Thursday, December 31, 2009

कुछ ऐसा हो, साल नए में... (विवेक रस्तोगी)

विशेष नोट : अभी-अभी बैठे-बैठे सूझा, बहुत समय से कुछ नहीं लिखा है, सो, एक कोशिश करता हूं... जो बन पाया, आपके सामने है...

हो साल नया, पर काल वही है,
वही हैं हम, और चाल वही है...
देश वही है, वही है मिट्टी,
पत्ते-पौधे, छाल वही है...

वही हैं खुशियां, ग़म वैसे ही,
शोक और उन्माद वही है...
कितना ही, कोई भी रोके,
मौन वही, संवाद वही है...

कुछ ऐसा हो, साल नए में,
मुझको बदले, बेहतर कर दे...
सबको सब कुछ देता जाऊं,
पाऊं कुछ तब, ऐसा वर दे...

आवाज़ दो, हम एक हैं... (जां निसार अख़्तर)

विशेष नोट : मुझे पूरा विश्वास है कि हम सभी ने इन पंक्तियों को बचपन से अब तक कहीं न कहीं, और कभी न कभी ज़रूर सुना या पढ़ा होगा...

एक है अपना जहां, एक है अपना वतन...
अपने सभी सुख एक हैं, अपने सभी ग़म एक हैं...
आवाज़ दो, हम एक हैं...

ये वक़्त खोने का नहीं, ये वक़्त सोने का नहीं...
जागो वतन खतरे में है, सारा चमन खतरे में है...
फूलों के चेहरे ज़र्द हैं, ज़ुल्फ़ें फ़ज़ा की गर्द हैं...
उमड़ा हुआ तूफ़ान है, नरगे में हिन्दोस्तान है...
दुश्मन से नफ़रत फ़र्ज़ है, घर की हिफ़ाज़त फ़र्ज़ है...
बेदार हो, बेदार हो, आमादा-ए-पैकार हो...
आवाज़ दो, हम एक हैं...

ये है हिमालय की ज़मीं, ताजो-अजंता की ज़मीं...
संगम हमारी आन है, चित्तौड़ अपनी शान है...
गुलमर्ग का महका चमन, जमना का तट, गोकुल का मन...
गंगा के धारे अपने हैं, ये सब हमारे अपने हैं...
कह दो, कोई दुश्मन नज़र, उट्ठे न भूले से इधर...
कह दो कि हम बेदार हैं, कह दो कि हम तैयार हैं...
आवाज़ दो, हम एक हैं...

उट्ठो जवानाने वतन, बांधे हुए सर से क़फ़न...
उट्ठो दकन की ओर से, गंगो-जमन की ओर से...
पंजाब के दिल से उठो, सतलज के साहिल से उठो...
महाराष्ट्र की ख़ाक से, देहली की अर्ज़े-पाक से...
बंगाल से, गुजरात से, कश्मीर के बागात से...
नेफ़ा से, राजस्थान से, कुल ख़ाके-हिन्दोस्तान से...
आवाज़ दो, हम एक हैं...
आवाज़ दो, हम एक हैं...
आवाज़ दो, हम एक हैं...

मुश्किल लफ़्ज़ों के माने...
पैकार : जंग, युद्ध
अर्ज़े-पाक : पवित्र भूमि

Wednesday, December 30, 2009

लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले... (ज़ौक़)

विशेष नोट : मोहम्मद इब्राहिम 'ज़ौक़' या सिर्फ 'ज़ौक़' के नाम से मशहूर इस शायर का असली नाम शेख़ इब्राहिम था, और यह मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन थे...

लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले...
अपनी ख़ुशी न आए, न अपनी ख़ुशी चले...

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे...
पर क्या करें, जो काम न बे-दिल-लगी चले...

कम होंगे इस बिसात पे, हम जैसे बद-क़िमार...
जो चाल हम चले, सो निहायत बुरी चले...

हो उम्रे-ख़िज़्र भी, तो कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग...
हम क्या रहे यहां, अभी आए, अभी चले...

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ...
तुम भी चले चलो, यूं ही जब तक चली चले...

नाज़ां न हो ख़िरद पे, जो होना है वो ही हो...
दानिश तेरी, न कुछ मेरी दानिशवरी चले...

