विशेष नोट : बच्चों के लिए यह कविता अच्छी रहेगी, मधुर भी है, और इसके जरिये उन्हें चंद्रमा की कला के बारे में भी जानकारी दी जा सकती है...
हठ कर बैठा चांद एक दिन, माता से यह बोला...
सिलवा दो मां, मुझे, ऊन का मोटा एक झिंगोला...
सन-सन चलती हवा रात भर, जाड़े से मरता हूं...
ठिठुर-ठिठुरकर, किसी तरह यात्रा पूरी करता हूं...
आसमान का सफर, और यह मौसम है जाड़े का...
न हो अगर कुछ और, तो ला दो कुर्ता ही भाड़े का...
बच्चे की सुन बात, कहा माता ने, 'अरे सलोने'...
कुशल करे भगवान, लगे मत तुझको जादू-टोने...
जाड़े की तो बात ठीक है, पर मैं तो डरती हूं...
एक नाप में, कभी नहीं तुझको देखा करती हूं...
कभी एक अंगुल भर चौड़ा, कभी एक फुट मोटा...
बड़ा किसी दिन हो जाता है, और किसी दिन छोटा...
घटता-बढ़ता रोज, किसी दिन ऐसा भी करता है...
नहीं किसी की भी आंखों को दिखलाई पड़ता है...
अब तू ही बता यह, नाप तेरी किस रोज लिवाए...
सी दें एक झिंगोला, जो हर रोज बदन में आए...
बचपन से ही कविताओं का शौकीन रहा हूं, व नानी, मां, मौसियों के संस्कृत श्लोक व भजन भी सुनता था... कुछ का अनुवाद भी किया है... वैसे यहां अनेक रचनाएं मौजूद हैं, जिनमें कुछ के बोल मार्मिक हैं, कुछ हमें गुदगुदाते हैं... और हां, यहां प्रकाशित प्रत्येक रचना के कॉपीराइट उसके रचयिता या प्रकाशक के पास ही हैं... उन्हें श्रेय देकर ही इन रचनाओं को प्रकाशित कर रहा हूं, परंतु यदि किसी को आपत्ति हो तो कृपया vivek.rastogi.2004@gmail.com पर सूचना दें, रचना को तुरंत हटा लिया जाएगा...
Friday, September 03, 2010
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