विशेष नोट : एक और भी हास्य कवि थे, स्वर्गीय शैल चतुर्वेदी, जिनकी यह कविता बचपन में दूरदर्शन पर आते रहने वाले हास्य कवि सम्मेलनों में कई बार सुनी... आज एक वेबसाइट पर दिखी तो आप लोगों के लिए भी अपने ब्लॉग पर ले आया हूं...
वैसे तो एक शरीफ इंसान हूं...
आप ही की तरह श्रीमान हूं...
मगर अपनी आंख से बहुत परेशान हूं...
अपने आप चलती है...
लोग समझते हैं, चलाई गई है...
जान-बूझकर मिलाई गई है...
एक बार बचपन में...
शायद सन पचपन में...
क्लास में...
एक लड़की बैठी थी पास में...
नाम था सुरेखा...
उसने हमें देखा...
और बांई चल गई...
लड़की हाय-हाय...
क्लास छोड़ बाहर निकल गई...
थोड़ी देर बाद...
हमें है याद...
प्रिंसिपल ने बुलाया...
लंबा-चौड़ा लेक्चर पिलाया...
हमने कहा, जी, भूल हो गई...
वो बोले, ऐसा भी होता है भूल में...
शर्म नहीं आती,
ऐसी गंदी हरकतें करते हो,
स्कूल में...
और इससे पहले कि,
हकीकत बयान करते...
कि फिर चल गई...
प्रिंसिपल को खल गई...
हुआ यह परिणाम...
कट गया नाम...
बमुश्किल तमाम...
मिला एक काम...
इंटरव्यू में, खड़े थे क्यू में...
एक लड़की थी सामने अड़ी...
अचानक मुड़ी...
नजर उसकी हम पर पड़ी...
और आंख चल गई...
लड़की उछल गई...
दूसरे उम्मीदवार चौंके...
उस लडकी की साइड लेकर...
हम पर भौंके...
फिर क्या था...
मार-मार जूते-चप्पल...
फोड़ दिया बक्कल...
सिर पर पांव रखकर भागे...
लोग-बाग पीछे, हम आगे...
घबराहट में घुस गए एक घर में...
भयंकर पीड़ा थी सिर में...
बुरी तरह हांफ रहे थे...
मारे डर के कांप रहे थे...
तभी पूछा उस गृहिणी ने...
कौन...?
हम खड़े रहे मौन...
वो बोली,
बताते हो या किसी को बुलाऊं...?
और उससे पहले...
कि जबान हिलाऊं...
चल गई...
वह मारे गुस्से के...
जल गई...
साक्षात दुर्गा-सी दीखी...
बुरी तरह चीखी...
बात की बात में...
जुड़ गए अड़ोसी-पड़ोसी...
मौसा-मौसी...
भतीजे-मामा...
मच गया हंगामा...
चड्डी बना दिया हमारा पजामा...
बनियान बन गया कुर्ता...
मार-मार बना दिया भुरता...
हम चीखते रहे...
और पीटने वाले...
हमें पीटते रहे...
भगवान जाने कब तक...
निकालते रहे रोष...
और जब हमें आया होश...
तो देखा, अस्पताल में पड़े थे...
डाक्टर और नर्स घेरे खड़े थे...
हमने अपनी एक आंख खोली...
तो एक नर्स बोली...
दर्द कहां है...?
हम कहां-कहां बताते...
और इससे पहले कि कुछ कह पाते...
चल गई...
नर्स कुछ नहीं बोली...
बाई गॉड... (चल गई)
मगर डाक्टर को खल गई...
बोला, इतने सीरियस हो...
फिर भी ऐसी हरकत,
कर लेते हो इस हाल में...
शर्म नहीं आती मोहब्बत करते हुए,
अस्पताल में...?
उन सबके जाते ही आया वार्ड-बॉय...
देने लगा अपनी राय...
भाग जाएं चुपचाप...
नहीं जानते आप...
बढ़ गई है बात...
डाक्टर को गड़ गई है...
केस आपका बिगड़वा देगा...
न हुआ तो मरा बताकर...
जिंदा ही गड़वा देगा...
तब अंधेरे में आंखें मूंदकर...
खिड़की से कूदकर भाग आए...
जान बची तो लाखों पाए...
एक दिन सकारे...
बाप जी हमारे...
बोले हमसे,
अब क्या कहें तुमसे...?
कुछ नहीं कर सकते,
तो शादी कर लो...
लड़की देख लो...
मैंने देख ली है,
जरा हैल्थ की कच्ची है...
बच्ची है, फिर भी अच्छी है...
जैसी भी, आखिर लड़की है...
बड़े घर की है...
फिर बेटा,
यहां भी तो कड़की है...
हमने कहा,
जी, अभी क्या जल्दी है...?
वह बोले,
गधे हो...
ढाई मन के हो गए,
मगर बाप के सीने पर लदे हो...
वह घर फंस गया तो संभल जाओगे...
तब एक दिन भगवान से मिलके...
धड़कता दिल ले...
पहुंच गए रुड़की,
देखने लड़की...
शायद हमारी होने वाली सास...
बैठी थी हमारे पास...
बोली, यात्रा में तकलीफ तो नहीं हुई...
और आंख मुई चल गई...
वह समझी कि मचल गई...
बोली, लड़की तो अंदर है...
मैं लड़की की मां हूं...
लड़की को बुलाऊं...
और इससे पहले कि मैं जुबान हिलाऊं...
आंख चल गई दुबारा...
उन्होंने किसी का नाम ले पुकारा...
झटके से खड़ी हो गईं...
हम जैसे गए थे, लौट आए...
घर पहुंचे मुंह लटकाए...
पिता जी बोले,
अब क्या फायदा,
मुंह लटकाने से...
आग लगे ऐसी जवानी में,
डूब मरो चुल्लू भर पानी में...
नहीं डूब सकते तो आंखें फोड़ लो...
नहीं फोड़ सकते हमसे नाता ही तोड़ लो...
जब भी कहीं जाते हो,
पिटकर ही आते हो...
भगवान जाने कैसे चलाते हो...?
अब आप ही बताइए,
क्या करूं...?
कहां जाऊं...?
कहां तक गुन गाऊं,
अपनी इस आंख के...
कमबख्त जूते खिलवाएगी,
लाख-दो-लाख के...
अब आप ही संभालिए...
मेरा मतलब है कि कोई रास्ता निकालिए...
जवान हो या वृद्धा,
पूरी हो या अद्धा...
केवल एक लड़की...
जिसकी एक आंख चलती हो...
पता लगाइए...
और मिल जाए तो,
हमारे आदरणीय 'काका' जी को बताइए...
बचपन से ही कविताओं का शौकीन रहा हूं, व नानी, मां, मौसियों के संस्कृत श्लोक व भजन भी सुनता था... कुछ का अनुवाद भी किया है... वैसे यहां अनेक रचनाएं मौजूद हैं, जिनमें कुछ के बोल मार्मिक हैं, कुछ हमें गुदगुदाते हैं... और हां, यहां प्रकाशित प्रत्येक रचना के कॉपीराइट उसके रचयिता या प्रकाशक के पास ही हैं... उन्हें श्रेय देकर ही इन रचनाओं को प्रकाशित कर रहा हूं, परंतु यदि किसी को आपत्ति हो तो कृपया vivek.rastogi.2004@gmail.com पर सूचना दें, रचना को तुरंत हटा लिया जाएगा...
Saturday, December 19, 2009
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