विशेष नोट : यह ग़ज़ल मेरे ताऊजी, श्री राधेश्याम रस्तोगी 'आरिफ़' की कलम से निकली थी, और उनकी शाया हुई किताब 'तफ़सीर-ए-दिल' का हिस्सा है... आप भी मुलाहिज़ा फरमाएं...
इधर देखते हैं, उधर देखते हैं,
तसव्वुर [1] में तेरा ही घर देखते हैं...
नुमायां जुनूं का, असर देखते हैं,
तुझे जबकि रश्क-ए-क़मर देखते हैं...
सर-ए-शाम, जब आप तशरीफ़ लाए,
सियाही में नूर-ए-सहर [2] देखते हैं...
मरीज़-ए-मुहब्बत हैं, आराम कैसा,
तुझे अपना जब, चारागर [3] देखते हैं...
हुए तेरी सूरत पे, शैदाई [4] सारे,
कभी भूलकर जो इधर देखते हैं...
गुलिस्तां [5] हो, या रेग [6] सहरा [7] हो 'आरिफ़',
तिरा जल्वा आठों पहर देखते हैं...
मुश्किल अल्फ़ाज़ के माने... [कठिन शब्दों के अर्थ]
1. ख़याल
2. प्रातःकाल का उजाला
3. उपचारक, चिकित्सक
4. मोहित
5. बाग
6. रेत
7. जंगल
तसव्वुर [1] में तेरा ही घर देखते हैं...
नुमायां जुनूं का, असर देखते हैं,
तुझे जबकि रश्क-ए-क़मर देखते हैं...
सर-ए-शाम, जब आप तशरीफ़ लाए,
सियाही में नूर-ए-सहर [2] देखते हैं...
मरीज़-ए-मुहब्बत हैं, आराम कैसा,
तुझे अपना जब, चारागर [3] देखते हैं...
हुए तेरी सूरत पे, शैदाई [4] सारे,
कभी भूलकर जो इधर देखते हैं...
गुलिस्तां [5] हो, या रेग [6] सहरा [7] हो 'आरिफ़',
तिरा जल्वा आठों पहर देखते हैं...
मुश्किल अल्फ़ाज़ के माने... [कठिन शब्दों के अर्थ]
1. ख़याल
2. प्रातःकाल का उजाला
3. उपचारक, चिकित्सक
4. मोहित
5. बाग
6. रेत
7. जंगल
अब कुछ शायर के बारे में... साल 1933 के जून माह की पांच तारीख को दुनिया में आए 'आरिफ़' साहेब ने साल 2004 में 25 अक्टूबर को इस जहान-ए-फ़ानी से कूच किया... जनाब 'आरिफ़' की ज़िन्दगी में शेर-ओ-शायरी का आग़ाज़ स्कूल के ज़माने से हुआ... उनके खुद के मुताबिक उन्हें खुशक़िस्मती से स्कूल और कॉलेज में शायर उस्तादों से तालीम पाने का हसीन मौका मिला... कुछ अर्सा जनाब नन्दलाल 'नैरंग' सरहदी के शागिर्द रहे, और सन् 1966 तक अपने शहर रेवाड़ी में बज़्म-ए-अदब के मो'तमद मुआविन (विश्वासपात्र सहायक) की हैसियत से उर्दू ज़बान और अदब के फ़रोग़ (उन्नति) के लिए कोशिश करते रहे... उस दौरान उनके कलाम हरियाणा और दिल्ली से शाया होने वाले उर्दू अख़बारों में अक्सर छपते रहे, जिनमें 'रोज़ाना प्रताप', 'रोज़ाना हरियाणा तिलक', 'भारत निर्माण' और 'पैग़ाम-ए-वतन' के नाम खासतैर पर उल्लेखनीय हैं... दिल्ली और हरियाणा के शहरों में सरकारी और ग़ैर सरकारी मुशायरों में शामिल होने के मौके अक्सर मिलते रहे... उसी दौरान बाहर की दुनिया देखने की तमन्ना लंदन ले गई, और वहां भी आहिस्ता-आहिस्ता अदबी संस्थाओं से संबंध स्थापित हो गए... 'कुल बर्तानिया अन्जुमन तरक़्क़ी-ए-उर्दू' की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य (1973-74) की हैसियत से उर्दू ज़बान-ओ-अदब की ख़िदमत का हसीन मौका हासिल हुआ... लंदन और उसके आसपास ब्रहिंगम, बोल्टन और दूसरे कई शहरों में तरही और ग़ैर तरही मुशायरों में शामिल होने के अक्सर मौके मिलते रहे... University of London (SOAS) के Department of Indology के सौजन्य से होने वाली अदबी महफिलों में भी शिरकत के मौके जनाब डॉ डेविड मैथ्यूज़ और डॉ रामदास गुप्ता की संगत की वजह से मिलते रहे...
No comments:
Post a Comment