Thursday, July 22, 2010

पानी और धूप... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित कई कविताएं हम सबने अपने स्कूली दिनों में पढ़ी हैं, परंतु यह कविता मुझे हाल ही में इंटरनेट पर कविताओं की एक वेबसाइट पर दिखी... अच्छी लगी, सो, आपके लिए भी प्रस्तुत है...

अभी अभी थी धूप, बरसने लगा कहां से यह पानी...
किसने फोड़ घड़े बादल के, की है इतनी शैतानी...

सूरज ने क्‍यों बंद कर लिया, अपने घर का दरवाज़ा...
उसकी मां ने भी क्‍या उसको, बुला लिया कहकर आजा...

ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं, बादल हैं किसके काका...
किसको डांट रहे हैं, किसने, कहना नहीं सुना मां का...

बिजली के आंगन में अम्‍मा, चलती है कितनी तलवार...
कैसी चमक रही है, फिर भी, क्‍यों खाली जाते हैं वार...

क्‍या अब तक तलवार चलाना, मां, वे सीख नहीं पाए...
इसीलिए क्‍या आज सीखने, आसमान पर हैं आए...

एक बार भी, मां, यदि मुझको, बिजली के घर जाने दो...
उसके बच्‍चों को, तलवार चलाना, सिखला आने दो...

खुश होकर तब बिजली देगी, मुझे चमकती-सी तलवार...
तब मां, कर न कोई सकेगा, अपने ऊपर अत्‍याचार...

पुलिसमैन, अपने काका को, फिर न पकड़ने आएंगे...
देखेंगे तलवार, दूर से ही, वे सब डर जाएंगे...

अगर चाहती हो, मां, काका जाएं अब न जेलखाना...
तो फिर बिजली के घर मुझको, तुम जल्‍दी से पहुंचाना...

काका जेल न जाएंगे अब, तुझे मंगा दूंगी तलवार...
पर बिजली के घर जाने का, अब मत करना कभी विचार...

2 comments:

  1. प्रीति गोयलFriday, July 23, 2010 12:37:00 AM

    विवेक जी शुक्रिया !
    झांसी की रानी के बाद ये दूसरी कविता पढ़ी है सुभद्रा जी की.
    वो कविता ऐसी थी की आज तक गूंजती है मन में ...

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  2. प्रीति जी, सही कहा आपने... काव्य हमेशा कथ्य से अधिक समय तक स्मृति में रहता है... यहां इस ब्लॉग पर मेरी कोशिश बेहतरीन काव्य संकलन (जिसमें सब कुछ हो) प्रस्तुत करने की है... इसके अलावा, खुद की कलम से लिखी कविताएं और अशार भी कहीं और शाया कराने की मंशा कभी बनी नहीं, सो, वे भी यहीं हैं... गुज़ारिश है कि देखिएगा ज़रूर...

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