विशेष नोट : यह कविता स्कूल की किताबों में नहीं, शौक की वजह से कहीं और पढ़ी थी... इस तरह की कविताएं हमेशा से पसंद आती रही हैं, सो, आज एक किताब में दिखी तो आप लोगों के लिए भी टाइप कर दी है...
जला अस्थियां बारी-बारी,
चिटकाई जिनमें चिंगारी...
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे...
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...
पीकर जिनकी लाल शिखाएं,
उगल रही सौ लपट दिशाएं...
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...
अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा...
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...
बचपन से ही कविताओं का शौकीन रहा हूं, व नानी, मां, मौसियों के संस्कृत श्लोक व भजन भी सुनता था... कुछ का अनुवाद भी किया है... वैसे यहां अनेक रचनाएं मौजूद हैं, जिनमें कुछ के बोल मार्मिक हैं, कुछ हमें गुदगुदाते हैं... और हां, यहां प्रकाशित प्रत्येक रचना के कॉपीराइट उसके रचयिता या प्रकाशक के पास ही हैं... उन्हें श्रेय देकर ही इन रचनाओं को प्रकाशित कर रहा हूं, परंतु यदि किसी को आपत्ति हो तो कृपया vivek.rastogi.2004@gmail.com पर सूचना दें, रचना को तुरंत हटा लिया जाएगा...
Friday, December 18, 2009
कलम, आज उनकी जय बोल... (रामधारी सिंह 'दिनकर')
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