जाते हवाए-शौक़ में हैं, इस चमन से 'ज़ौक़'...
अपनी बला से बादे-सबा, अब कभी चले...

मुश्किल लफ़्ज़ों के माने...
हयात : ज़िन्दगी
क़ज़ा : मौत
बिसात : जुए के खेल में
बद-क़िमार : कच्चे जुआरी
उम्रे-ख़िज़्र : अमरता
ब-वक़्ते-मर्ग : मौत के वक्त
ख़िरद : बुद्धि
दानिश : समझदारी
हवाए-शौक़ : प्रेम की हवा
बादे-सबा : सुबह की शीतल वायु

Monday, December 28, 2009

ऐ मेरे वतन के लोगों...

विशेष नोट : यह अमर गीत कवि प्रदीप (वास्तविक नाम - रामचंद्र द्विवेदी) ने लिखा था, और भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए भारतीय वीरों को समर्पित इस गीत को संगीतबद्ध किया था सी रामचंद्र ने... भारतकोकिला कही जाने वाली लता मंगेशकर ने वर्ष 1963 के गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के रामलीला मैदान में इसे तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में गाया था... विशेष बात यह है कि इस गीत से जुड़े किसी भी कलाकार या तकनीशियन (गायक, लेखक, संगीत निर्देशक, वाद्ययंत्र बजाने वालों, रिकॉर्डिंग स्टूडियो, साउंड रिकॉर्डिस्ट आदि) ने कोई पारिश्रमिक नहीं लिया था, और बाद में लेखक कवि प्रदीप ने इस गीत की रॉयल्टी भी 'वार विडोज़ फंड' (War Widow Fund) को दे दी थी...

ऐ मेरे वतन के लोगों,
तुम ख़ूब लगा लो नारा...
ये शुभ दिन है हम सबका,
लहरा लो तिरंगा प्यारा...
पर मत भूलो सीमा पर,
वीरों ने हैं प्राण गंवाए...
कुछ याद उन्हें भी कर लो...
कुछ याद उन्हें भी कर लो...
जो लौटके घर न आए...
जो लौटके घर न आए...

ऐ मेरे वतन के लोगों,
ज़रा आंख में भर लो पानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

जब घायल हुआ हिमालय,
ख़तरे में पड़ी आज़ादी...
जब तक थी सांस लड़े वो,
जब तक थी सांस लड़े वो,
फिर अपनी लाश बिछा दी...

संगीन पे धरकर माथा,
सो गए अमर बलिदानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

जब देश में थी दिवाली,
वो खेल रहे थे होली...
जब हम बैठे थे घरों में,
जब हम बैठे थे घरों में,
वो झेल रहे थे गोली...

थे धन्य जवान वो अपने,
थी धन्य वो उनकी जवानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

कोई सिख, कोई जाट-मराठा,
कोई सिख, कोई जाट-मराठा,
कोई गुरखा कोई मदरासी...
कोई गुरखा कोई मदरासी...
सरहद पे मरनेवाला,
सरहद पे मरनेवाला,
हर वीर था भारतवासी...

जो खून गिरा पर्वत पर,
वो खून था हिन्दुस्तानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

थी खून से लथपथ काया,
फिर भी बंदूक उठाके...
दस-दस को एक ने मारा,
फिर गिर गए होश गंवा के...

जब अंत समय आया तो,
कह गए के अब मरते हैं...
खुश रहना, देश के प्यारों,
अब हम तो सफर करते हैं...
अब हम तो सफर करते हैं...

क्या लोग थे वो दीवाने,
क्या लोग थे वो अभिमानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

तुम भूल न जाओ उनको,
इसलिए कही ये कहानी...
जो शहीद हुए हैं उनकी,
ज़रा याद करो कुर्बानी...

जय हिन्द, जय हिन्द की सेना...
जय हिन्द, जय हिन्द की सेना...
जय हिन्द, जय हिन्द, जय हिन्द...

