Tuesday, October 26, 2010

कोई उम्मीद बर नहीं आती... (मिर्ज़ा ग़ालिब)

विशेष नोट : मिर्ज़ा असद-उल्लाह ख़ां 'ग़ालिब' या मिर्ज़ा ग़ालिब को कौन नहीं जानता... वह उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे, जिनका जन्म 27 दिसंबर, 1796 को आगरा में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ... ग़ालिब ने अपने पिता और चाचा को बचपन में ही खो दिया था, और उनका जीवनयापन भी मूलतः अपने चाचा के मरणोपरांत मिलने वाली पेंशन से होता था, जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैन्य अधिकारी रहे थे)... ग़ालिब के खुद के मुताबिक उन्होंने 12 साल की उम्र से ही उर्दू और फ़ारसी में गद्य तथा पद्य लिखने आरम्भ कर दिए थे... 13 साल की उम्र में उनका निकाह हो गया था, जिसके बाद वह दिल्ली आ गए, जहां उनकी तमाम उम्र बीती... उनका देहांत 15 फरवरी, 1869 को हुआ... उनकी एक चर्चित ग़ज़ल आप लोगों के लिए...

कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती...

मौत का एक दिन मु'अय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती...

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हंसी, अब किसी बात पर नहीं आती...

जानता हूं सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद, पर तबीयत इधर नहीं आती...

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूं, वर्ना क्या बात कर नहीं आती...

क्यों न चीख़ूं कि याद करते हैं, मेरी आवाज़ गर नहीं आती...

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता, बू-ए-चारागर नहीं आती...

हम वहां हैं, जहां से हम को भी, कुछ हमारी ख़बर नहीं आती...

मरते हैं आरज़ू में मरने की, मौत आती है पर नहीं आती...

काबा किस मुंह से जाओगे 'ग़ालिब', शर्म तुमको मगर नहीं आती...

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