Monday, April 05, 2010

मेरा नया बचपन... (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : यह कविता काफी पहले पढ़ी थी, लेकिन अपनी बेटी निष्ठा के होने के बाद जब इसे ढूंढना चाहा तो मिल नहीं पाई... आज अचानक ही एक पुराने साथी (शुक्रिया, आलोक भटनागर...) ने यह मुझे भेजी, सो, अब आप सब लोगों के लिए भी अपने ब्लॉग पर ले आया हूं...


बार-बार आती है मुझको, मधुर याद बचपन तेरी...
गया, ले गया, तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी...

चिंता-रहित खेलना-खाना, वह फिरना निर्भय स्वच्छंद...
कैसे भूला जा सकता है, बचपन का अतुलित आनंद...

ऊंच-नीच का ज्ञान नहीं था, छुआछूत किसने जानी...
बनी हुई थी वहां झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी...

किए दूध के कुल्ले मैंने, चूस अंगूठा सुधा पिया...
किलकारी-किल्लोल मचाकर, सूना घर आबाद किया...

रोना और मचल जाना भी, क्या आनंद दिखाते थे...
बड़े-बड़े मोती-से आंसू, जयमाला पहनाते थे...

मैं रोई, मां काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया...
झाड़-पोंछकर चूम-चूम, गीले गालों को सुखा दिया...

दादा ने चंदा दिखलाया, नेत्र नीर-युत दमक उठे...
धुली हुई मुस्कान देखकर, सबके चेहरे चमक उठे...

वह सुख का साम्राज्य छोड़कर, मैं मतवाली बड़ी हुई...
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी, दौड़ द्वार पर खड़ी हुई...

लाजभरी आंखें थीं मेरी, मन में उमंग रंगीली थी...
तान रसीली थी, कानों में, चंचल छैल-छबीली थी...

दिल में एक चुभन-सी थी, यह दुनिया अलबेली थी...
मन में एक पहेली थी, मैं सबके बीच अकेली थी...

मिला, खोजती थी जिसको, हे बचपन! ठगा दिया तूने...
अरे! जवानी के फंदे में मुझको फंसा दिया तूने...

सब गलियां उसकी भी देखीं, उसकी खुशियां न्यारी हैं...
प्यारी, प्रीतम की रंगरलियों की स्मृतियां भी प्यारी हैं...

माना मैंने, युवा-काल का जीवन खूब निराला है...
आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहने वाला है...

किंतु यहां झंझट है भारी, युद्ध-क्षेत्र संसार बना...
चिंता के चक्कर में पड़कर, जीवन भी है भार बना...

आ जा बचपन! एक बार फिर, दे दे अपनी निर्मल शांति...
व्याकुल व्यथा मिटाने वाली, वह अपनी प्राकृत विश्रांति...

वह भोली-सी मधुर सरलता, वह प्यारा जीवन निष्पाप...
क्या आकर फिर मिटा सकेगा, तू मेरे मन का संताप...

मैं बचपन को बुला रही थी, बोल उठी बिटिया मेरी...
नंदनवन-सी फूल उठी, यह छोटी-सी कुटिया मेरी...

'मां ओ' कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी...
कुछ मुंह में, कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने लाई थी...

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतूहल था छलक रहा...
मुंह पर थी आह्लाद-लालिमा, विजय-गर्व था झलक रहा...

मैंने पूछा 'यह क्या लाई', बोल उठी वह 'मां, काओ'...
हुआ प्रफुल्लित हृदय, खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'...

पाया मैंने बचपन फिर से, बचपन बेटी बन आया...
उसकी मंजुल मूर्ति देखकर, मुझमें नवजीवन आया...

मैं भी उसके साथ, खेलती-खाती हूं, तुतलाती हूं...
मिलकर उसके साथ, स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूं...

जिसे खोजती थी बरसों से, अब जाकर उसको पाया...
भाग गया था मुझे छोड़कर, वह बचपन फिर से आया...

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