Saturday, December 19, 2009

पोल-खोलक यंत्र... (अशोक चक्रधर)

विशेष नोट : मेरे पसंदीदा हास्य कवियों की सूची में एक नाम बेहद अच्छे व्यंग्यकार अशोक चक्रधर का भी है... मज़ेदार बात यह है कि मेरी मां को भी उनकी रचनाएं, और उनसे भी ज़्यादा कवितापाठ करते वक्त उनके चेहरे पर आने वाली मुस्कुराहट पसंद है... वह मेरी पत्नी के अध्यापक भी रहे हैं... उनकी कई रचनाएं कभी दूरदर्शन पर आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में सुनी हैं... आज उन्हीं की एक रचना आप सबके लिए भी...

ठोकर खाकर हमने,
जैसे ही यंत्र को उठाया,
मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई,
कुछ घरघराया...

झटके से गरदन घुमाई,
पत्नी को देखा,
अब यंत्र से,
पत्नी की आवाज़ आई...
मैं तो भर पाई...!
सड़क पर चलने तक का,
तरीक़ा नहीं आता,
कोई भी मैनर,
या सली़क़ा नहीं आता...
बीवी साथ है,
यह तक भूल जाते हैं...
और भिखमंगे-नदीदों की तरह,
चीज़ें उठाते हैं...
...इनसे,
इनसे तो,
वो पूना वाला,
इंजीनियर ही ठीक था...
जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता,
इस तरह राह चलते,
ठोकर तो न खाता...

हमने सोचा,
यंत्र ख़तरनाक है...!
और यह भी इत्तफ़ाक़ है,
कि हमको मिला है,
और मिलते ही,
पूना वाला गुल खिला है...

और भी देखते हैं,
क्या-क्या गुल खिलते हैं...?
अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं...

तो हमने एक दोस्त का,
दरवाज़ा खटखटाया...
द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया...
दिमाग़ में होने लगी आहट,
कुछ शूं-शूं,
कुछ घरघराहट...
यंत्र से आवाज़ आई,
अकेला ही आया है,
अपनी छप्पनछुरी,
गुलबदन को,
नहीं लाया है...

प्रकट में बोला,
ओहो...!
कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है...!
और सब ठीक है...?
मतलब, भाभीजी कैसी हैं...?
हमने कहा,
भा... भी... जी...
या छप्पनछुरी गुलबदन...?

वो बोला,
होश की दवा करो श्रीमन्‌,
क्या अण्ट-शण्ट बकते हो...
भाभीजी के लिए,
कैसे-कैसे शब्दों का,
प्रयोग करते हो...?

हमने सोचा,
कैसा नट रहा है,
अपनी सोची हुई बातों से ही,
हट रहा है...
सो, फ़ैसला किया,
अब से बस सुन लिया करेंगे,
कोई भी अच्छी या बुरी,
प्रतिक्रिया नहीं करेंगे...

लेकिन अनुभव हुए नए-नए,
एक आदर्शवादी दोस्त के घर गए...
स्वयं नहीं निकले...
वे आईं,
हाथ जोड़कर मुस्कुराईं,
मस्तक में भयंकर पीड़ा थी,
अभी-अभी सोए हैं...
यंत्र ने बताया,
बिल्कुल नहीं सोए हैं,
न कहीं पीड़ा हो रही है,
कुछ अनन्य मित्रों के साथ,
द्यूत-क्रीड़ा हो रही है...

अगले दिन कॉलिज में,
बीए फ़ाइनल की क्लास में,
एक लड़की बैठी थी,
खिड़की के पास में...
लग रहा था,
हमारा लेक्चर नहीं सुन रही है,
अपने मन में,
कुछ और-ही-और,
गुन रही है...
तो यंत्र को ऑन कर,
हमने जो देखा,
खिंच गई हृदय पर,
हर्ष की रेखा...
यंत्र से आवाज़ आई,
सर जी यों तो बहुत अच्छे हैं,
लंबे और होते तो,
कितने स्मार्ट होते...!

एक सहपाठी,
जो कॉपी पर उसका,
चित्र बना रहा था,
मन-ही-मन उसके साथ,
पिकनिक मना रहा था...
हमने सोचा,
फ़्रायड ने सारी बातें,
ठीक ही कही हैं,
कि इंसान की खोपड़ी में,
सेक्स के अलावा कुछ नहीं है...

