Monday, December 05, 2011

तब न समझी मां, बाप, अध्यापक की कीमत... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : अगली पीढ़ी को कुछ सिखाने के लिए बिल्कुल यूं ही लिखी है यह अकविता... दरअसल, दो दिन पहले अपने पुराने स्कूल में गया था, लगभग 24 साल बाद, और वहां एक एहसास बेहद सुकून देने वाला था... मां-बाप की तरह अध्यापक भी उतना ही खुश होते हैं, बच्चे की कामयाबी देखकर... अपनी मां, पिता और सभी अध्यापकों को समर्पित कर रहा हूं...

आज मैं कामयाब हूं... नामी हूं... मशहूर हूं...
शायद ऐसा ही हूं... शायद ऐसा नहीं हूं...
लेकिन आज रह-रहकर याद आ रही हैं,
बहुत-सी बातें, जिनकी कीमत तब न समझी...

पापा की झिड़कियां, मां की डांट, और चपत,
अध्यापकों - अध्यापिकाओं का फटकारना,
सारी क्लास के सामने मुर्गा बना देना,
या हाथ ऊपर कर कोने में खड़ा कर देना...

तब मुझे उन पर गुस्सा ही गुस्सा आता था,
पिटता मन रोज़ाना विद्रोही हो उठता था,
जी करता था, भाग जाऊं, और पीछा छुड़ा लूं,
उस जबरदस्ती की पढ़ाई-लिखाई से...

लेकिन पापा की झिड़की में लिपटा हुआ स्नेह,
और मां की चपत के पीछे छिपी ममता,
अध्यापकों का दुलार और मेरे भले की भावना,
अब महसूस होती है, आज समझ आती है...

जब मैं देखता हूं, अपनी कामयाबी की खुशी,
उनके खिलखिलाते चेहरों पर झलकती हुई,
मेरी मां मुझे देखकर रोते हुए हंस रही है,
पिता सिर पर हाथ रख सीने से लिपटा रहे हैं...

बीसियों साल बाद मिलकर भी, मेरे अध्यापक,
पहचान रहे हैं, और हंसकर मुझे मिलवा रहे हैं,
मेरे बाद वाली पीढ़ी से, जो आज मुर्गा बनती है,
हाथ उठाकर क्लास के कोने में खड़ी रहती है...

घर पर मैं देखता हूं, अपने बच्चों की सूरतें,
मां से डांट या मुझसे चपत खाने के बाद,
उन्हें स्कूल में रोज़ डांटे जाने की पीड़ा,
जब विद्रोही भावों के साथ प्रकट होती है...

मेरा मन फिर विचलित हो उठता है,
काश, मैं उन्हें आज ही समझा सकता,
कि यह सब उनके भले के लिए ही है,
क्योंकि मैं अब समझ चुका हूं...

4 comments:

  1. उमदा है, सही है बॉस,,, मेरा भी मन करता है कि मैं अपने स्कूल जाऊं और बच्चों को बताऊं की उनके अध्यापक भी मां-बाप की तरह बच्चों का बुरा नहीं चाहते...

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  2. शुक्रिया, राजीव... :-)

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