विशेष नोट : सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित कई कविताएं हम सबने अपने स्कूली दिनों में पढ़ी हैं, परंतु यह कविता मुझे हाल ही में इंटरनेट पर कविताओं की एक वेबसाइट पर दिखी... अच्छी लगी, सो, आपके लिए भी प्रस्तुत है...
यह कदम्ब का पेड़, अगर मां, होता यमुना तीरे...
मैं भी उस पर बैठ, कन्हैया बनता, धीरे-धीरे...
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी, तुम दो पैसे वाली...
किसी तरह नीची हो जाती, यह कदम्ब की डाली...
तुम्हें नहीं कुछ कहता, पर मैं, चुपके-चुपके आता...
उस नीची डाली से अम्मा, ऊंचे पर चढ़ जाता...
वहीं बैठ फिर, बड़े मजे से, मैं बांसुरी बजाता...
अम्मा-अम्मा, कह वंशी के स्वर में, तुम्हे बुलाता...
सुन मेरी बंसी, मां, तुम कितना खुश हो जातीं...
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं...
तुमको आती देख, बांसुरी रख, मैं चुप हो जाता...
एक बार मां कह, पत्तों में, धीरे से छिप जाता...
तुम हो चकित देखतीं, चारों ओर न मुझको पातीं...
व्याकुल सी हो तब, कदम्ब के नीचे तक आ जातीं...
पत्तों का मर-मर स्वर सुनकर, जब ऊपर आंख उठातीं...
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं...
ग़ुस्सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं, नीचे आ जा...
पर जब मैं न उतरता, हंसकर कहतीं, मुन्ना राजा...
नीचे उतरो, मेरे भैया, तुम्हें मिठाई दूंगी...
नए खिलौने - माखन - मिश्री - दूध - मलाई दूंगी...
मैं हंसकर, सबसे ऊपर की, डाली पर चढ़ जाता...
वहीं कहीं पत्तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता...
बहुत बुलाने पर भी मां जब, नहीं उतरकर आता...
मां, तब मां का हृदय तुम्हारा, बहुत विकल हो जाता...
तुम आंचल फैलाकर अम्मा, वहीं पेड़ के नीचे...
ईश्वर से कुछ विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे...
तुम्हें ध्यान में लगी देख, मैं धीरे-धीरे आता...
और तुम्हारे, फैले आंचल के नीचे छिप जाता...
तुम घबराकर आंख खोलतीं, पर मां खुश हो जातीं...
जब अपने मुन्ना राजा को, गोदी में ही पातीं...
इसी तरह कुछ, खेला करते, हम-तुम धीरे-धीरे...
यह कदम्ब का पेड़, अगर मां, होता यमुना तीरे...
यह कदम्ब का पेड़, अगर मां, होता यमुना तीरे...
मैं भी उस पर बैठ, कन्हैया बनता, धीरे-धीरे...
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी, तुम दो पैसे वाली...
किसी तरह नीची हो जाती, यह कदम्ब की डाली...
तुम्हें नहीं कुछ कहता, पर मैं, चुपके-चुपके आता...
उस नीची डाली से अम्मा, ऊंचे पर चढ़ जाता...
वहीं बैठ फिर, बड़े मजे से, मैं बांसुरी बजाता...
अम्मा-अम्मा, कह वंशी के स्वर में, तुम्हे बुलाता...
सुन मेरी बंसी, मां, तुम कितना खुश हो जातीं...
मुझे देखने काम छोड़कर, तुम बाहर तक आतीं...
तुमको आती देख, बांसुरी रख, मैं चुप हो जाता...
एक बार मां कह, पत्तों में, धीरे से छिप जाता...
तुम हो चकित देखतीं, चारों ओर न मुझको पातीं...
व्याकुल सी हो तब, कदम्ब के नीचे तक आ जातीं...
पत्तों का मर-मर स्वर सुनकर, जब ऊपर आंख उठातीं...
मुझे देख ऊपर डाली पर, कितनी घबरा जातीं...
ग़ुस्सा होकर मुझे डांटतीं, कहतीं, नीचे आ जा...
पर जब मैं न उतरता, हंसकर कहतीं, मुन्ना राजा...
नीचे उतरो, मेरे भैया, तुम्हें मिठाई दूंगी...
नए खिलौने - माखन - मिश्री - दूध - मलाई दूंगी...
मैं हंसकर, सबसे ऊपर की, डाली पर चढ़ जाता...
वहीं कहीं पत्तों में छिपकर, फिर बांसुरी बजाता...
बहुत बुलाने पर भी मां जब, नहीं उतरकर आता...
मां, तब मां का हृदय तुम्हारा, बहुत विकल हो जाता...
तुम आंचल फैलाकर अम्मा, वहीं पेड़ के नीचे...
ईश्वर से कुछ विनती करतीं, बैठी आंखें मीचे...
तुम्हें ध्यान में लगी देख, मैं धीरे-धीरे आता...
और तुम्हारे, फैले आंचल के नीचे छिप जाता...
तुम घबराकर आंख खोलतीं, पर मां खुश हो जातीं...
जब अपने मुन्ना राजा को, गोदी में ही पातीं...
इसी तरह कुछ, खेला करते, हम-तुम धीरे-धीरे...
यह कदम्ब का पेड़, अगर मां, होता यमुना तीरे...
कुछ दिनों पहले मैने इसे गाया था हिन्दयुग्म के लिए--------ये कविता है ही ऐसी---- जितनी पढो/सुनो उतनी भाती है......लेकिन दोनों में थोडी भिन्नता है --सही व पूरी कौनसी है? हमने भी बचपन में ही पढी थी पर अब पूरी याद नहीं ....
ReplyDeletehttp://baaludyan.hindyugm.com/2010/02/listen-yeh-kadamb-ka-ped.html
Archana, sachmuch behad khoobsoorat rachna hai yeh... Kavitakosh, jahaan se maine ise liya hai, wahaan 'यह कदम्ब का पेड़' aur 'यह कदम्ब का पेड़ - 2' uplabdh hain... Ek kuchh chhoti hai, aur doosri aapke saamne mere blog par uplabdh hai...
ReplyDeleteविवेक जी,
ReplyDeleteइसे पढ़कर तो स्कूल की यादें ताज़ा हो गयीं...
जिस तरह से लय में कविता पाठ होता था...
उस ही लय में शब्द निकलते हैं इसे पढने पर...
अजब कशिश है इस कविता में...
बार बार पढने को मन करता है...
सुभद्रा जी की बेहतरीन रचनाओं में से एक...
यह कदम्ब का पेड़.
मैंने अपने स्कूल के दिनों में यह कविता कभी नहीं पढ़ी थी... लेकिन बेहद पसंद है...
ReplyDeleteयह कविता स्कूल में हम ने भी नहीं पढ़ी थी... आपके ब्लॉग पर ही पहली बार पढ़ी है... ये अलग बात है कि टिपण्णी करने से पहले ३ बार पढ़ चुके थे !
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत है यह रचना, ये कविता मुझे चार साल की उम्र में कंठस्थ हो गई थी अपनी बहन की पुस्तक से पढ़ कर, ने जाने कैसे! इतनी प्यारी रचना है कि जी करता है बार बार पढ़ें!
ReplyDeleteसही कहा, जितेन्द्र भाई... बेहद खूबसूरत रचना है यह... :-)
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