Wednesday, April 07, 2010

ठुकरा दो या प्यार करो... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : बचपन में सभी बच्चों की तरह मैंने भी सुभद्राकुमारी चौहान रचित 'झांसी की रानी' पढ़ी थी... बेहद पसंद आई, सो, इनकी अन्य कविताएं पढ़ने को भी मन ललचाता रहा... ढूंढता रहा हूं, और पढ़ता रहा हूं... एक कविता यह भी है, जो मुझे अच्छी लगती है, सो, आप सबके साथ भी बांट रहा हूं...

देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं,
सेवा में बहुमूल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं...

धूमधाम से साज-बाज से, वे मंदिर में आते हैं,
मुक्तामणि बहुमूल्य वस्तुएं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं...

मैं ही हूं गरीबिनी ऐसी, जो कुछ साथ नहीं लाई,
फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने चली आई...

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है, झांकी का शृंगार नहीं,
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं...

कैसे करूं कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं,
मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं...

नहीं दान है, नहीं दक्षिणा, खाली हाथ चली आई,
पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ चली आई...

पूजा और पुजापा प्रभुवर, इसी पुजारिन को समझो,
दान-दक्षिणा और निछावर, इसी भिखारिन को समझो...

मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी, हृदय दिखाने आई हूं,
जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आई हूं...

चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो,
यह तो वस्तु तुम्हारी ही है, ठुकरा दो या प्यार करो...

2 comments:

  1. ईश्वर को भक्ति से अधिक क्या चाह होगी.मन से स्मरण करने से भी उसके दर्शन हो सकते हैं.'जो कुछ है उसी का है उसको अर्पण करती कवियत्री ने भावों को बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यक्त किया है.सुभद्रा कुमारी चौहान जी की इस कविता को पढवाने के लिए आभार.

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  2. आपका सदा स्वागत है यहां, अल्पना जी... :-)

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