Sunday, May 01, 2011

अन्वेषण... (रामनरेश त्रिपाठी)

विशेष नोट : इस कविता का ज़िक्र आज (दिनांक 1 मई, 2011) सुबह मेरी मां ने किया... उनके मुताबिक यह कविता उन्होंने तब पढ़ी थी, जब वह सातवीं कक्षा में पढ़ती थीं... इन्टरनेट पर ढूंढी, मिल गई, बेहद अच्छी लगी, सो, अब आप लोग भी पढ़ लें... कविता के रचयिता श्री रामनरेश त्रिपाठी का जन्म वर्ष 1881 में जौनपुर जिले के कोइरीपुर ग्राम में हुआ, तथा उनकी प्रारंभिक शिक्षा भी जौनपुर में हुई... श्री त्रिपाठी ने कविता के अलावा उपन्यास, नाटक, आलोचना, हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास तथा बालोपयोगी पुस्तकें लिखीं और कविता कौमुदी (आठ भाग में), हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, बांग्ला की कविताएं तथा ग्राम्य गीत (कविता संकलन) संपादित और प्रकाशित किए... इनकी मुख्य काव्य-कृतियां हैं - मिलन, पथिक, स्वप्न तथा मानसी... स्वप्न पर इन्हें हिन्दुस्तान अकादमी का पुरस्कार मिला...

मैं ढूंढता तुझे था, जब कुंज और वन में,
तू खोजता मुझे था, तब दीन के सदन में...

तू आह बन किसी की, मुझको पुकारता था,
मैं था तुझे बुलाता, संगीत में, भजन में...

मेरे लिए खड़ा था, दुखियों के द्वार पर तू,
मैं बाट जोहता था, तेरी किसी चमन में...

बनकर किसी के आंसू, मेरे लिए बहा तू,
आंखें लगी थी मेरी, तब मान और धन में...

बाजे बजा-बजाकर, मैं था तुझे रिझाता,
तब तू लगा हुआ था, पतितों के संगठन में...

मैं था विरक्त तुझसे, जग की अनित्यता पर,
उत्थान भर रहा था, तब तू किसी पतन में...

बेबस गिरे हुओं के, तू बीच में खड़ा था,
मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहां चरन में...

तूने दिए अनेकों अवसर, न मिल सका मैं,
तू कर्म में मगन था, मैं व्यस्त था कथन में...

तेरा पता सिकंदर को, मैं समझ रहा था,
पर तू बसा हुआ था, फरहाद कोहकन में...

क्रीसस की हाय में था, करता विनोद तू ही,
तू अंत में हंसा था, महमूद के रुदन में...

प्रहलाद जानता था, तेरा सही ठिकाना,
तू ही मचल रहा था, मंसूर की रटन में...

आखिर चमक पड़ा तू गांधी की हड्डियों में,
मैं था तुझे समझता, सुहराब पीले तन में...

कैसे तुझे मिलूंगा, जब भेद इस कदर है,
हैरान होके भगवन, आया हूं मैं सरन में...

तू रूप के किरन में सौंदर्य है सुमन में,
तू प्राण है पवन में, विस्तार है गगन में...

तू ज्ञान हिन्दुओं में, ईमान मुस्लिमों में,
तू प्रेम क्रिश्चियन में, तू सत्य है सुजन में...

हे दीनबंधु ऐसी, प्रतिभा प्रदान कर तू,
देखूं तुझे दृगों में, मन में तथा वचन में...

कठिनाइयों दुखों का, इतिहास ही सुयश है,
मुझको समर्थ कर तू, बस कष्ट के सहन में...

दुख में न हार मानूं, सुख में तुझे न भूलूं,
ऐसा प्रभाव भर दे, मेरे अधीर मन में...

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