कुछ बातें तो,
इतनी घिनौनी हैं,
जिन्हें बतलाने में,
भाषाएं बौनी हैं...

एक बार होटल में,
बेयरा पांच रुपये बीस पैसे,
वापस लाया,
पांच का नोट हमने उठाया,
बीस पैसे टिप में डाले,
यंत्र से आवाज़ आई,
चले आते हैं,
मनहूस, कंजर कहीं के, साले,
टिप में पूरे आठ आने भी नहीं डाले...
हमने सोचा,
ग़नीमत है,
कुछ महाविशेषण और नहीं निकाले...

ख़ैर साहब...!,
इस यंत्र ने बड़े-बड़े गुल खिलाए हैं...
कभी ज़हर तो कभी,
अमृत के घूंट पिलाए हैं...
वह जो लिपस्टिक और पाउडर में,
पुती हुई लड़की है,
हमें मालूम है,
उसके घर में कितनी कड़की है...!
और वह जो पनवाड़ी है,
यंत्र ने बता दिया,
कि हमारे पान में,
उसकी बीवी की झूठी सुपारी है...

एक दिन कवि सम्मेलन मंच पर भी,
अपना यंत्र लाए थे,
हमें सब पता था,
कौन-कौन कवि,
क्या-क्या करके आए थे...

ऊपर से वाह-वाह,
दिल में कराह,
अगला हूट हो जाए, पूरी चाह...
दिमाग़ों में आलोचनाओं का इज़ाफ़ा था,
कुछ के सिरों में सिर्फ,
संयोजक का लिफ़ाफ़ा था...

ख़ैर साहब,
इस यंत्र से हर तरह का भ्रम गया,
और मेरे काव्य-पाठ के दौरान,
कई कवि मित्र,
एक साथ सोच रहे थे,
अरे, यह तो जम गया...!

चल गई... (शैल चतुर्वेदी)

विशेष नोट : एक और भी हास्य कवि थे, स्वर्गीय शैल चतुर्वेदी, जिनकी यह कविता बचपन में दूरदर्शन पर आते रहने वाले हास्य कवि सम्मेलनों में कई बार सुनी... आज एक वेबसाइट पर दिखी तो आप लोगों के लिए भी अपने ब्लॉग पर ले आया हूं...

वैसे तो एक शरीफ इंसान हूं...
आप ही की तरह श्रीमान हूं...
मगर अपनी आंख से बहुत परेशान हूं...
अपने आप चलती है...
लोग समझते हैं, चलाई गई है...
जान-बूझकर मिलाई गई है...

एक बार बचपन में...
शायद सन पचपन में...
क्लास में...
एक लड़की बैठी थी पास में...
नाम था सुरेखा...
उसने हमें देखा...
और बांई चल गई...
लड़की हाय-हाय...
क्लास छोड़ बाहर निकल गई...

थोड़ी देर बाद...
हमें है याद...
प्रिंसिपल ने बुलाया...
लंबा-चौड़ा लेक्चर पिलाया...
हमने कहा, जी, भूल हो गई...
वो बोले, ऐसा भी होता है भूल में...
शर्म नहीं आती,
ऐसी गंदी हरकतें करते हो,
स्कूल में...
और इससे पहले कि,
हकीकत बयान करते...
कि फिर चल गई...
प्रिंसिपल को खल गई...
हुआ यह परिणाम...
कट गया नाम...

बमुश्किल तमाम...
मिला एक काम...
इंटरव्यू में, खड़े थे क्यू में...
एक लड़की थी सामने अड़ी...
अचानक मुड़ी...
नजर उसकी हम पर पड़ी...
और आंख चल गई...
लड़की उछल गई...
दूसरे उम्मीदवार चौंके...
उस लडकी की साइड लेकर...
हम पर भौंके...

फिर क्या था...
मार-मार जूते-चप्पल...
फोड़ दिया बक्कल...
सिर पर पांव रखकर भागे...
लोग-बाग पीछे, हम आगे...
घबराहट में घुस गए एक घर में...
भयंकर पीड़ा थी सिर में...
बुरी तरह हांफ रहे थे...
मारे डर के कांप रहे थे...
तभी पूछा उस गृहिणी ने...
कौन...?
हम खड़े रहे मौन...
वो बोली,
बताते हो या किसी को बुलाऊं...?
और उससे पहले...
कि जबान हिलाऊं...
चल गई...

