ गई सुई,
तो प्रतियोगिता शुरू हुई...

सर्वप्रथम जंगल विभाग आया,
जंगल अधिकारी ने बताया -
इस प्रतियोगिता के
सारे फर्नीचर के लिए,
चार हजार चार सौ बीस पेड़ कटवाए जा चुके हैं...
और एक-एक डबल बैड, एक-एक सोफा-सैट,
जूरी के हर सदस्य के घर, पहले ही भिजवाए जा चुके हैं...
हमारी ओर से भ्रष्टाचार का यही नमूना है,
आप सुबह जब जंगल जाएंगे,
तो स्वयं देखेंगे,
जंगल का एक हिस्सा अब बिलकुल सूना है...

अगला प्रतियोगी पीडब्ल्यूडी का,
उसने बताया अपना तरीका -
हम लैंड-फिलिंग या अर्थ-फिलिंग करते हैं...
यानि ज़मीन के निचले हिस्सों को,
ऊंचा करने के लिए मिट्टी भरते हैं...
हर बरसात में मिट्टी बह जाती है,
और समस्या वहीं-की-वहीं रह जाती है...
जिस टीले से हम मिट्टी लाते हैं,
या कागजों पर लाया जाना दिखाते हैं,
यदि सचमुच हमने उतनी मिट्टी को डलवाया होता,
तो आपने उस टीले की जगह पृथ्वी में,
अमरीका तक का आर-पार गड्ढा पाया होता...
लेकिन टीला ज्यों-का-त्यों खड़ा है,
उतना ही ऊंचा, उतना ही बड़ा है...
मिट्टी डली भी और नहीं भी,
ऐसा नमूना नहीं देखा होगा कहीं भी...

क्यू तोड़कर अचानक,
अंदर घुस आए एक अध्यापक -
हुजूर, मुझे आने नहीं दे रहे थे,
शिक्षा का भ्रष्टाचार बताने नहीं दे रहे थे, प्रभो!

एक जूरी मेंबर बोला - चुप रहो,
चार ट्यूशन क्या कर लिए,
कि भ्रष्टाचारी समझने लगे,
प्रतियोगिता में शरीक होने का दम भरने लगे...
तुम क्वालिफाई ही नहीं करते,
बाहर जाओ -
नेक्स्ट, अगले को बुलाओ...

अब आया पुलिस का एक दरोगा बोला -
हम न हों तो भ्रष्टाचार कहां होगा...?
जिसे चाहें पकड़ लेते हैं, जिसे चाहें रगड़ देते हैं,
हथकड़ी नहीं डलवानी, दो हज़ार ला,
जूते भी नहीं खाने, दो हज़ार ला,
पकड़वाने के पैसे, छुड़वाने के पैसे,
ऐसे भी पैसे, वैसे भी पैसे,
बिना पैसे, हम हिलें कैसे...?
जमानत, तफ़्तीश, इनवेस्टीगेशन,
इनक्वायरी, तलाशी या ऐसी सिचुएशन,
अपनी तो चांदी है,
क्योंकि स्थितियां बांदी हैं,
डंके का ज़ोर है,
हम अपराध मिटाते नहीं हैं,
अपराधों की फसल की देखभाल करते हैं,
वर्दी और डंडे से कमाल करते हैं...

फिर आए क्रमश:
एक्साइज़ वाले, इन्कम टैक्स वाले,
स्लम वाले, कस्टम वाले,
डीडीए वाले,
टीए, डीए वाले,
रेल वाले, खेल वाले,
हैल्थ वाले, वैल्थ वाले,
रक्षा वाले, शिक्षा वाले,
कृषि वाले, खाद्य वाले,
ट्रांसपोर्ट वाले, एअरपोर्ट वाले,
सभी ने बताए अपने-अपने घोटाले...

प्रतियोगिता पूरी हुई,
तो जूरी के एक सदस्य ने कहा -
देखो भाई,
स्वर्ण गिद्ध तो पुलिस विभाग को जा रहा है,
रजत बगुले के लिए पीडब्ल्यूडी, डीडीए के बराबर आ रहा है...
और ऐसा लगता है हमको,
कांस्य कउआ मिलेगा एक्साइज़ या कस्टम को...

निर्णय-प्रक्रिया चल ही रही थी कि
अचानक मेज फोड़कर,
धुएं के बादल अपने चारों ओर छोड़कर,
श्वेत धवल खादी में लक-दक,
टोपीधारी गरिमा-महिमा उत्पादक,
एक विराट व्यक्तित्व प्रकट हुआ...
चारों ओर रोशनी और धुआं...
जैसे गीता में श्रीकृष्ण ने,
अपना विराट स्वरूप दिखाया,
और महत्त्व बताया था...
कुछ-कुछ वैसा ही था नज़ारा...
विराट नेताजी ने मेघ-मंद्र स्वर में उचारा -
मेरे हज़ारों मुंह, हजारों हाथ हैं...
हज़ारों पेट हैं, हज़ारों ही लात हैं...
नैनं छिन्दन्ति पुलिसा-वुलिसा,
नैनं दहति संसदा...
नाना विधानि रुपाणि,
नाना हथकंडानि च...
ये सब भ्रष्टाचारी मेरे ही स्वरूप हैं,
मैं एक हूं, लेकिन करोड़ों रूप हैं...
अहमपि नजरानम् अहमपि शुकरानम्,
अहमपि हकरानम् च जबरानम् सर्वमन्यते...
भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार,
इंजीनियर, ओवरसियर, रिश्तेदार-नातेदार,
मुझसे ही पैदा हुए, मुझमें ही समाएंगे,
पुरस्कार ये सारे मेरे हैं, मेरे ही पास आएंगे...
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