Friday, January 08, 2010

छोटा होना महा-मुसीबत...

विशेष नोट : यह कविता मैंने और मेरी मौसेरी बहन ने बचपन में याद की थी, और हमारे ननिहाल में यह सभी को याद है... उम्मीद है कि मेरे बच्चों को भी यह पसंद आएगी...

रचनाकार : अज्ञात

छोटा होना महा-मुसीबत...
छोटा होना महा-मुसीबत...

बीच बड़ों के जाकर बैठूं,
और ज़रा भी अकड़ूं-ऐठूं,
तुरत डांट सुननी पड़ती है,
ये कैसी खराब है आदत...

छोटा होना महा-मुसीबत...

अपने से छोटों को डांटूं,
मम्मी कहती, ज़रा ठहर तू,
बड़ा डांटने वाला आया,
क्या तेरी आई है शामत...

छोटा होना महा-मुसीबत...

हे ईश्वर, मुझे बड़ा बना दे,
मेरे दाढ़ी-मूंछ उगा दे,
क्योंकि बड़ों की यही निशानी,
रोज़ सवेरे करें हजामत...

छोटा होना महा-मुसीबत...

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