वह मारे गुस्से के...
जल गई...
साक्षात दुर्गा-सी दीखी...
बुरी तरह चीखी...
बात की बात में...
जुड़ गए अड़ोसी-पड़ोसी...
मौसा-मौसी...
भतीजे-मामा...
मच गया हंगामा...
चड्डी बना दिया हमारा पजामा...
बनियान बन गया कुर्ता...
मार-मार बना दिया भुरता...

हम चीखते रहे...
और पीटने वाले...
हमें पीटते रहे...
भगवान जाने कब तक...
निकालते रहे रोष...
और जब हमें आया होश...
तो देखा, अस्पताल में पड़े थे...
डाक्टर और नर्स घेरे खड़े थे...

हमने अपनी एक आंख खोली...
तो एक नर्स बोली...
दर्द कहां है...?
हम कहां-कहां बताते...
और इससे पहले कि कुछ कह पाते...
चल गई...

नर्स कुछ नहीं बोली...
बाई गॉड... (चल गई)
मगर डाक्टर को खल गई...
बोला, इतने सीरियस हो...
फिर भी ऐसी हरकत,
कर लेते हो इस हाल में...
शर्म नहीं आती मोहब्बत करते हुए,
अस्पताल में...?

उन सबके जाते ही आया वार्ड-बॉय...
देने लगा अपनी राय...
भाग जाएं चुपचाप...
नहीं जानते आप...
बढ़ गई है बात...
डाक्टर को गड़ गई है...
केस आपका बिगड़वा देगा...
न हुआ तो मरा बताकर...
जिंदा ही गड़वा देगा...

तब अंधेरे में आंखें मूंदकर...
खिड़की से कूदकर भाग आए...
जान बची तो लाखों पाए...

एक दिन सकारे...
बाप जी हमारे...
बोले हमसे,
अब क्या कहें तुमसे...?
कुछ नहीं कर सकते,
तो शादी कर लो...
लड़की देख लो...
मैंने देख ली है,
जरा हैल्थ की कच्ची है...
बच्ची है, फिर भी अच्छी है...
जैसी भी, आखिर लड़की है...
बड़े घर की है...
फिर बेटा,
यहां भी तो कड़की है...

हमने कहा,
जी, अभी क्या जल्दी है...?
वह बोले,
गधे हो...
ढाई मन के हो गए,
मगर बाप के सीने पर लदे हो...
वह घर फंस गया तो संभल जाओगे...

तब एक दिन भगवान से मिलके...
धड़कता दिल ले...
पहुंच गए रुड़की,
देखने लड़की...
शायद हमारी होने वाली सास...
बैठी थी हमारे पास...
बोली, यात्रा में तकलीफ तो नहीं हुई...
और आंख मुई चल गई...

वह समझी कि मचल गई...
बोली, लड़की तो अंदर है...
मैं लड़की की मां हूं...
लड़की को बुलाऊं...
और इससे पहले कि मैं जुबान हिलाऊं...
आंख चल गई दुबारा...
उन्होंने किसी का नाम ले पुकारा...
झटके से खड़ी हो गईं...

हम जैसे गए थे, लौट आए...
घर पहुंचे मुंह लटकाए...
पिता जी बोले,
अब क्या फायदा,
मुंह लटकाने से...
आग लगे ऐसी जवानी में,
डूब मरो चुल्लू भर पानी में...
नहीं डूब सकते तो आंखें फोड़ लो...
नहीं फोड़ सकते हमसे नाता ही तोड़ लो...
जब भी कहीं जाते हो,
पिटकर ही आते हो...
भगवान जाने कैसे चलाते हो...?

अब आप ही बताइए,
क्या करूं...?
कहां जाऊं...?
कहां तक गुन गाऊं,
अपनी इस आंख के...
कमबख्त जूते खिलवाएगी,
लाख-दो-लाख के...
अब आप ही संभालिए...
मेरा मतलब है कि कोई रास्ता निकालिए...
जवान हो या वृद्धा,
पूरी हो या अद्धा...
केवल एक लड़की...
जिसकी एक आंख चलती हो...
पता लगाइए...
और मिल जाए तो,
हमारे आदरणीय 'काका' जी को बताइए...

