Wednesday, May 01, 2013

इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं... (ओम प्रकाश 'आदित्य')

विशेष नोट : बचपन में दूरदर्शन पर हास्य कवि सम्मेलनों को बहुत मनोयोग से देखता था, और तभी परिचय हुआ था, ओम प्रकाश 'आदित्य' जी के नाम से... हाल ही में उनकी यह कविता मुझे कविताकोश.ओआरजी पर मिली, सो, आप लोगों के लिए ले आया हूं... 


इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं...
जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं...

गधे हंस रहे, आदमी रो रहा है...
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है...

जवानी का आलम गधों के लिए है...
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है...

ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिए है...
ये संसार सालम गधों के लिए है...

पिलाए जा साकी, पिलाए जा डट के...
तू विहस्की के मटके पै मटके पै मटके...

मैं दुनिया को अब भूलना चाहता हूं...
गधों की तरह झूमना चाहता हूं...

घोड़ों को मिलती नहीं घास देखो...
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो...

यहां आदमी की कहां कब बनी है...
ये दुनिया गधों के लिए ही बनी है...

जो गलियों में डोले, वो कच्चा गधा है...
जो कोठे पे बोले, वो सच्चा गधा है...

जो खेतों में दीखे, वो फसली गधा है...
जो माइक पे चीखे, वो असली गधा है...

मैं क्या बक गया हूं, ये क्या कह गया हूं...
नशे की पिनक में, कहां बह गया हूं...

मुझे माफ करना, मैं भटका हुआ था...
वो ठर्रा था, भीतर जो अटका हुआ था...

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