Monday, April 28, 2014

दहेज की बारात (काका हाथरसी)

विशेष नोट : यह बात आप सब लोग कई बार पढ़ चुके हैं कि काका हाथरसी बहुत छोटी-सी आयु (मेरी ही आयु की बात कर रहा हूं) से मेरे पसंदीदा हास्य कवि रहे हैं... उनकी यह कविता मैंने बचपन में अपनी मौसी के मुंह से सुनी थी, जिन्हें यह बेहद पसंद थी... मुझे भी पसंद आई, लेकिन कहीं लिखकर रखी न होने के कारण कभी आप लोगों को नहीं पढ़ा पाया... अभी हाल ही में मौसी ने ही फरमाइश की, कहीं से भी लाकर दे, सो, इंटरनेट पर ढूंढा, और कविताकोश.ओआरजी पर तलाश पूरी हुई... लीजिए, आप लोग भी पढ़कर आनंद उठाएं... 


जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र,
फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र,
यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी,
बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी,
कहं 'काका' कविराय, लार म्हौंड़े सौं टपके,
कर लड़ुअन की याद, जीभ स्यांपन सी लपके...

मारग में जब है गई अपनी मोटर फेल,
दौरे स्टेशन लई तीन बजे की रेल,
तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का,
दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का,
कहं 'काका' कविराय, पटक दूल्हा ने खाई,
पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई...

नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ
मुर्गा बनि बैठे हमहुं, मिली न कोऊ सीट,
मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता,
फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता,
कहँ 'काका' कविराय, परिस्थिति विकट हमारी,
पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे 'टिकस' हमारी...

फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय,
एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुं खोय,
एक गई कहुं खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी,
मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी,
कहं 'काका', समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया,
छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया...

जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर,
मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर,
सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़,
स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़,
कहं 'काका' कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ,
निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ...

बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक,
दरबज्जे पे ले लऊं नगद पांच सौ एक,
नगद पांच सौ एक, परेंगी तब ही भांवर,
दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं सांकर,
कहं 'काका' कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे,
अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे...

बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ,
पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात,
सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे,
पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे,
कहं 'काका' कविराय, जान आफत में आई,
जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई...

समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात,
चलै घरात-बरात में थप्पड़-घूंसा-लात,
थप्पड़-घूंसा-लात, तमासौ देखें नारी,
देख जंग को दृश्य, कंपकंपी बंधी हमारी,
कहं 'काका' कवि, बांध बिस्तरा भाजे घर को,
पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को...

मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात,
बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात,
आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी,
दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं,
कहं काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ,
बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ...

हाथ जोरि मांगी क्षमा, नीची करकें मोंछ,
काकी ने पुचकारिकें, आंसू दीन्हें पोंछ,
आंसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई,
जब तक जीऊं, बरात न जाऊं रामदुहाई,
कहं 'काका' कविराय, अरे वो बेटावारे,
अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे...

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