Friday, December 18, 2009

कलम, आज उनकी जय बोल... (रामधारी सिंह 'दिनकर')

विशेष नोट : यह कविता स्कूल की किताबों में नहीं, शौक की वजह से कहीं और पढ़ी थी... इस तरह की कविताएं हमेशा से पसंद आती रही हैं, सो, आज एक किताब में दिखी तो आप लोगों के लिए भी टाइप कर दी है...

जला अस्थियां बारी-बारी,
चिटकाई जिनमें चिंगारी...
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर,
लिए बिना गर्दन का मोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...

जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे...
जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन,
मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...

पीकर जिनकी लाल शिखाएं,
उगल रही सौ लपट दिशाएं...
जिनके सिंहनाद से सहमी,
धरती रही अभी तक डोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...

अंधा चकाचौंध का मारा,
क्या जाने इतिहास बेचारा...
साखी हैं उनकी महिमा के,
सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल...
कलम, आज उनकी जय बोल...

Thursday, December 10, 2009

मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों, एक किस्सा सुनो... (मिस्टर नटवरलाल)

विशेष नोट : यह गीत मुझे बचपन में बेहद अच्छा लगता था, सो, सोचता हूं, बेटे के लिए याद कर लूं...

फिल्म - मिस्टर नटवरलाल
पार्श्वगायक - अमिताभ बच्चन (यह पार्श्वगायक के रूप में अमिताभ बच्चन का पहला प्रयास था...)
संगीतकार - राजेश रोशन
गीतकार - आनन्द बख्शी

आओ बच्चों, आज तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं मैं...
शेर की कहानी सुनोगे... आजा मुन्ना हम्म...

मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों, एक किस्सा सुनो...
मेरे पास आओ, मेरे दोस्तों, एक किस्सा सुनो...

कई साल पहले की ये बात है...

बोलो न... चुप क्यों हो गए...

भयानक अन्धेरी सियाह रात में,
लिए अपनी बन्दूक मैं हाथ में...
घने जंगलों से गुजरता हुआ कहीं जा रहा था...
घने जंगलों से गुजरता हुआ कहीं जा रहा था...
जा रहा था...
नहीं... आ रहा था...
नहीं... जा रहा था...

ओफ्फो... आगे भी तो बोलो न...

बताता हूं... बताता हूं...
नहीं भूलती, उफ्फ, वो जंगल की रात...
मुझे याद है, वो थी मंगल की रात...
चला जा रहा था, मैं डरता हुआ...
हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ...

बोलो हनुमान की जय...
हो जय जय, बजरंग बली की जय...
हां बोलो, हनुमान की जय...
हो जय जय, बजरंग बली की जय...

घड़ी थी, अन्धेरा मगर सख्त था...
कोई दस-सवा दस का वक्त था...
लरजता था कोयल की भी कूक से...
बुरा हाल हुआ उसपे भूख से...
लगा तोड़ने एक बेरी से बेर...
मेरे सामने आ गया एक शेर...

मेरी घिग्घी बंध गई, नजर फिर गई...
फिर तो बन्दूक भी हाथ से गिर गई...
मैं लपका... वो झपटा...
मैं ऊपर, वो नीचे...
वो आगे... मैं पीछे...
मैं पेड़ पे, वो नीचे...
अरे, बचाओ... अरे, बचाओ...
मैं डाल-डाल, वो पात-पात...
मैं पसीना, वो बाग-बाग...
मैं सुर में, वो ताल में...
ये जंगल, पाताल में...
बचाओ... बचाओ...
अरे, भागो रे भागो...

फिर क्या हुआ...

खुदा की कसम, मज़ा आ गया...
मुझे मारकर, बेसरम खा गया...
खा गया... लेकिन आप तो ज़िन्दा हैं...
अरे, ये जीना भी कोई जीना है लल्लू...
हम्म...
ल... ल... ल... र... ल... ल...

