Wednesday, March 31, 2010

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले... (मिर्ज़ा असदुल्ला खां ग़ालिब)

विशेष नोट : मेरे पसंदीदा उर्दू शायर मिर्ज़ा असदुल्ला खां ग़ालिब या मिर्ज़ा ग़ालिब की यह ग़ज़ल काफी मशहूर है, सो, एक नज़र आप लोग भी इस पर डालें...

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले...
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले...

डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उसकी गर्दन पर...
वो ख़ूं, जो चश्मे-तर {1} से उम्रभर, यूं दम-ब-दम {2} निकले...

निकलना ख़ुल्द {3} से आदम {4} का, सुनते आए थे लेकिन...
बहुत बेआबरू होकर, तेरे कूचे से हम निकले...

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत {5} की दराज़ी {6} का...
अगर उस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म {7} का पेच-ओ-ख़म निकले...

हुई इस दौर में मंसूब {8} मुझ से बादा-आशामी {9}...
फिर आया वह ज़माना, जो जहां में जाम-ए-जम {10} निकले...

हुई जिनसे तवक़्क़ो {11} ख़स्तगी {12} की दाद पाने की...
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम {13} निकले...

अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए...
हुई सुबह, और घर से कान पर रखकर क़लम निकले...

ज़रा कर ज़ोर सीने में, कि तीरे-पुरसितम {14} निकले...
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले...

मुहब्बत में नहीं है फ़र्क़, जीने और मरने का...
उसी को देखकर जीते हैं, जिस क़ाफ़िर पे दम निकले...

ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम...
कहीं ऐसा न हो, यां भी वही क़ाफ़िर सनम निकले...

कहां मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब', और कहां वाइज़ {15}...
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले...

मुश्किल लफ़्ज़ों के माने... (कठिन शब्दों के अर्थ)
{1} चश्मे-तर : भीगी आंख
{2} दम-ब-दम : प्राय:, बार-बार
{3} ख़ुल्द : स्वर्ग, जन्नत
{4} आदम : पहला मानव
{5} क़ामत : क़द
{6} दराज़ी : ऊंचाई
{7} तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म : बल खाए हुए तुर्रे का बल
{8} मंसूब : आधारित
{9} बादा-आशामी : शराबनोशी,मदिरापान
{10} जाम-ए-जम : जमदेश बादशाह का पवित्र मदिरापात्र
{11} तवक़्क़ो : चाहत
{12} ख़स्तगी : घायलावस्था
{13} ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम : अत्याचार की तलवार के घायल
{14} तीरे-पुर-सितम : अत्याचारपूर्ण तीर
{15} वाइज़ : उपदेशक

2 comments:

  1. कल ही यह गजल जगजीत सिंह की आवाज में १ घंटे तक लगातार सूनी है :)

    पढवाने के लिए शुक्रिया

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