ऐ मेरे प्यारे वतन... (काबुलीवाला)

विशेष नोट : भजनों और संस्कृत श्लोकों के अतिरिक्त जो मुझे बेहद पसंद है, वह देशभक्ति गीत हैं... और मुझे खुशी होती है कि मैं उन लोगों में से हूं, जो इन गीतों को सिर्फ 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) पर ही नहीं, सारे साल लगभग रोज़ ही सुनता हूं... सो, एक ऐसा ही गीत आपके लिए भी...

फिल्म - काबुलीवाला
पार्श्वगायक - मन्ना डे
संगीतकार - सलिल चौधरी
गीतकार - प्रेम धवन

ऐ मेरे प्यारे वतन... ऐ मेरे बिछड़े चमन...
तुझपे दिल कुर्बान...
तू ही मेरी आरज़ू... तू ही मेरी आबरू...
तू ही मेरी जान...

मां का दिल बनके कभी, सीने से लग जाता है तू...
और कभी नन्ही-सी बेटी, बनके याद आता है तू...
जितना याद आता है मुझको, उतना तड़पाता है तू...
तुझपे दिल कुर्बान...

तेरे दामन से जो आए, उन हवाओं को सलाम...
चूम लूं मैं उस ज़ुबां को, जिसपे आए तेरा नाम...
सबसे प्यारी सुबह तेरी, सबसे रंगीं तेरी शाम...
तुझपे दिल कुर्बान...

छोड़कर तेरी ज़मीं को दूर आ पहुंचे हैं हम...
है मगर ये ही तमन्ना, तेरे ज़र्रों की कसम...
जिस जगह पैदा हुए थे, उस जगह ही निकले दम...
तुझपे दिल कुर्बान...

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं... (लीडर)

विशेष नोट : भजनों और संस्कृत श्लोकों के अतिरिक्त जो मुझे बेहद पसंद है, वह देशभक्ति गीत हैं... और मुझे खुशी होती है कि मैं उन लोगों में से हूं, जो इन गीतों को सिर्फ 15 अगस्त (स्वतंत्रता दिवस) और 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस) पर ही नहीं, सारे साल लगभग रोज़ ही सुनता हूं... सो, एक ऐसा ही गीत आपके लिए भी...

फिल्म - लीडर
पार्श्वगायक - मोहम्मद रफी
संगीतकार - नौशाद
गीतकार - शकील बदायूंनी

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं,
सर कटा सकते हैं लेकिन, सर झुका सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

हमने सदियों में ये आज़ादी की नेमत पाई है,
हमने ये नेमत पाई है...
सैकड़ों कुर्बानियां देकर ये दौलत पाई है,
हमने ये दौलत पाई है...
मुस्कुराकर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियां,
सीनों पे अपने गोलियां...
कितने वीरानों से गुज़रे हैं तो जन्नत पाई है...
ख़ाक में हम अपनी इज़्ज़त को मिला सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

क्या चलेगी ज़ुल्म की, अहले वफ़ा के सामने,
अहले वफ़ा के सामने...
आ नहीं सकता कोई, शोला हवा के सामने,
शोला हवा के सामने...
लाख फ़ौजें ले के आए, अमन का दुश्मन कोई,
रुक नहीं सकता हमारी एकता के सामने...
हम वो पत्थर हैं जिसे, दुश्मन हिला सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

वक़्त की आवाज़ के, हम साथ चलते जाएंगे,
हम साथ चलते जाएंगे...
हर क़दम पर ज़िन्दगी का, रुख बदलते जाएंगे,
हम रुख़ बदलते जाएंगे...
’गर वतन में भी मिलेगा, कोई गद्दारे वतन,
जो कोई गद्दारे वतन...
अपनी ताकत से हम उसका सर कुचलते जाएंगे...
एक धोखा खा चुके हैं, और खा सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

हम वतन के नौजवां हैं, हमसे जो टकराएगा,
हमसे जो टकराएगा...
वो हमारी ठोकरों से ख़ाक में मिल जाएगा,
ख़ाक में मिल जाएगा...
वक़्त के तूफ़ान में बह जाएंगे ज़ुल्मो-सितम...
आसमां पर ये तिरंगा उम्र भर लहराएगा,
उम्र भर लहराएगा...
जो सबक बापू ने सिखलाया, भुला सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं,
सर कटा सकते हैं लेकिन, सर झुका सकते नहीं...
अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं...

Thursday, December 03, 2009

खिलौनेवाला (सुभद्राकुमारी चौहान)

विशेष नोट : हाल ही में मेरी मौसी मेरे बेटे को कुछ कविताएं सिखा रही थीं, सो, अपनी पढ़ी कुछ कविताएं याद हो आईं... सुभद्राकुमारी चौहान द्वारा रचित यह कविता उन्हीं में से एक है...

वह देखो मां आज, खिलौनेवाला फिर से आया है...
कई तरह के सुंदर-सुंदर, नए खिलौने लाया है...

हरा-हरा तोता पिंजरे में, गेंद एक पैसे वाली...
छोटी-सी मोटर गाड़ी है, सर-सर-सर चलने वाली...

सीटी भी है कई तरह की, कई तरह के सुंदर खेल...
चाभी भर देने से, भक-भक करती, चलने वाली रेल...

गुड़िया भी है बहुत भली-सी, पहने कानों में बाली...
छोटा-सा 'टी सेट' है, छोटे-छोटे हैं लोटा-थाली...

छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं, हैं छोटी-छोटी तलवार...
नए खिलौने ले लो भैया, ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार...

मुन्‍नू ने गुड़िया ले ली है, मोहन ने मोटरगाड़ी...
मचल-मचल सरला करती है, मां से लेने को साड़ी...

कभी खिलौनेवाला भी मां, क्‍या साड़ी ले आता है...
साड़ी तो वह कपड़े वाला, कभी-कभी दे जाता है...

अम्‍मा तुमने तो लाकर के, मुझे दे दिए पैसे चार...
कौन खिलौने लेता हूं मैं, तुम भी मन में करो विचार...

तुम सोचोगी मैं ले लूंगा, तोता, बिल्‍ली, मोटर, रेल...
पर मां, यह मैं कभी न लूंगा, ये तो हैं बच्‍चों के खेल...

मैं तो तलवार खरीदूंगा मां, या मैं लूंगा तीर-कमान...
जंगल में जा, किसी ताड़का, को मारूंगा राम समान...

तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों को, मैं मार भगाऊंगा...
यों ही कुछ दिन करते-करते रामचंद्र बन जाऊंगा...

यही रहूंगा, कौशल्‍या मैं तुमको, यहीं बनाऊंगा...
तुम कह दोगी वन जाने को, हंसते-हंसते जाऊंगा...

पर मां, बिना तुम्‍हारे वन में, मैं कैसे रह पाऊंगा...
दिन भर घूमूंगा जंगल में, लौट कहां पर आऊंगा...

किससे लूंगा पैसे, रूठूंगा तो कौन मना लेगा...
कौन प्‍यार से बिठा गोद में, मनचाही चींज़ें देगा...

Wednesday, December 02, 2009

कौन सिखाता है चिड़ियों को... (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)

विशेष नोट : हाल ही में मेरी मौसी मेरे बेटे को कुछ कविताएं सिखा रही थीं, सो, अपनी पढ़ी कुछ कविताएं याद हो आईं... द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी द्वारा रचित यह कविता उन्हीं में से एक है...

कौन सिखाता है चिड़ियों को, चीं-चीं, चीं-चीं करना...?
कौन सिखाता फुदक-फुदककर, उनको चलना-फिरना...?

कौन सिखाता फुर से उड़ना, दाने चुग-चुग खाना...?
कौन सिखाता तिनके ला-लाकर घोंसले बनाना...?

कौन सिखाता है बच्चों का, लालन-पालन उनको...?
मां का प्यार, दुलार, चौकसी कौन सिखाता उनको...?

कुदरत का यह खेल, वही हम सबको, सब कुछ देती...
किन्तु नहीं बदले में हमसे, वह कुछ भी है लेती...

हम सब उसके अंश कि जैसे तरु-पशु–पक्षी सारे...
हम सब उसके वंशज, जैसे सूरज-चांद-सितारे...
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